प्रदीप सिंह।
पश्चिम बंगाल चुनाव के नतीजों के कारण बहुत से हैं कि टीएमसी क्यों जीती, भाजपा क्यों हारी, लेकिन एक कारण जो चिल्ला चिल्ला कर बोल रहा है, वो है कि ममता बनर्जी मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण में कामयाब रहीं, भाजपा हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण कराने में पूरी तरह से नाकाम रही। नतीजा सामने है।
मुस्लिम प्रभाव वाली सारी सीटें जीती टीएमसी
पश्चिम बंगाल में 294 सीटों में से 292 सीटों पर चुनाव हुए। इनमें से 133 सीटों पर मुस्लिम मतदाता प्रभावी हैं, वो चुनाव परिणाम बदलने की ताकत रखते हैं। उनमें से टीएमसी ने 133 यानी 100 प्रतिशत सीटें जीतीं। भाजपा ने 200 सीटें जीतने के दावा किया था उसके मुताबिक तो यह भाजपा की बड़ी हार है… तथा लेफ्ट और कांग्रेस का सफाया- जिन दो पार्टियों ने बंगाल पर 64 साल राज किया, उनका एक भी प्रतिनिधि विधानसभा में नहीं। ये कोई सामान्य बात नहीं है। अपने देश में हिन्दू वोटों के ध्रुवीकरण की बात करें, तो उसे साम्प्रदायिकता कहा जाएगा। मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण की बात करें, तो धर्मनिरपेक्षता। लेकिन इसके बावजूद सच्चाई को नहीं बदल सकते। जो सच है, वो सबके सामने है।
बंगाल में मुस्लिम वोट को नहीं हुआ बंटवारा
बंगाल में माना जा रहा था कि कि जो 30 फीसदी मुस्लिम वोट है, वह टीएमसी, लेफ्ट व कांग्रेस और नई बनी फुरफुरा शरीफ वाले सिद्दीकी साहब की आईएसएफ, तीनों में बंटेगा। वह नहीं हुआ। मुसलमान ममता बनर्जी के साथ गए।
लोगों के मन से डर नहीं निकला
कई बार ऐसा होता है कि जो सतह पर दिखता है, वह सही नहीं होता और जो अंदर चल रहा होता है, वह दिखाई नहीं देता। मुस्लिम ध्रुवीकरण के अलावा जो बात टीएमसी की इतनी बड़ी जीत और भाजपा की अपेक्षा के उलट परिणाम आने का कारण बनी वह थी- लोगों में डर। हम लोगों को, तमाम राजनीतिक जानकारों को लग रहा था कि जब से चुनाव आयोग ने केंद्रीय बल बंगाल में तैनात कर दिया है और भाजपा जिस तरह से मुकाबला कर रही है, लोकसभा में जिस तरह 18 सीटें जीती- उसके बाद लोगों के मन से डर निकल गया है। वो निर्भय होकर इस बार वोट देंगे, कोई धांधली नहीं होने पाएगी, जो लेफ्ट करता रहा, ममता करती रही हैं, इस बार वह सिलसिला रुक जाएगा। रुक भी गया, कोई धांधली नहीं हुई, लेकिन लोगों के मन का डर नहीं निकला।
दस गलतियां, जिनकी वजह से भाजपा हारी
बंगाल विधानसभा चुनावों में भाजपा की हार के मैंने 10 कारण खोजे हैं। सिलसिलेवार उनके बारे में बताता हूं।
1- कोशिश जो 2019 में कामयाब हुई 2021 में नहीं
भाजपा सोशल इंजीनियरिंग में लगी रही। मतुआ समुदाय, महेशिया, नामशूद्र समुदाय, आदिवासियों को जोड़ने की कोशिश करती रही। 2019 में इस तरह की कोशिश कामयाब भी हुई। मतुआ समुदाय… महेशिया, जो पिछड़ा वर्ग है… नामशुद्र, दलित समुदाय… का वोट मिला। भाजपा ने मान लिया कि यह मतदाता वर्ग हमारे साथ आ गया है। उस समय उन्होंने वादा किया था कि हम आपको नागरिकता देंगे। मतुआ समुदाय के लिए नागरिकता से बड़ा कोई मुद्दा नहीं है। उन्होंने इस वादे पर भाजपा को वोट किया। इस बार क्यों नहीं किया? भाजपा ने 2019 में सत्ता में लौटने के बाद कानून पास किया। नागरिकता कानून में संशोधन किया। सीएए ले आई और कहा कि हमने इंतजाम कर दिया, अब कानूनी रूप से, संवैधानिक रूप से नागरिकता मिल जाएगी। डेढ़ साल, पौने दो साल हो गए, मतुआ समुदाय को लगा कि ये कह तो रहे थे, लेकिन अभी तक कुछ किया नहीं। लोग इन तकनीकी बातों को नहीं सुनते-सोचते कि कोरोना आ गया था, सीएए के विरोध में आंदोलन चल रहा था, माहौल गरम था, उस समय करना ठीक नहीं था। उनको मतलब था कि आपने वादा किया था, कानून बनाया, फिर भी हमको नागरिकता दी नहीं।
2- टीएमसी ने मतुआ समुदाय को डराया
आकलन करने में गलती यह हुई कि लग रहा था, भाजपा ने जिस तरह काम किया उसकी वजह से मतुआ समुदाय 2019 में साथ आया था- अब भी आएगा। लेकिन इस बात को नजरंदाज कर दिया कि टीएमसी ने भी एक काम किया- उनको डराया। उनसे कहा कि तुमको नागरिकता तो देंगे, लेकिन नागरिकता देने से पहले कहेंगे कि घोषित करो, लिख कर दो कि तुम घुसपैठिया हो, गैरकानूनी रूप से आए हो और तुमको कैंप में रख दिया जाएगा। उसके बाद चलेगा अभियान। पता नही, नागरिकता मिलेगी कि नहीं, कितनों को मिलेगी, कितने लोगों को नहीं मिलेगी। उस समय लग रहा था कि इसका असर नहीं होगा। कानून बन चुका है, एक बार साथ वोट कर चुके हैं, तो ऐसा कोई कारण नहीं है कि अचानक नाराज हो जाएं। लेकिन डर आदमी से वो कराता है, जो वो नहीं करना चाहता या डर में उससे विवेकपूर्ण निर्णय नही हो पाता।
3- हिन्दू वोट नहीं हुआ इकट्ठा
भाजपा हिन्दू वोटर को नहीं जगा पाई, ध्रुवीकरण नहीं करा पाई। लग रहा था कि मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण हो रहा है ममता बनर्जी के लिए, तो हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण इधर होगा। जय श्रीराम का नारा जब लगने लगा तो ममता बनर्जी उस पर भड़कने लगीं, कहने लगीं- खाल खिंचवा लूंगी, जेल भिजवा दूंगी। प्रधानमंत्री के कार्यक्रम से उठ कर चली गईं, तो और ज्यादा नारा लगने लगा। भाजपा ने मान लिया कि यह हिन्दू ध्रुवीकरण का नतीजा है। हिन्दू जाग गया है। वह भूल गई कि हिन्दू ऐसे नहीं जगता। वह जब तक मार नहीं खा लेता है, तब तक नहीं जगता है। जो मार उसने पहले खाई थी, वह उसको भूल चुका था। अब नए सिरे से उस पर कोई हमला नहीं हुआ है, उसने मार नहीं खाई है। जब वह मार नहीं खाता है, तो वह क्या करता है? जाति-क्षेत्र की बात करता है, फिर भाषा की, अपने छोटे-छोटे हित की बात करता है। उसे धर्म तब याद आता है, जब वह मार खाता है। तो भाजपा की बड़ी गलतफहमी रही कि चुनाव सभा में चंडी पाठ का मतलब है ममता बनर्जी डर गई हैं। हिन्दू ध्रुवीकरण बहुत तेज हो गया है- यह गलतफहमी साबित हुई भाजपा की।
4- महाराष्ट्र से नहीं सीखा सबक
महाराष्ट्र में बीच चुनाव में एनसीपी के नेता शरद पवार के पास ईडी का एक समन गया। उस समन का नतीजा यह हुआ कि पूरा मराठा समुदाय शरद पवार के साथ खड़ा हो गया। ईडी के उस एक समन ने पूरा चुनाव बदल दिया। अब मुझे यह समझ में नहीं आता कि बीजेपी ऐसा क्यों करती है? किसी ने अपराध किया है, उसकी जांच हो, पूछताछ हो, इसमें कोई हर्ज नहीं है। लेकिन चुनाव के समय ही क्यों? भाजपा ने जो गलती महाराष्ट्र में की थी, वह बंगाल में भी की। एनआईए, सीबीआई, ईडी, इनकम टैक्स, ये सब कोयला घोटाले, खदान घोटाले और दूसरे मामले में पूछताछ के लिए ममता बनर्जी के परिवार तक पहुंच गए। उनके भतीजे के परिवार के पास, उनके रिश्तेदारों के यहां। ममता बनर्जी का फोटो आपको याद होगा कि अपने भतीजे के घर, भतीजे की छोटी-सी बेटी के साथ बरामदे में खड़ी हैं। उसके घर गईं हैं कि केंद्रीय एजेंसी के लोग पूछताछ करने के लिए आने वाले हैं। इसने सहानुभूति पैदा की। उस समय लग रहा था कि छोटी-सी बात है कि पूछताछ हो रही है तो इसमें गलत बात क्या है। लेकिन ममता बनर्जी ने लोगों को उससे तस्वीर के जरिए संदेश दिया कि मेरे खिलाफ सारी केंद्रीय एजेंसियां हैं, केंद्र सरकार है। इसी सहानुभूति के लिए उन्होंने केंद्रीय सुरक्षाबलों, चुनाव आयोग पर हमला किया। लोगों को लग रहा था कि धांधली नहीं कर पा रही हैं, इस बार रास्ते बंद हो गए हैं इनके, इसलिए बौखलाई हुई हैं और इस तरह के बयान दे रही हैं। लेकिन ममता बनर्जी की रणनीति दूसरी थी।
5- ममता पर व्यक्तिगत हमले
एक गलती भाजपा की यह भी है कि सभी सर्वे और मैंने भी यह बात कही थी कि ममता बनर्जी की लोकप्रियता कम नहीं हुई है। उनकी सरकार और पार्टी के खिलाफ माहौल है। भाजपा, उसके रणनीतिकार भी यह बात जानते थे, इसके बावजूद हमले पार्टी और सरकार से ज्यादा ममता पर व्यक्तिगत रूप से हो रहे थे, उससे महिला वोटरों पर असर पड़ा। उन्हें लगा कि सब लोग एक बेचारी महिला के पीछे पड़े हैं।
6- महंगा पड़ा प्रशांत किशोर का चैट लीक करना
भाजपा ने प्रशांत किशोर का क्लब हाउस का चैट लीक किया। जो ऑडियो टेप बाहर आया, उसमें वह कह रहे थे कि कुछ लोग मोदी को भगवान मानते हैं और टीएमसी ने तुष्टीकरण किया, गलत किया, सभी पार्टियों ने किया। जब ये ऑडियो टेप लीक हुआ, तो बीजेपी के आईटी सेल ने उसको खट से उठाया और उसका खूब प्रचार किया। यह समझ कर कि बस रंगे हाथों पकड़ लिया। अब लगता है कि वह प्रशांत किशोर की रणनीति थी। जानबूझकर लीक कराया। उन्होंने सोचा कि अगर वह खुद ऐसा करेंगे तो ज्यादा प्रचार नहीं हो पाएगा। अगर इस तरह से लीक करें और भाजपा ने उसको उठा लिया तो प्रचार ज्यादा होगा। और वही हुआ। भाजपा इस जाल में फंस गई, उसका खूब प्रचार किया। उसने मुस्लिम वोटों को और ज्यादा इकट्ठा कर दिया। वैसे भी ममता के पक्ष में इकट्ठे हो रहे थे, लेकिन इससे उनको लगा कि हमें ममता का साथ किसी कीमत पर नहीं छोड़ना चाहिए।
7- बाहर से आए लोगों को चुनाव में लगाना पड़ा भारी
बीजेपी ने दूसरे प्रदेशों के नेताओं, कार्यकर्ताओं को चुनाव में लगाया। भाजपा ने बिहार में 2015 में भी यह गलती की थी। भुगता था और माना भी था कि ये गलत हुआ। दरअसल, बाहर से आने वालों को स्थानीय भाषा का ज्ञान नहीं होता। बिहार तो चलिए हिंदी भाषी है, लेकिन बंगाल में जो लोग बांग्ला बोल नहीं सकते, उनको आपने गांव-कस्बों-शहरों में लगा दिया। बंगाल मूल रूप से कस्बों और गांव का ही प्रदेश है। शहरीकरण बहुत ज्यादा नहीं है। बाहर से आए लोग, जो न भाषा जानते हैं और न उस इलाके का भूगोल- उनको आपने काम पर लगाया। उन्होंने कुछ नहीं किया, बल्कि स्थानीय कार्यकर्ताओं को चिढ़ा और दिया, नाराज और कर दिया।
8- जो बचे उनको लगा ममता के साथ जाने में भलाई
लोकसभा चुनाव में भाजपा ने देखा कि सीपीएम और कांग्रेस का वोट उनकी ओर ट्रांसफर हुआ, तो उस ओर से वह निश्चिंत रही। यह लोग इसलिए नहीं आए कि उनको भाजपा से प्रेम था या भाजपा की विचारधारा अचानक पसंद आने लगी, वह सिर्फ इसलिए आए कि ममता के डर से उनको यहां सुरक्षा मिलेगी। यह पार्टी है, जो उन्हें बचा सकती है- उन्हें ऐसा लगने लगा था। इस पर भाजपा ने ये मान लिया कि जो उस समय आए थे, वह तो रहेंगे ही, उसके अलावा उनका बचा हुआ 10-12 प्रतिशत वोट में भी एक हिस्सा उसके साथ आएगा, क्योंकि वह सुरक्षा दे सकती है। लेकिन कोई व्यवस्थित प्रयास नहीं हुआ कि उनको कैसे लाया, जोड़ा जाए। यह मान लिया कि वो तो आ ही जाएंगे, क्योंकि ममता बनर्जी, टीएमसी उसके गुंडों का डर है। लेकिन उल्टा हो गया। जो 2019 में आए थे, लगता है उनमें से कुछ लोग चले गए। जो बाकी बचे थे, उनको लगा कि ममता बनर्जी के साथ जाने में ज्यादा भलाई है।
9- अपने कार्यकर्ताओं पर हमले का जोर शोर से प्रचार
भाजपा ने अपने कार्यकर्ताओं पर हमले का जोर शोर से प्रचार किया। बंगाल में तो किया ही, पूरे देश भर में किया। मीडिया में, हर जगह इस मामले को उठाया। जो डरा हुआ वोटर था, उसको यह संदेश गया कि यह ऐसी पार्टी है, जो अपने कार्यकर्ताओं को नहीं बचा पा रही है, तो हमारी क्या रक्षा करेगी। तो उस डर ने उनको बीजेपी के साथ आने से रोक दिया।
10- विकल्प होने का भरोसा नहीं दिला पाई भाजपा
भाजपा 2012 में उत्तर प्रदेश में लोगों को यह भरोसा नहीं दिला पाई थी कि सत्तारूढ़ दल को हटाकर उसका विकल्प बन सकती है या जीत सकती है। वही पश्चिम बंगाल में भी हुआ। लोगों को यह भरोसा नहीं हुआ, उसकी वजह से भाजपा की ओर जो और वोटर आ सकता था, वह नहीं आया। यह सही है कि उसका वोट प्रतिशत बढ़ गया, सीटें कई गुना बढ़ गईं, लेकिन जिसकी अपेक्षा थी वह सफलता नहीं मिली। इसमें ही यह बात भी शामिल है कि भाजपा ने तृणमूल के लोगों की अंधाधुंध भर्ती की। तृणमूल कांग्रेस के 33 विधायकों को भाजपा ने टिकट दिया, 30 हार गए। ये बात भाजपा ही नहीं, सभी पार्टियों को समझनी चाहिए कि उधार के सिंदूर से मांग नहीं भरी जाती। इसका खामियाजा भाजपा ने पश्चिम बंगाल में भुगता है।