प्रदीप सिंह ।
उत्तराखंड को पिछले चार सालों में पुष्कर सिंह धामी के रूप में तीसरा मुख्यमंत्री प्राप्त हुआ है। दो बार भारतीय जनता पार्टी युवा मोर्चा के अध्यक्ष रहे हैं धामी 45 साल के युवा नेता है। उन्हें उत्तराखंड के सबसे युवा मुख्यमंत्री बनने का गौरव हासिल हुआ है।
जो नहीं होना चाहिए था… वह सब हुआ
उत्तराखंड राज्य के गठन से अब तक की बात करें, तो वहां जिस तरह से बीजेपी चली है, वह इस बात का उदाहरण है कि कैसे पार्टी को नहीं चलाया जाना चाहिए। विशेषकर बीजेपी जैसी पार्टी जो अच्छी रणनीति, अच्छे रणनीतिकारों, व्यापक व सक्रिय संगठन, संघ की मदद का दावा करती है- उससे वहां वो सब गलतियां और गड़बड़ियां हुईं जो नहीं होनी चाहिए थीं। यह समझ में नहीं आता कि पार्टी को उत्तराखंड में समस्या क्या है? उत्तराखंड को राज्य बने 20 साल से थोड़ा अधिक समय हुआ है। इन 20 सालों में दस साल कांग्रेस और दस साल बीजेपी सत्ता में रही है। बीजेपी की ओर से पुष्कर सिंह धामी सातवें मुख्यमंत्री हैं। जबकि दस साल में कांग्रेस की ओर से तीन मुख्यमंत्री बने। पांच साल (स्व.) नारायण दत्त तिवारी लगातार मुख्यमंत्री रहे इसलिए मुख्यमंत्री के मामले में कांग्रेस का रिकॉर्ड भाजपा से बेहतर रहा है। भाजपा का कोई भी मुख्यमंत्री अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया।
अलोकप्रियता का कीर्तिमान!
जब त्रिवेंद्र सिंह रावत मुख्यमंत्री बनाए गए तो माना जा रहा था कि वह पांच साल तक रहेंगे। लेकिन उन्होंने न केवल प्रदेश की जनता बल्कि अपनी पार्टी के नेतृत्व को भी निराश किया। त्रिवेंद्र जिस तरह की पृष्ठभूमि से आते हैं, संघ के समर्पित स्वयंसेवक रहे, सादगी भरा जीवन रहा- उसे देखते हुए उनसे बड़ी उम्मीदें थीं। लेकिन मुख्यमंत्री बनने के बाद से उनका एक अलग ही स्वरूप और चेहरा सामने आया। अगर हम कांग्रेस और बीजेपी समेत उत्तराखंड के सभी मुख्यमंत्रियों की बात करें तो शायद त्रिवेंद्र सिंह रावत से अधिक अलोकप्रिय मुख्यमंत्री कोई नहीं हुआ। एक तरह से अलोकप्रियता के नए कीर्तिमान स्थापित करना ही उनकी विशेषता रही।
मौके पर मौका
लगातार खबरें आती रहीं कि उत्तराखंड सरकार के कामकाज से लोग नाराज हैं, विधायक और संगठन के लोग आकर यही बात बताते थे। यहां तक कि उत्तराखंड में काम कर रहे आरएसएस से जुड़े लोगों का भी फीडबैक यही था। इसके बावजूद बीजेपी हाईकमान ने उनको बदलने की जरूरत नहीं समझी। पार्टी चार साल तक उनको मौका देती रही। इसकी एक वजह पार्टी की यह रणनीति मानी गई कि जिसको एक बार जिम्मेदारी दे दी, फिर उसको बदलते नहीं हैं। लेकिन जब पानी सर के ऊपर जाने लगा तो मुख्यमंत्री बदलना पड़ा। बदलना इसलिए भी पड़ा कि त्रिवेंद्र सिंह रावत खुद मुख्तार हो गए थे। उनको लगा कि उन्हें जो कुछ भी मिला है वह किसी ने दिया नहीं है बल्कि उन्होंने अर्जित किया है। उनका मानना था कि मैं बहुत लोकप्रिय नेता हूं और मुझे मुख्यमंत्री बनाना पार्टी की मजबूरी थी। फिर उन्होंने किसी की भी बात सुननी बंद कर दी। यहां तक कि पार्टी हाईकमान के निर्देशों को भी अनसुना करने लगे। संभवतः उसी के बाद यह तय हो गया था कि त्रिवेंद्र को जाना है। फिर उन्हें इतना अधिक समय क्यों दिया गया यह बात समझ में नहीं आती।
शुरू से ही समस्याग्रस्त रही भाजपा
उत्तराखंड में शुरुआत से ही भाजपा मुख्यमंत्रियों को लेकर समस्याग्रस्त रही है। नित्यानंद स्वामी मुख्यमंत्री क्यों बने- किसी को समझ में नहीं आया। उसके बाद भगत सिंह कोश्यारी, फिर रमेश पोखरियाल निशंक, उनके बाद भुवन चंद खंडूरी मुख्यमंत्री बनाये और हटाये जाते रहे। भुवन चंद खंडूरी तो एक तरह से पार्टी से अलग हो गए। अभी उत्तराखंड में भारतीय जनता पार्टी के पांच भूतपूर्व मुख्यमंत्री हैं। इनमें से निशंक केंद्र सरकार में मंत्री हैं और दूसरे भगत सिंह कोश्यारी महाराष्ट्र में गवर्नर हैं। बाकी तीन में से दो मुख्यमंत्री उत्तराखंड विधानसभा के सदस्य हैं जबकि तीरथ सिंह रावत लोकसभा के सदस्य हैं।
संवैधानिक संकट का बहाना ठीक नहीं
तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री पद से क्यों हटना पड़ा- इस बारे में उन्होंने ही बताया कि एक संवैधानिक समस्या थी। अगर विधानसभा का कार्यकाल एक साल से कम बचा हो तो उपचुनाव नहीं हो सकता और किसी भी मुख्यमंत्री के लिए 6 महीने की अवधि के भीतर विधानसभा का सदस्य बनना आवश्यक है। तीरथ सिंह रावत जो कह रहे हैं वह बात बिल्कुल सही है लेकिन, उनको हटाने का यह कारण तो बिल्कुल नहीं था। क्योंकि चुनाव आयोग किसी भी राज्य में संवैधानिक संकट उत्पन्न नहीं होने देगा। अगर केंद्र या राज्य सरकार चुनाव आयोग से कहते कि ऐसी परिस्थिति है और उप चुनाव कराना बहुत जरूरी है तो चुनाव आयोग चुनाव करा देता। चुनाव आयोग ने इस बात के संकेत भी दिए हैं कि यह असंभव बात नहीं थी। इस तरह एक बात तो यह साफ हुई कि संवैधानिक संकट का बहाना ठीक नहीं था। इसके अलावा दो तीन सुझाव और दिए गए। उनमें एक तो यह कि उन्हें इस्तीफा दिलवा कर पुनः मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलवा दी जाए। पंजाब में एक मंत्री के मामले में ऐसा हो चुका है। वह विधानसभा के सदस्य नहीं बन सके। पंजाब में केवल विधानसभा है। वहां विधान परिषद नहीं है। ऐसे में उनको मंत्री पद से इस्तीफा दिलवा कर पुनः मंत्री पद की शपथ दिला दी गई। मामला हाईकोर्ट से होते हुए सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह संविधान के साथ धोखा है और इस तरह का काम नहीं होना चाहिए। इसके बाद मंत्री को फिर से इस्तीफा देना पड़ा। तो एक मंत्री के इस्तीफा देकर पुनः शपथ लेने पर ऐसी स्थिति बनी थी। लेकिन उत्तराखंड के मामले में कुछ लोगों का कहना था कि तीरथ सिंह रावत को इस्तीफा दिलाकर पुनः शपथ दिला दी जाए और राज्य में चुनाव निर्धारित समय से पूर्व करा दिए जाएं।
चार साल बनाम चार महीने
ऐसे तमाम प्रस्ताव तब कुछ वजन रखते हैं जब पार्टी तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाए रखना चाहती। तीन- साढ़े तीन महीने के मुख्यमंत्रित्व काल में उनके कामकाज को देखकर लगा कि जनता की जो नाराजगी त्रिवेंद्र सिंह रावत ने चार साल में कमाई थी… उतनी नाराजगी तो तीरथ सिंह रावत के खिलाफ चुनाव आते-आते हो जाएगी। तीरथ सिंह रावत के बारे में बीजेपी के अंदरूनी लोगों का कहना है कि वह बहुत सीधे, सरल और सज्जन व्यक्ति हैं- लेकिन प्रशासन चलाना उनके बस की बात नहीं है। यहां सवाल यह है कि पार्टी हाईकमान ने उन्हें मुख्यमंत्री बनाना तय करते वक़्त क्यों नहीं सोचा कि जब उत्तराखंड विधानसभा का एक साल से भी कम कार्यकाल बचा है, ऐसे में हम किसी संसद सदस्य को वहां मुख्यमंत्री बनाकर क्यों भेज रहे हैं? फिर वहां उपचुनाव का सवाल आएगा तो वह किस सीट से लड़ेंगे? अभी उत्तराखंड विधानसभा में दो सीटें- हल्द्वानी और गंगोत्री की- खाली हैं। मुझे नहीं लगता कि इन दोनों में से किसी भी सीट से चुनाव लड़ने में तीरथ सिंह रावत कॉन्फिडेंट और कंफर्टेबल थे। और तो और… पार्टी को भी यह भरोसा नहीं था कि वह उपचुनाव जीत ही जाएंगे। चुनाव से पहले उपचुनाव में मुख्यमंत्री का हार जाना उत्तराखंड में भाजपा के लिए बहुत बड़ा धक्का होता। जाहिर है कि उन्हें उपचुनाव नहीं लड़ाना था इसलिए उसका कोई उपाय नहीं खोजा गया। फिर लौट कर उसी बात पर आते हैं कि यह सब हुआ क्यों? किसने फैसला लिया- चाहे वह पहले बने भाजपा के चार मुख्यमंत्रियों की बात हो या अभी चार साल में बने तीन मुख्यमंत्रियों की? त्रिवेंद्र सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला किस आधार पर किया गया जबकि उनको कोई प्रशासनिक अनुभव नहीं था। सच तो यह है कि त्रिवेंद्र पर पार्टी ने जितना बड़ा भरोसा किया और चुनाव में पार्टी को जितना बड़ा बहुमत मिला था- त्रिवेंद्र उस सम्मान की रक्षा, उस जनादेश का सम्मान नहीं कर सके। त्रिवेंद्र सिंह रावत अभी भी जिस तरह से काम कर रहे हैं उसे देखते हुए अगर उनकी गिनती असंतुष्ट में की जाए तो वह गलत नहीं होगा।
मनोनीत मुख्यमंत्री व छोटे भाई श्री @pushkardhami जी ने शिष्टाचार भेंट की। मुझे पूरा विश्वास है कि आपके नेतृत्व में प्रदेश लगातार विकास की ओर अग्रसर रहेगा।
मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं तथा मैं, भगवान बदरीविशाल व बाबा केदार से प्रार्थना करता हूँ कि आप सभी कार्यों में सफल हों। pic.twitter.com/0y8wnYgWEH
— Trivendra Singh Rawat (@tsrawatbjp) July 4, 2021
भाजपा पस्त तो कांग्रेस भी सुस्त
उत्तराखंड में भाजपा के जो तीन (पूर्व) मुख्यमंत्री हैं और जो अन्य मुख्यमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा रखने वाले दावेदार हैं- यह दरअसल बीजेपी का खेल बिगाड़ने का एक बना बनाया समीकरण है। इन तमाम बातों के होते हुए भी अगर भाजपा 2022 में उत्तराखंड में चुनाव जीत जाए तो वह किसी चमत्कार से कम नहीं होगा। भाजपा की दृष्टि से एक अच्छी बात यह है कि उसकी प्रतिद्वंदी कांग्रेस का घर भी कोई बहुत साफ सुथरा और अच्छी हालत में नहीं है। अभी तक यह तय नहीं हो सका है कि हरीश रावत के नेतृत्व में चुनाव लड़ा जाएगा- या नहीं। हरीश रावत कह रहे हैं कि अगर मेरे चेहरे पर उत्तराखंड में चुनाव लड़ा जाना है तो प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष मेरी पसंद का होना चाहिए। वह पार्टी प्रदेश अध्यक्ष को बदलना चाहते हैं। कांग्रेस पार्टी इस मामले पर कुछ नहीं बोल रही है। उत्तराखंड में चुनाव के सात – आठ महीने बचे हैं। प्रदेश में कांग्रेस पार्टी के पास इस समय हरीश रावत से ज्यादा बड़े जनाधार वाला नेता और कोई नहीं है। अगर हरीश रावत को मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट कर उनके चेहरे पर चुनाव नहीं लड़ा गया तो इसमें कोई दो राय नहीं कि कांग्रेस की स्थिति राज्य में खराब हो सकती है। कुल मिलाकर उत्तराखंड में बीजेपी और कांग्रेस दोनों ही पार्टियों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। लेकिन भाजपा के सामने चुनौती ज्यादा बड़ी है क्योंकि वह सत्ता में है और उसे अपने पांच साल के कामकाज पर वोट मांगने जाना है। जबकि कांग्रेस विपक्ष में है इसलिए उसे अपने कामकाज पर लोगों से वोट नहीं मांगना है। पिछले चुनाव में वह अपने कामकाज पर वोट मांगने गई थी तो लोगों ने उसे रिजेक्ट कर दिया था।
कामकाज से जनता संतुष्ट नहीं
बीजेपी को लोग फिर से क्यों चुनें और वोट दें- इसका कोई बड़ा आधार पार्टी के पास नहीं है। केंद्रीय योजनाओं के सिवा उसके पास बताने के लिए कुछ नहीं है कि उसने क्या काम किया है। केंद्र सरकार की तरफ से राज्य में जो इंफ्रास्ट्रक्चर के प्रोजेक्ट चल रहे हैं उनमें बहुत तेजी से काम हुआ है। उन्हें लोग पसंद कर रहे हैं। लेकिन राज्य सरकार- जो लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी को प्रभावित करती है- उसके कामकाज से जनता संतुष्ट नहीं है। इसमें कोई दो राय नहीं है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि राज्य को चार -सवा चार साल में तीसरा मुख्यमंत्री मिल रहा है।
पहेली का हल ढूंढना पड़ेगा बीजेपी को
पुष्कर सिंह धामी के मुख्यमंत्री बनने में भारतीय जनता पार्टी के भीतर जो समीकरण हैं, उनका एक और संकेत है। इस समय बीजेपी में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) से जुड़े लोगों का या उसमें रहे लोगों का बोलबाला है। यह एक नया बदलाव है। पुष्कर सिंह धामी एबीवीपी में रहे हैं, छात्र राजनीति में एबीवीपी से जुड़े रहे थे। सवाल यह है कि अगर… (और यह बहुत बड़ा ‘अगर’ है)… उत्तराखंड में बीजेपी जीत जाती है तो क्या पुष्कर सिंह धामी आगे भी मुख्यमंत्री बने रहेंगे? या फिर नई तलाश होगी? बीजेपी को अपनी इस पहेली का हल ढूंढना पड़ेगा कि क्यों उसको दस साल में सात मुख्यमंत्री बनाने पड़े। सन 2000 में केंद्र में अटल बिहारी वाजपेई सरकार के समय बने तीन नए राज्यों- झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड- में राजनीतिक दृष्टि से सबसे स्थिर राज्य उत्तराखंड ही रहा है। लेकिन उत्तराखंड में भारतीय जनता पार्टी की राजनीति लगातार अस्थिर स्थिर रही है। क्या उसको पुष्कर सिंह धामी स्थिरता दे पाएंगे- यह बहुत बड़ा सवाल है। क्या पार्टी हाईकमान का भरोसा उन पर बना रहेगा? क्या उस भरोसे पर वह खरे उतर पाएंगे? …ऐसे तमाम सवाल हैं जिनका जवाब आने वाले दिनों में मिलेगा। तब तक इंतजार करते हैं।
फिर चूक गए सतपाल महाराज
जब से सतपाल महाराज कांग्रेस पार्टी छोड़कर भारतीय जनता पार्टी में आए हैं तब से जब भी बीजेपी में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री के चयन की बात होती है तो उनका नाम आगे आता है। इसमें कोई शक नहीं है कि इस बार गंभीरता से उनका नाम ज्यादा आगे था। लेकिन उनको मुख्यमंत्री नहीं बनाया जा सकता था। इसकी वजह यह है कि उससे बीजेपी को और बड़ा नुकसान होता। यह नुकसान उत्तराखंड में होता या नहीं यह तो दावे से नहीं कहा जा सकता …लेकिन देश के अन्य हिस्सों में अवश्य होता। असम में (कांग्रेस से आये) हिमंत बिस्वशर्मा को मुख्यमंत्री बनाने के बाद बीजेपी नहीं चाहती थी कि ऐसा कोई संदेश जाए कि बाहर से आने वाले यहां मुख्यमंत्री के पद तक पहुंच सकते हैं। इससे बीस-पच्चीस-तीस सालों से पार्टी में काम कर रहे कार्यकर्ताओं और नेताओं में क्या संदेश जाता। ऐसे में बीजेपी असम को एक अपवाद के रूप में रखना चाहती है- उसे सामान्य नियम नहीं बनाना चाहती। इसीलिए सतपाल महाराज एक बार फिर से मौका चूक गए। सबने देखा कि नए मुख्यमंत्री को चुनने के लिए हो रही भाजपा विधायक दल की बैठक से वह बीच में ही उठकर अपनी नाराजगी दिखाते हुए चले गए।