सत्यदेव त्रिपाठी।
आज़मगढ़ में नियमित रंगकर्म करने वाले रंगसमूह ‘सूत्रधार’ ने गत 26 अक्तूबर की शाम अपना नया नाटक प्रस्तुत किया– ‘बोंधू अहीर’, जो इतिहास व नाट्यकला के दो-दो अतीतों का पुनरुद्धार करता हुआ सामने आया है। एक तरफ 1857 के स्वतंत्रता आंदोलन में आज़मगढ़ से आज़ादी का बिगुल बजाते हुए इस ज़िले को स्वतंत्र घोषित करने वाले, पर इतिहास की गर्त में गुमनाम हो गये योद्धा बोंधूअहीर को सामने लाने का वह काम किया है, जो पौने दो सौ सालों के इतिहास में नहीं हो पाया। और दूसरी तरफ़ इसे ‘नौटंकी शैली’ में पेश करके उत्तर प्रदेश व बिहार की इस बेहद सशक्त व लोकप्रिय रंगविधा को लगभग 50 सालों बाद (मेरी जानकारी में) फिर से नये व जीवंत रूप में साकार कर दिया है। इस तरह ‘सूत्रधार’ का यह कार्य ऐतिहासिक भी और कलात्मक भी। इससे रंगकर्म की धरती का दाय भी निभाया जा सका है और समूचे प्रांतर की रंगकला के प्रति लगाव व कर्त्तव्य का सही निर्वाह भी हुआ है। इस दोहरी सूझबूझ वाले रंगकर्म के लिए ‘सूत्रधार’ की जितनी तारीफ़ की जाये, कम है। आज़मगढ़ की संतान व इसी प्रांतर के मूल निवासी की हैसियत से मैं ज़िले और अंचल दोनो की तरफ़ से ‘सूत्रधार’ के पूरे दल और ख़ास तौर पर लेखक शेषपाल शेष एवं निर्देशक अभिषेक पंडित का इस्तक़बाल करता हूँ।
रसात्मकता के दोहरे हिंडोले
इन दोनो आयामों ने नाटक के दौरान हमें जिज्ञासा-कुतूहल और अतीत के नाट्यरस की भीनी-भीनी रसात्मकता के दोहरे हिंडोले में दोलायमान होते रहने का सुखद आनंद दिया। अंग्रेज़ी सैन्य-दल (रेजीमेंट) की सत्रहवीं टुकड़ी (बटालियन) के सूबेदार बोधासिंह की शुरुआत होती है उसकी स्वामिभक्ति से, जो इतनी सच्ची थी कि उसके देशभक्ति में बदल जाने पर अंग्रेज हुक्मरान भी सहसा यक़ीन नहीं कर पाते!! लेकिन वह खाँटी स्वामिभक्त उतनी ही खाँटी देशभक्ति में किस-किस तरह बदलती है, के आवश्यक साक्ष्यों के साथ वह अपने देश की आज़ादी के लिए क्या-क्या कुछ करता है, की एक-एक परत खुलते जाने का कथारस भी आलेख व प्रस्तुति में नुमायाँ है। यह कथारस एक तरफ़ है, तो जिस नौटंकी को देखते-सुनते, गाते-चिल्लाते हमारा किशोरपन परवान चढ़ा, उसके भिन्न-भिन्न रूपों-छंदों का चर्वण करते और उन्हीं में ढलते, साकार होते हुए बोंधू को जानने-समझने का कलारस दूसरी तरफ़। कहना होगा कि बोंधू के विद्रोह का एक-एक कार्य बखूबी अपने अंजाम तक पहुँचाया जा सका है। एक बार अंग्रेज़ी हुकूमत की साज़िशी क्रूरता उसकी ज़ेहन में आ जाती है और राष्ट्रीय रक्त उबल उठता है, तो वह पीछे मुड़कर नहीं देखता।
भारतीय मूल्यवत्ता व संस्कृति
बेशक, उसकी विद्रोही चेतना का उत्स उसका अपना शहर आज़मगढ़ है, वही उसकी मुख्य रणभूमि है, लेकिन उसकी राष्ट्र्भक्ति का दायरा संकीर्ण तनिक भी नहीं है। उसका रणक्षेत्र उत्तर में गोरखपुर से दक्षिण में काशी-सोनभद्र तक॰॰॰ और पूरब में बिहार के पश्चिमी हिस्से से कानपुर-लखनऊ तक जाता है। ख़ज़ाना भले आज़मगढ़ व उसकी जदों (रानी की सराय… आदि) में लूटा जाये, उसे अपने ज़रूरतमंद साथियों में बाँटने से लेकर उत्तर भारत में स्वतंत्रता आंदोलन के मुख्य संचालक नानाजी तक पहुँचाया जाता है॰॰॰ इस तरह मदद पूरे प्रांत को मिलती है। नानाजी को बोंधू अहीर के कामों की खबर है और वे उसे शाबाशी भी भेजते हैं एवं समय-समय पर रण की दशा-दिशा के वाजिब निर्देश भी। बोंधू के जज़्बे का भरपूर असर उसके साथियों पर यूँ पड़ता है कि वे अगियाबैताल हो जाते हैं, तो परिवार पर यूँ कि भाई, बेटा और भावी दामाद भी नामी क्रांतिकारी हो जाते हैं। नाटक में इस मामले का चरमोत्कर्ष तब आता है, जब अंग्रेज़-सेना द्वारा तमाम निर्दोष देशवासियों के क़त्लेआम की खबर पाने और चरम उत्तेजना में उनको भी काट डालने की आवेशी घोषणा करते हैं। लेकिन जब अंग्रेज अफ़सर अपनी पत्नी के साथ पकड़ा जाता है, तो उसके माफ़ी माँगने पर बोंधू के साथी अपनी उदार राष्ट्रीय युद्ध-नीतियों व संस्कारों के तहत उन्हें छोड़ देते हैं॰॰॰ तब भारतीय मूल्यवत्ता व संस्कृति अपने चरम को छूने लगती है। कथा में एक तत्त्व ऐसा भी द्रष्टव्य है कि हिंदुस्तानी फ़ौजियों के वेतन इतने कम हंत कि जीवन-यापन की क़िल्लत नाटक में खूब उजागर है। फिर बाग़ी होकर ख़जाने लूटने में यद्यपि क्रांति-कार्य की ज़रूरतें भी वाजिब हैं, पर अतीत के अभाव के दंश की क्षति-पूर्त्ति की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया भी बेतरह याद आती है।
नगाड़े की ज़ोरदार ठनक
इसी प्रकार नौटंकी के अनुषंगों को भी बखूबी पूरा गया है– गायन में साधते हुए और प्राय: बहरत॰॰॰ आदि अधिकांश छंद-प्रयोगों के साथ। नौटंकी में सबसे पहले एक रंगा आया करता था। वह नाटक की पृष्ठभूमि देता था। आँखों में गाढ़ा सुरमा, पीछे को लटके हल्के तेल लगे बाल, चहरे पर हल्के पाउडर आदि का मेकअप व प्राय: लम्बी क़मीज़ व घाघरेनुमा चूड़ीदार पाजामे में बड़े सलीके के साथ मंच के इस छोर से उस छोर तक चलते हुए गुरु-गंभीर आवाज़ एवं सधी लय के साथ गाया जाता छन्द तो नौटंकी का सरताज ‘बहरत’ होता, परशुरुआत दोहे से होती –
‘रामनगर है हिंद में, शहर फ़िदाए हूर, सेठ धनी इक थे वहां सामलाल मशहूर’। (‘गरीब की दुनिया’ से)
दोहे के अंत पर नगाड़े की ज़ोरदार ठनक ऐसा गाढ़ा असर पड़ता कि ‘फ़र्स्ट इम्प्रेशन इज लास्ट इम्प्रेशन’ की कहावत चरितार्थ होती। हम हफ़्तों बौराए रहते। इसमें भी नट-नटी से शुरुआत होती है और वह आज के फ़ैशनेबल जमाने के अनुरूप, पर कलात्मक रुचियों के साथ सज़े-धजे हैं। इनके प्रथम प्रवेश के गायन ‘वतन की नैया खेवनहार, हम सब करें प्रणाम निवेदित- तुमको बारम्बार॰॰॰’ में मंगलाचरण-वंदना व मुख्तसर पात्र-परिचय भी है। फिर वे दोनो सूत्रधार बनकर पूरी प्रस्तुति के दौरान प्राय: हर दृश्य या प्रकरण की शुरुआत पर नाचते-गाते आते-जाते हुए नाटक के अविभाज्य अंग और अति महत्त्वपूर्ण पात्र बन जाते हैं। इसे आप नौटंकी का विस्तार-परिष्कार कहें या बिगाड़, आप समझें। मैं यह कहूँगा कि नट बने शशिकांत (नोनपुर, बिहार) अपनी संगीत-साधना, नाट्य-प्रशिक्षण अनुभव के बूते सम पर रहते हुए क्लासिक-कोटि की ओर उन्मुख हैं, जिनके समानांतर नटी बनी ममता पंडित फुदकती-लहकती चंचल अदा से विषमता की संगति (कंट्रास्ट मैचिंग) बिठाती नज़र आती हैं। नाटक को तय करना है कि विषम-संगति जारी रहे या दोनो को सम की संगति पर साधा जाए। लेकिन यह युक्ति बेहद नाट्यमय है और बहुत सही सधी भी है, जिसके लिए परिकल्पक को पूर्णांक (फ़ुल मार्क्स)।
‘पीछे काबा, आगे कलीसा’
नौटंकी के जोकर, जिसे पुरबही में जोकड़ से बोलचाल में जोकड़वा कहते थे, का स्थानापन्न है मसखरा, जिसे रंग-बिरंगे पहनावे के साथ लाल-भूरे मेकअप में सबसे अलग छटा दी गयी है। उसके मिले-जुले लहजे व अदा में बोलवायी भाषा तथा प्रीशू नाम में भी अंग्रेज-हिंदुस्तानी के बीच की कोई छाप पड़ती है, लेकिन उसकी बातें मसखरी हो के भी पते की हैं, जिससे वह दिखने में फ़नी लेकिन भूमिका में उपयोगी है। ऐसा वर्णशंकर पात्रत्त्व ही नहीं है, दृश्य-विधान व नाट्य-संरचना भी मिश्रित है, जिसे मिलावटी भी कहा जा सकता है। ऐसे ही भाषा-संवाद भी हैं। नौटंकी में सबकुछ पद्यात्मक होता था। यहाँ कई दृश्य गद्य की सामान्य बातचीत में हैं। अंतिम हिस्सा तो कमेंट्री है, जो ज़मीन अच्छे भावप्रवण गीत की है। इन सबके दौरान ‘बोंधू अहीर’ नौटंकी से अलग एक सामान्य नाटक बन जाता है, जिसे नाम देना हो, तो यथार्थवादी ही कहेंगे। यह लेखन-निर्देशन की बड़ी सीमा है। इस कॉकटेल को निबेर कर निराबानी करना ही होगा। इसी तरह ज्यादा कलाकार नाट्य-विषय के मुताबिक़ वर्दी में हैं, जो लोकनाट्य की विविधता (वेराइटी) के विपरीत ‘एकरूपता का ख़तरा’ (यूनिफ़ॉर्ममिटी:अ डेंजर) है। लेकिन कथा व निर्देशन उन्हें कई-कई स्थिति-मौक़े के मुताबिक़ बदलते भी रहते हैं, जिसे कुछ और भी बढ़ाया जा सकता है। इसमें भूमिका की छबि के अनुसार बदलाव से हीन-वंचित व एकरस पात्रत्व है स्वयं नायक बोंधू अहीर का, जिसे ‘भारतेंदु नाट्य अकादमी’ से प्रशिक्षित हरिकेश मौर्य अपनी अभिनेयता की शिद्दत में उतनी ही गंभीरता से निभाते हैं, जिसमें वह महनीय चरित्र अपनी कर्त्तव्यनिष्ठा- गंभीरता- शालीनता-अडिगता- मितभाषिता॰॰॰ आदि रूपों में खूब-खूब खुलता है और इसके बल नाटक की थीम तो न्याय के उच्च सिंहासन पर बिराज उठती है, लेकिन नौटंकी का स्वभाव एकदम पीछे रह जाता है। यह मामला पेचीदा है –‘काबा मेरे पीछे है, कलीसा (चर्च) मेरे आगे’। सब मिलाकर ‘नौटंकी बनाम नाटक’ का यही दोराहा (द्वंद्व) पूरी प्रस्तुति का ही मूलभाव बन जाता है, जो मूलतः वस्तु और विधा (कंटेंट और फ़ॉर्म) की कश्मकश का वृहत्तर रचनात्मक मुद्दा बेहद चुनौतीपूर्ण है। निर्णय यहाँ भी नाटक (वालों) को ही करना है। हरिकेश के वश में यही है कि वे कुछ मौक़ों पर चेहरे-काया की उत्फुल्लता के साथ खुलें-खिलें और वाचा की ऊर्जा के साथ धड़ल्ले से बोलें– आख़िर ‘वचने किं दरिद्रता’ (बोलने में क्या कंजूसी)! और लेखक-निर्देशक इसके लिए अवकाश (स्पेस) बनाएँ– बाक़ी तो लेखक-प्रस्तोता को सोचना है।
अभिनय की उर्वरता
अन्य पात्रों की भूमिकाओं की बात करें, तो अपने अभिनय की धारा में बहते हुए उतरा के उभरने वाले कलाकारों में अखिलेश द्विवेदी अपनी देह-यष्टि से नज़र में आते हैं, फिर अपने सधे क्रिया-कलाप से ध्यान खींचते हैं, लेकिन इसमें सर्वोपरि हुआ अंग्रेज़ों के लहजे में बोलना, जिसे प्रस्तुति के हित में कुछ और संवादों में बढ़ाया जा सकता है, पर उन्हें भी रियाज़ करना होगा। शेख़ दलेल बने रितेश रंजन भी पहले उभरते हैं अपनी काठी से, लेकिन फिर बात की ठसक और उसके मुताबिक़ अंग-चालन में लम्बी दौड़ के अभिनेता वाले लक्षण दिखते हैं। बोंधू के भावी दामाद माधव सिंह बने आदित्य अभिषेक (पंडित) का टटका नवचापन आकृष्ट करता है, लेकिन उसके क्रिया-कलाप-संवाद में जाने-अनजाने ग़ज़ब का आत्मविश्वास है, जो आगे चलकर अभिनय की उर्वरता का तुरुप सिद्ध हो सकता है। मेकअप व वस्त्र-विन्यास से खींचते रहे पालीसर बने शुभम कुमार, लेकिन मुख्य प्रवेश देर से हुआ। भूमिका उनकी स्थिति से उल्टी थी– शासक वर्ग का आदमी अचानक मजबूर हो जाता है। इस बदलाव को लाने में तो शुभम ठीक बने ही, लेकिन एक अंग्रेज का अचानक बहरत बोलना चौंकाने वाला हुआ। उस पर उनकी सबसे अधिक खाँटी पारंपरिक धुन ने ऐसा रिझाया कि नेपथ्य में जाके फिर सुनना पड़ा –
‘कम्पनी राज का छोटा नौकर हूँ मै, धन मुझे मिलना इसमें से धेला नहीं।
पूरा धन शौक़ से आप ले जाइए, डालना मुझको कोई झमेला नहीं।।
दो छोटे-छोटे प्रवेशों में स्वयं निर्देशक अभिषेक आते हैं। पहला तो कथा में मोड़ व अदा में पूरक भर है, लेकिन दूसरे में उनकी भंगिमा-लोच-ठहराव क़ाबिले तारीफ़ है। देखकर लगा कि निर्देशन के साथ या किसी अन्य के निर्देशन में ही एक बार वे बड़ी भूमिका करके अपने को आज़माएँ– शायद बात खूब बन जाये, तो एक बड़ा क्षितिज सामने आये। ऐसा न करके शायद वे अपने साथ भी अन्याय कर रहे हों॰॰॰ तो फिर ‘वो कितने सितमग़र हैं, खुल जाये तो अच्छा हो’!
शेष कलाकार अपनी भूमिकाओं में अच्छे सहयोगी सिद्ध हुए हैं। एक ही शो देखा और अब स्मृति वैसी न रही॰॰॰ तो कोई ख़ास देखने या उल्लेख से छूट रहा हो, तो आन्ही-मान्ही दोष! हाँ, सुधार की ज़रूरत सबको है, इसमें कोई मुग़ालता कर्त्ताओं को भी न होगा। और यह माफ़ीनाम (एक्सक्यूज) फ़िज़ूल है कि १५ दिनों का परिणाम है यह। 60 दिनों न लेने के लिए किसने कहा – क्या शहर कहने आया कि आज ही कर दो नाटक॰॰॰? तो ‘टेक योर टाइम’।
महसूस कर सकता हूँ, कह नहीं सकता…
ऐतिहासिक चेतना की प्रामाणिकता और नौटंकी-नाटक के द्वंद्व एवं दंद-फ़ंद से दूर व मुक्त है प्रस्तुति का बेहतरीन संगीत पक्ष, क्योंकि जहां गीत है, संगीत दे देना ही उनका काम है। इसके लिए संगीत-नियामक नीरज कुशवाहा ‘बिग-बिग’ साधुवाद के सौ फ़ीसदी हक़दार हैं। याद रह जाने लायक़ उनसे मेरी यह पहली ही भेंट रही, लेकिन बात-व्यवहार में उनकी उपस्थिति ही सांगीतिक लगी। मुझे संगीत का तनिक ज्ञान नहीं, इसलिए विवेचन की औक़ात नहीं, लेकिन श्रोता अच्छा हूँ- बल्कि दीवाना। अतः ‘इसे महसूस कर सकता हूँ, लेकिन कह नहीं सकता’। हाँ, यह अवश्य कह सकता हूँ कि जहां शब्द गीतात्मक हैं– ‘चमचम चमके भवनवाँ सपनवाँ फ़ुराय गइलें सजनी’, जहां लय-धुनमयता है– ‘मेरठिया में पैदा भइलें, दिल्ली में बियाही, अब हरजाई भइलें ना॰॰॰’, जहां अविरल प्रवाहमयता है- संभल जाबा हो संभल जाबा, पड़ा बोधू से पाला संभल जाबा॰॰॰’ वहाँ मज़े ही कुछ और हैं। और यूँ भी नौटंकियों की जान बसती है संगीत में। नगाड़ों की थाप सुनकर ही देहात इकट्ठा होता था। और सादर उल्लेख्य है- ‘सूत्रधार’ के लिए शान की बात कि पद्मश्री गुलाब बाई के साथ तबले पर संगत कर चुके मास्टर हरिश्चन्द विशेषत: कानपुर से आये।
अच्छी रसोईं के लिए अच्छे सामान भी चाहिए
लेकिन सारे के सारे गीत सधे नहीं हैं। उदाहरण के लिए ‘हे जनरल साहब कैसे मै बतलाऊँ, जो ज़ुल्म किया है, उसको कैसे मैं समझाऊँ’ जैसी तुकबंदियाँ और भी हैं– बेहद अगीतात्मक। और अच्छी रसोईं के लिए जैसे अच्छे सामान भी चाहिए, उसी तरह अच्छे संगीत-निरूपण के लिए बोल में भी किंचित काव्यत्व- शब्द-संगति, रचाव में प्रवाहमयता, बंधों में छंदमयता॰॰॰आदि की बुनियादी दरकार होती है। फिर भी नीरजजी व उनके वाद्य-सहयोगियों ने इस कमी को पूरते हुए वह काम किया है कि ‘पत्थर में से निकाले उसका नाम सिपाही’॰॰॰।
प्रेमरस से महरूम
अब नौटंकी की जानिब से ‘बोंधू अहीर’ की बावत एक आख़िरी बात॰॰॰ चाहे शब्द-संपदा की गीत-अगीत मयता का द्वंद्व हो, चाहे नौटंकी व इतिहास के दो रस का विरोधाभास, असली बात है नौटंकी में अनिवार्य रूप से रचे-बसे तीसरे रस के भाव की, जिसे कह सकते हैं- प्रेमरस। ‘बोंधू अहीर’ इससे महरूम है, जबकि गुंजाइश थी भी। नायक कोई भी हो- राजा-योद्धा, कवि-कलाकार, चोर-डाकू॰॰॰ आदि, प्रेम से रिक्त नहीं होता। जीवन में भले कोई बोंधू अहीर इससे विरत-विहीन रहा भी हो, लेकिन नौटंकी में उसकी प्रेमिका हो सकती है, क्योंकि यह प्राणि मात्र की सहज वृत्ति है और लोक-साहित्य व लोक-कला की तो नैसर्गिक प्राणवायु है। प्रेमविहीन लोक-कलारूप दुर्लभ है। कला की यह काम्य प्रवृत्ति दर्शकता की हिलोर भी होती है। और जहां तक विद्रोह-वीरता की घटनाओँ की बात है, तो घटनाएँ प्रतीक भी होती हैं और एक घटना अनेक की प्रतिनिधि भी। फिर यदि लोक-कला यथार्थ के इतिहास का समूचा बटोर न होकर उसकी भावात्मक व लयात्मक अभिव्यक्ति होती है, तो ‘बोंधू अहीर’ ही इतिहास के आँकड़ों का भंडार मात्र भी क्यों हो? लिहाज़ा इतिहास की कुछेक घटनाएँ कम भी करके प्रेम रस की अंतर्धारा बहा दें, तो नाटक में नौटंकी के कई दरवाज़े खुल जाएँगे -भाषा के, भाव के, श्रिंगार के॰॰॰॰। इनसे गीत महक उठेंगे, भाषा लहलहा जायेगी- इतिहास झूम उठेगा, नौटंकी लहक उठेगी, प्रस्तुति समृद्ध हो जायेगी, सध जाएगी। प्रस्तोताओं के सपने साकार हो उठेंगे। नाट्यमयता खिल उठेगी। नाटक की सफलता में चार चाँद लग जायेंगे। ‘प्रिया के आवाहन में युद्ध के आवाहन’ का रस पात्रों-कलाकारों से होते हुए दर्शकों तक पहुँचेगा, तो प्रस्तुति भी रसमय हो जायेगी।
शेषजी… अशेष आत्ममुग्धता
इन्हीं सब तमाम बातों को लेकर विमर्श-संवाद के लिए ख़ास तौर पर एवं ऐसे ही कुछ अन्य पक्षोंके साथ ‘बोंधू अहीर’के ऐतिहासिक सूत्रों को जानने के लिए मैं लेखक शेषपालजी की संगति के लिए उनके कमरे में इरादतन गया था। ऐसे आदान-प्रदान में ही मेरे समीक्षक का जीवन बीता है– बसंत देव, सत्यदेव दुबे, विजय तेंदुलकर, जयवंत दलवी व सुरेंद्र वर्मा॰॰॰ आदि तक के बीच। यहाँ भी जाते ही अपनी गरज की गुहार कर दी। लेकिन शेषजी व उनके मित्र-गण अपनी अशेष आत्ममुग्धता में मुतमइन थे। नाटक के पहले शो के बाद वे लोग नाटक के अलावा और सब कुछ पे बात कर रहे थे। उस वक्त बात हो गयी होती, तो यह समीक्षा भी और समृद्ध तथा अधिक प्रामाणिक होती। लेकिन वहाँ तो खाने-पीने में शेषजी के विरल संयम व सरल पसंद की आदतों के बखान से गोया ‘सादा जीवन उच्च विचार’ के संकेत फूट रहे हों॰॰॰ तो मैंने भी मौक़े के अनुसार रचनात्मक चर्चा को जबरन तिलांजलि देकर खान-पान व गपबाज़ी सुनने में मन लगाया॰॰॰ जय हो!
उम्मीद तो काफ़ी है, यकीं कुछ कम…
लेकिन यह पता चला कि आलेख पर पुन: काम होगा– ‘न सही मुझसे, पर उस बुत में वफ़ा है तो सही’, तो प्रस्तुति पर भी होगा ही। सम्भावनाएँ अनन्त है। यह लेखक व ‘सूत्रधार’ की पहचान क़ायम करने वाला काम (सिग्नेचर वर्क) बन सकता है। दिशा सबकी सही है, लेकिन दशा तो वही है कि ज़मीन खुदी है, मिट्टी को उर्वरा बनाना है। कच्चे-पक्के बीज छिंटाये हैं, उन्हें अच्छे खाद-पानी से सींचना-बढ़ाना है। रोगों-कीटाणुओं से, शीत-घाम से, ओले-बरसात आदि से बचाने का सारा काम बाक़ी है॰॰॰ याने ‘बड़-बड़ मार कोहबरे बा’॰॰॰। लेकिन इन सबके बाद यह ऐसा अमृत-फल होगा कि खाने वाले युगों-युगों तक न अघाएँ। मुझे ‘उम्मीद तो काफ़ी है, यकीं कुछ कम है’॰॰॰ लेकिन अकूत तमन्ना व अशेष शुभेच्छा है कि कर्त्ता-प्रस्तोता लोग मेरे यक़ीं को तोड़कर उम्मीद को सच कर दिखाएँ॰॰॰ आमीन!