‘यह पेड़ों के कपड़े बदलने का समय है’
ओम निश्चल।
मुझे याद है 2013 में कभी बनारस में वे मिले थे। अपने अस्वस्थ पिताजी को देखने कोलकाता से आए थे। बनारस के पास ही किसी गांव में उनका घर है। इस आगमन के दौरान वे प्रीतिवश मेरे इसरार पर मुझसे मिलने आए थे और जहां तक मुझे याद आता है उनसे यूपी टूरिस्ट बैंग्लो के रेस्तरां में मुलाकात हुई थी। हमने साथ चाय पी थी। हालचाल लिया। तब वे कविता में अपनी पहचान बना चुके थे। कोलकाता के कुछ लोगों के मध्य जिनमें कविता के लिए जिजीविषा और जुनून है उनमें उन्हें पाता हूँ । विज्ञान के विद्यार्थी होकर भी रूचियों से वे साहित्य के सहचर है। यह संयोग ही है कि 1999 से 2003 के बीच कोलकाता रहने के दौरान उनसे भेंट न हो सकी। वे तब 34 की वय के आसपास रहे होंगे। बनारस की इस मुलाकात के बाद उनसे कोई बहुत संवाद न हुआ पर उनकी भेजी हुई काव्यकृति ‘यह पेड़ों के कपड़े बदलने का समय है’ मेरी स्मृति में कौंधती रही। यह संग्रह इसी शीर्षक कविता से शुरु होता है और बताता है कि जिस सलीके से पेड़ कपड़े बदलते हैं उसी सलीके से एक अच्छा कवि कविताएं लिखता है। मुझे यह कविता आज भी उतनी ही प्रिय है जितनी तब पुस्तक मिलने पर। उसने लिखा–
उदास नीम पर आ गए हैं
गुच्छों में फूल
उजाड़ पेड़ पर कूकती है
बेफिक्र एक कोयल
यह पेड़ों के कपड़े बदलने का समय है
एक बीतता हुआ सम्वत्
अब जल उठेगा, धरती के कैलेंडर पर।
मुझे लगा प्राय: लोग शहर जाकर शहरी हो जाते हैं। शायद कवियों में भी यह परिवर्तन कुछ हद तक प्रभावी हो उठता हो। पर मैंने पाया कि वनस्पतिविज्ञानी यह कवि तो कुदरत की छाया में ही बड़ा हुआ है। वह लिखता है-
भीग कर ही खिलती है पृथ्वी
खिलते हैं बीज धरती में भींग कर
ओ मेरी प्रार्थनाओं तुम भींगना और खिली रहना
घर की दीवारों पर जैसे खिलते हैं रंग
तुम बनना
घर के सबसे प्रकट कोने में एक मजबूत खूंटी
क्लांत शरीर पर पसीने से नहाई कमीज़ के लिए (ओ मेरी प्रार्थनाओं)
उसे कविता में जिस सुर्खी की तलाश है वह पता नहीं अब तक मिल सकी कि नहीं पर उसकी प्रयत्नशीलता तब भी उसके लिए ख्वाहिशमंद दिखती रही-
आखिर कब टूटेगा कविता का तिलिस्म
आखिर कब लिखी जाएगी वह कविता
जिसके शब्द बोलते होंगे
कि जैसे पान खाये होठों से
बोलती है सुर्खी
इस कवि से मुलाकात हुए कोई सात बरस बीत चुके हैं। इस संग्रह के बाद उनका दूसरा संग्रह भी आया, वह भी पास है। पर कभी उन्हें इस बात की शिकायत नहीं रही कि मैं कुछ लिख क्यों नही सका। कोई फोन इस बाबत नहीं। मुझे लगा कि कविताएं खुद बोलें तब लिखो, वे हाथ पकड़ की खींचें वे वशीभूत करें और आज ऐसा ही हुआ। संग्रह के मुड़े पन्नों वाली कविताएं देख गया तो उस पहलौठी के प्रभाव की याद हो आई। बहुधा आज की कविता बहुत बोलती है। सब कुछ जो लिखा जा रहा होता है वह कविता नहीं होता। वह खींचता नहीं। उसमें कवि का आत्म नहीं झॉंकता, उसकी वेदना नहीं झॉंकती। पर यह कवि पुरुषार्थ का धनी है। वह भाषा के एकांत में गर्म शब्दों के साथ सत्य के साथ मेंरे प्रयोग दुहराना चाहता है। वह वायवीय होती कविता को संसारी बाना पहनाने वाला कवि है तभी तो वह कहता है : ” मुझे वह कविता दो जो चोट लगते ही बोले बूंद बूंद खून की भाषा मेरी त्वचा की तरह। जिसे चूम लूँ तो फिर जीने की ख्वाहिश न रहे बाकी । मुझे तो रक्त मांस वाली कविता देा प्रभु! ”
वह अपनी कविताओं में कविता लिखने का प्रयोजन ढूढता है। किसी कवि की कविता की अपनी परिभाषा किसी काव्यशास्त्र की बताई परिभाषा में नहीं अटती। वह खुद कविता को विजुअलाइज करता है और वह बिंदु निर्धारित करता है कि जहां से वह जीवन को नई दृष्टि से देखता है। पिता पर लिखते हुए वह किसी रोमेंटिक सी कल्पना से बचता हुआ कहता है : ‘भूख के दिनों में खाली कनस्तर के भीतर / थोड़े से बचे, चावल की महक का नाम पिता है।’ मै़ं संग्रह की कविताओं से गुजरता हुआ एक कविता पर ठिठकता हूँ -एक कोरस बज रहा है। इस में एक कविता का यह कथन कि कविता की यह अयोध्या जहां मुकुटों का मोल पादुकाओं से हमेशा रहा कमतर- कवि के अडिग कवित विवेक का परिचायक है। उसकी काव्यावधारणाओं से गुजरते हुए लगता है यह कवि सबसे पहले कविता के बारे में फैले गर्दोगुबार साफ कर देना चाहता है। वह इस बहाने जताना चाहता है कि वह कैसा कवि है। वैसा नहीं जैसे आह वाह से गूँजती कविता की राजधानी के कवि या मखमली आभा के शब्द बिखेरने वाले कवि जैसा भी नहीं है जिनका काम मखमली कालीनों पर शब्दों की दलाली करने वालों की आवाजाही है या किसी की पीठ पर चढ़ कर आकाश छूने की हिकमत में लगे कवि। वह कोलकाता से बनारस के अन्तस्सूत्र जोड़ता हुआ बहुत भरोसे से कहता है :
मैं काशी के घाटों पर
वृंदावन की उदासी हूँ
आंखों में आंखें डाले, कविता में
शब्दों का साहस हूँ, और
अंतत: यह मेरे प्रिय की
कलकत्ता की रगों में दौड़ता
बनारस हूँ । (इस सफ़र में)
कविता हालांकि विज्ञान नहीं है जिसके अर्थ या प्रक्रियाएं रूढ़ होती हैं पर वह कविता में अपनी वानस्पतिक प्रज्ञा को नेपथ्य में नहीं रहने देता जैसे अपनी कविताओं में इंजीनियरिंग के धात्विक बिम्बों और प्रतीकों का निवेश करने वाले नरेश सक्सेना। पार्थेनियम घास के बारे में लिखी कविता जैसे कांतासम्मित का एक विरल उदाहरण हो। कोलकता के कवियों के मध्य इस कवि के पास आत्मगौरव से लैस भाषा है। उसका संग्रह ‘हाथ सुंदर लगते हैं’ भी पढ़ चुका हूँ और ‘गद्य वद्य कुछ’ की कुछ पाठकीय प्रशंसाएं भी। सार्वजनिक माध्यमों पर उसके कुछ लेख भी देखे पढ़े हैं जो उसके कवि-साहस की ताईद करते हैं और कभी कभी लगता है यह कवि जरा हत्थे से उखड़ा हुआ भी है। पर जिस तरह के हालात कविता में हैं और कवियों के आत्मसंघर्ष का दौर आज भी जारी है, इस कवि ने कविता में चमक के लिए या पालिशिंग के लिए कोई शार्टकट नहीं अपनाया और अब युवा से अधेड़ होते हुए भी खुद की अर्जित संपदा पर आश्वस्त दिखता है। हमारे होठों पे मॉंगी हुई हँसी तो नहीं। अरसे से इस कवि से कोई भौतिक संवाद नहीं—पर यह क्या कम है कि आज भी उसकी कविताएं अवचेतन में विद्यमान हैं वैसे ही जैसे उसके इसी संग्रह की आखिरी कविता ‘पतंग’ में उड़ती हुई चिड़िया कवि के स्वाभिमान और स्वाधीनता की गवाही देती हुई :
एक चिड़िया
उ़ड़ रही है आसमान में
एक पतंग
बिन डोर की
धड़क रही है
आसमान की छाती में।
कोलकाता साहित्य और पत्रकारिता का केंद्रबिन्दु रहा है। पर संयोग से हिंदी कविता के नक्शे में नहीं है। इसकी क्या वजह है, यह नीलकमल प्राय: उदघाटित करते रहे हैं। 28 अप्रैल 2020 की ही उनकी एक टीप है : ”साहित्य का अपना एक बॉक्स ऑफिस होता है । अच्छे कलेक्शन के लिये यहाँ जोड़ तोड़ होते हैं । साहित्य का अपना एक अंडर वर्ल्ड भी होता है । उनके अपने प्रोफेशनल ऐड्वेंचर्स होते हैं ।” मैं उम्मीद करता हूँ इस मुहिमबद्धता के बावजूद नीलकमल आगामी समय के अग्रगामी कवि होंगे और एकरस होती जाती कविता में अपना रंग भरेंगे।
(लेखक सुपरिचित साहित्यकार एवं आलोचक हैं)