सिद्धारमैया हटने और शिवकुमार दावेदारी छोड़ने को तैयार नहीं।

प्रदीप सिंह।
बिहार में चुनाव नतीजों का सबको इंतजार है। 14 नवंबर को नतीजे आएंगे। बिहार के नतीजे मेरे हिसाब से तो बिल्कुल स्पष्ट हैं। केवल चुनाव आयोग की घोषणा की देर है। लेकिन आज मैं बिहार चुनाव के बाद जो कुछ होने जा रहा है, उनमें से एक मुद्दे को उठा रहा हूं। बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद कर्नाटक में नवंबर क्रांति हो सकती है।

कर्नाटक कांग्रेस शासित राज्य है। सिद्धारमैया वहां पर मुख्यमंत्री और डी के शिव कुमार डिप्टी सीएम हैं। शिवकुमार मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं। कांग्रेस सूत्रों के मुताबिक 2023 में जब से सरकार बनी है तब तय हुआ था कि ढाई-ढाई साल दोनों मुख्यमंत्री रहेंगे। डीके शिवकुमार का कहना था कि उनके लोगों ने उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में उनको प्रोजेक्ट किया था। इस वजह से वोक्कालिगा वोट देवगौड़ा परिवार से छिटक कर कांग्रेस के साथ आ गया और कांग्रेस को सरकार बनाने में मदद मिली। अभी तक कांग्रेस हाईकमान की ओर से इस बात का खंडन नहीं किया गया है कि ढाई-ढाई साल का कोई फार्मूला तय हुआ था या नहीं। तो इसका मतलब ढाई साल का फार्मूला तय हुआ था। अब वह ढाई साल नवंबर में पूरे हो रहे हैं। कांग्रेस जब कर्नाटक चुनाव में उतरी थी तो पांच गारंटी का वादा किया था। अब कर्नाटक की माली हालत इतनी खराब हो गई है कि वे पांच गारंटियां पूरी करने की स्थिति में नहीं हैं। सरकार ने फैसला किया कि जो विकास के काम हैं, उनके मद में कटौती की जाएगी। उससे विधायक नाराज हैं। विधायक कह रहे हैं कि हमारे इलाके में काम ही नहीं हो रहा है। हाल ही में डिप्टी सीएम डी के शिव कुमार ने विधायकों से कहा कि हमें चुनाव में की गई पांच गारंटियों का वादा पूरा करना है। उसके लिए पैसा चाहिए। इसलिए आपके क्षेत्र में विकास के काम के लिए पैसा नहीं मिल सकता। आज कर्नाटक की हालत यह हो गई है कि वह न तो गारंटी पूरी कर पा रही है जो न ही विकास का काम हो रहा है। फार्मास्यूटिकल इंडस्ट्री की एक प्लेयर किरण मजूमदार शॉ ने हाल में बेंगलुरु के इंफ्रास्ट्रक्चर पर बयान दिया तो उनको भाजपाई बताकर उनके खिलाफ पूरी कांग्रेस पार्टी खड़ी हो गई। नारायण मूर्ति और उनकी पत्नी ने कास्ट सेंसस में भाग लेने से मना कियाा तो उनको भी  भाजपाई बताकर उन पर हमला शुरू हो गया। कांग्रेस कर्नाटक में बाहर भी लड़ रही है, अंदर भी लड़ रही है।

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डीके शिवकुमार हाल ही में दिल्ली आए थे। क्या बात हुई किसी को मालूम नहीं। लेकिन उससे पहले के घटनाक्रम पर नजर डालें तो समझ आएगा कि क्या होने की संभावना या आशंका नजर आ रही है। मुख्यमंत्री के बेटे यती सिद्धारमैया का एक बयान कुछ दिन पहले आया है। जिसमें उन्होंने कहा कि 2028 का चुनाव मेरे पिता नहीं लड़ेंगे। यह उनका आखिरी चुनाव था। मतलब 2028 में मुख्यमंत्री पद की रेस में वह नहीं होंगे। सिद्धारमैया देवराज अर्स की राजनीतिक विचारधारा पर चलते हैं। देवराज अर्स अहिंदा की राजनीति करते थे। अहिंदा मतलब एक गठबंधन जिसको कन्नड़ में अहिंदा कहते हैं। इसमें मुसलमान, दलित, जनजातीय लोग और पिछड़ा वर्ग शामिल है। इन जाति समूहों को मिलाकर अहिंदा बनता है। मुख्यमंत्री सिद्धारमैया की ताकत यही है। वह पहले जनता दल में थे। जब उन्होंने देखा कि वहां रहकर मुख्यमंत्री पद नहीं मिल सकता तो कांग्रेस में आ गए। कांग्रेस में मुख्यमंत्री बन भी गए। अब इस बार दूसरी बार मुख्यमंत्री बने हैं। लेकिन उनकी उम्र, स्वास्थ्य और जो राजनीतिक परिस्थिति है, उसमें उनको लगता है कि अब मैदान से हट जाना चाहिए। लेकिन वे ढाई साल के फार्मूले को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। डी के शिवकुमार सार्वजनिक रूप से कुछ नहीं बोल रहे हैं। वे कह रहे हैं कि जो हाईकमान तय करेगा, वही होगा लेकिन उनके लोग खुलेआम बोल रहे हैं कि अब डीके शिवकुमार के मुख्यमंत्री बनने का समय आ गया है। डीके शिवकुमार के लिए मुख्यमंत्री बनने का यह आखिरी मौका है। अगर वे इस बार मुख्यमंत्री नहीं बनते हैं तो वोक्कालिगा वोट उनसे छिटक जाएगा। दूसरी बात यह है कि 2028 के चुनाव में साफ दिखाई दे रहा है कि कांग्रेस के लौटने की कोई उम्मीद नहीं है। सिद्धारमैया के बेटे ने अपने बयान में पिता के बारे में तो बोला ही साथ ही कर्नाटक में कांग्रेस का भविष्य भी तय कर दिया। उन्होंने कहा कि उनके पिता के बाद सतीश जरकी होली अहिंदा की राजनीति को आगे बढ़ाएंगे। होली मेरे पिता की जगह नेतृत्व संभालने में सक्षम हैं। इस विवाद शुरू हुआ तो सिद्धारमैया ने स्पष्टीकरण दिया कि उनके बेटे का यह मतलब नहीं था कि सतीश जरकी होली को भविष्य में मुख्यमंत्री बनाया जाना चाहिए। सवाल यह है कि मुख्यमंत्री के बेटे को कांग्रेस पार्टी के भविष्य के नेतृत्व का निर्धारण करने या उसके बारे में फैसला करने का अधिकार कहां से मिल गया? तो कर्नाटक कांग्रेस में फ्री फॉर ऑल है। राज्य में कांग्रेस की हालत यह हो गई है कि पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे भी कहते हैं कि कर्नाटक के बारे में फैसला हाईकमान करेगा। यानी वे मानकर चलते हैं कि कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष हाईकमान की श्रेणी में नहीं आता। वैसे सबको मालूम है कि कांग्रेस हाईकमान का मतलब सिर्फ तीन लोग हैं, सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा। इस हाईकमान को पिछले कुछ सालों में अगर किसी ने चुनौती दी है तो वे हैं तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी। जिन्होंने एक इंटरव्यू में कहा कि मैं किसी हाईकमान को नहीं मानता। इसके बाद भी रेवंत रेड्डी अपने पद पर बने हुए हैं। इससे पता चलता है कि कांग्रेस में हाईकमान नाम की जो चिड़िया थी उसके पंख कतरे जा चुके हैं। कर्नाटक के गृह मंत्री जी परमेश्वर मुख्यमंत्री बदलने की बात पर कहते हैं कि बिहार विधानसभा का चुनाव खत्म होने के बाद मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री दोनों दिल्ली जाएंगे और वहां से फैसला होगा कि मुख्यमंत्री के पद में बदलाव होगा कि नहीं होगा। अब कर्नाटक कांग्रेस में कहा जा रहा है कि नवंबर क्रांति होने वाली है।

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डीके शिवकुमार को पता है कि यह उनके लिए आखिरी मौका है। वे जिस समुदाय वोक्कालिगा से आते हैं, उसकी संख्या बहुत ज्यादा नहीं है। इसके विपरीत दूसरे समुदाय लिंगायतों की संख्या ज्यादा है। उनके मठ भी ज्यादा हैं। वोक्कालिगा समुदाय के वोटों का दावेदार देवगौड़ा का भी परिवार है। हालांकि उनकी ताकत लगातार घटती जा रही है। अब वे भारतीय जनता पार्टी पर निर्भर हो गए हैं। इस तरह 2028 का चुनाव सीधा-सीधा भाजपा और कांग्रेस के बीच होगा। अगर चुनावी इतिहास उठाकर देखें तो पता चलेगा कि जब सीधी लड़ाई भाजपा और कांग्रेस में होती है तो भाजपा का स्ट्राइक रेट 90% से ऊपर होता है। राज्य में कांग्रेस की सरकार जिस तरह से लड़खड़ाती हुई चल रही है। सरकार विकास के काम कर नहीं पा रही है या करना नहीं चाहती है। तथाकथित हाईकमान मूकदर्शक बना हुआ है तो इससे उनकी ताकत का अंदाजा लगा लीजिए। हाईकमान का ढाई-ढाई साल मुख्यमंत्री का जो फार्मूला है, उसमें भी पेच है। राहुल गांधी चाहते हैं कि सिद्धारमैया पूरे 5 साल मुख्यमंत्री रहें। प्रियंका वाड्रा चाहती हैं कि डी के शिवकुमार ढाई साल के बाद मुख्यमंत्री बनें। सोनिया गांधी दोनों में संतुलन स्थापित करने की कोशिश कर रही हैं। कोशिश है कि किसी तरह से इस संकट को टाला जा सके लेकिन इसके टलने की कोई उम्मीद नहीं नजर आती है। ढाई साल नवंबर में पूरे हो रहे हैं। बिहार का चुनाव का नतीजा 14 नवंबर को आ जाएगा। उसके बाद कर्नाटक कांग्रेस में जो संकट आने वाला है, उसको नाम दिया जा रहा है नवंबर क्रांति। इस बीच में एक और सज्जन बहुत ज्यादा सक्रिय हैं। वे हैं कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के बेटे प्रियांक खरगे। कांग्रेस में जो हिंदू विरोधी नेता हैं, वे उसके नए पोस्टर बॉय के रूप में उभर कर आए हैं। हिंदुत्व और सनातन धर्म को जितनी गाली दी जा सकती है, वह दे रहे हैं। उनका बस चले तो हिंदुत्व को इस देश से खत्म कर दें। अब यह भी चर्चा हो रही है कि प्रियांक खरगे भी मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं। यह दरअसल एक टीस है। उनके पिता मल्लिकार्जुन खरगे राज्य में तीन बार मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार थे और तीनों बार उनका नंबर कट गया। पहली बार एसएम कृष्णा मुख्यमंत्री बन गए, दूसरी बार धर्म सिंह और उसके बाद सिद्धारमैया। अब उनको, उनके परिवार और समर्थकों को लगता है कि प्रियांक खरगे मुख्यमंत्री बनने के लिए तैयार हैं। अब गांधी परिवार के तीनों सदस्यों को किसी न किसी के पक्ष में फैसला करना होगा क्योंकि यह यथास्थिति तो नहीं चलने वाली। जिसके भी पक्ष में खड़े होंगे तो दूसरा पक्ष बगावत नहीं करेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। डीके शिवकुमार पार्टी के एक तरह से फंड मैनेजर हैं तो इसलिए उनका महत्व ज्यादा है। गांधी परिवार की नजर में भी उनका महत्व है। लेकिन जनाधार सिद्धारमैया के साथ है। लेकिन सिद्धारमैया का यह आखिरी कार्यकाल है। उसके बाद वह चुनाव लड़ेंगे, इसमें भी शंका है। तो सिद्धारमैया भविष्य के नेता नहीं हैं। डी के शिवकुमार भी कर्नाटक कांग्रेस का भविष्य नहीं हैं। तो अब समय आ गया है कि कर्नाटक के लिए कांग्रेस पार्टी अपने नए नेता का चुनाव करें। मान लीजिए राज्य में रोटेशन की पॉलिसी मान भी ली जाए तो भी डीके शिवकुमार 2028 में मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट नहीं किए जाएंगे। यह बात डी के शिव कुमार को भी मालूम है। इसीलिए उनको लगता है कि यह आखिरी मौका है। वे जमीन से जुड़े नेता हैं इसलिए उनको यह भी पता है कि 2028 में कांग्रेस नहीं लौट रही है और उसके बाद 2033 में जब विधानसभा चुनाव होगा तब तक डीके शिवकुमार रिटायर हो चुके होंगे।

कांग्रेस के सामने सिद्धारमैया और डी के शिव कुमार का झगड़ा सुलझाना ही एक मुद्दा नहीं है। भविष्य का नेता तय करने के बारे में भी फैसला इसी नवंबर महीने में होना है। अब कर्नाटक में लोग मजाक कर रहे हैं कि सरकार पांच गारंटियां तो दे नहीं सकी लेकिन स्थाई सरकार की भी गारंटी नहीं दे पा रही है। ये सरकार रहेगी कि नहीं इसकी भी गारंटी नहीं है। चर्चा इस बात की भी है कि अगर नवंबर क्रांति होती है तो यह सरकार गिर जाए या अल्पमत में आ जाए और नए चुनाव हों।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अखबार’ के संपादक हैं)