सत्यदेव त्रिपाठी ।

चीकू का और हमारा सौभाग्य था कि उन दिनों बीजो घर में थाजो हमारी जिंदगी का सबसे शरीफ-सज्जन पालतू रहा। उसे अच्छा प्रशिक्षण मिला था। और उसके साथ रहते हुए, जैसा कि देख-सुन कर सीखने की सहज वृत्ति प्राणि-मात्र की होती है, चीकू सबकुछ  सीख गई, बिना कुछ बताए-सिखाए। बीजो को कभी पट्टे में घुमाने ले गए हों, ऐसा याद नहीं, ले भी गए होंगेतो रस्मी तौर पर। लेकिन तब हम चीकू को पट्टे में ले जाते। छुट्टा चलते बीजो को देखकर जल्दी ही उसका भी पट्टा छूट गया।

सीखने की तेज क्षमता

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बिना पट्टे के घुमाने के लिए ले जाने के दौरान शुरुआत में अलबत्ता उसे दो नसीहतें देनी पड़ी थीं। एक तो यह कि लौट कर आने पर परिसर-द्वार में न घुसकर सड़क पर किसी और ओर न चल दे। बुलाने पर भी न आएबल्कि वापस लाने में कुछ दूर भगाए भी – वही स्वच्छंद पशु स्वभाव। इसके लिए एक दिन कस कर एक डंडा पीठ पर लगाना पड़ा। और उस दिन से आज का दिन है, कभी एक कदम भी यहां-वहां नहीं जाती, सीधे अंदर आती है। दूसरी नसीहत राह चलते गंदगी सूंघने-खाने के लिए देनी पड़ी, जो हर कुत्ते में आम है। इसके लिए भी वही डंडा लगा,जरा जोर से,उस दिन वहां से भागी चीकूतो घर आकर ही रुकी। बस, तब से चीकू त्रिपाठी सदा के लिए गंदगी की तरफ देखना भूल गई। कहना होगा कि सीखने और सीखे को अपना लेने की ऐसी तेज क्षमता अपने किसी और पालतू में मुझे नहीं मिली। संत बीजो भी तमामबातों में चोरी-चोरी कुछ बेइमानी-बदमाशी करने की कोशिश करता, खासकर खाने-पीने की, क्योंकि खासा पेटू था वह। लेकिन चीकू कतई नहीं। इसे मैं उसकी संवेदनशीलता भी कहूंगा कि अपमान या दंड उसे सह्य नहीं। इसी संवेदन व शराफत के नाते पत्नी कल्पनाजी उसे लाड़ से ‘चीकू बेन’ कहती हैं। महिलाओं के लिए बेन का संबोधन गुजराती संस्कृति में बहुत अपनत्व व आदरभाव के लिए है, शरीफाना प्रकृति का पर्याय है, जो गुजराती लोग अमूमन होते हैं।

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चीकू त्रिपाठी के सीखने और सीखे को अपनाने की वृत्ति की एक पूरक घटना भी उल्लेखनीय है, जिसमें उसकी तेज अंतर्दृष्टि (इंट्यूशन) भी शामिल है। बिना पट्टे के ले जाने के शुरुआती दिनों की ही बात है। जुहू तट पर जहां-जहां प्रवेश-स्थल बने हैं, खाने-पीने की दुकानें हैं। वहां कुत्तों का सहज निवास है। और कुत्तों की अपनीसीमा(टेरिटरी) होती है। मसलन, पालतू कुत्ते का अपने मकान के इर्द-गिर्द तक सीमाप्रांत होता है, तो गली के कुत्ते पूरी गली का जिम्मा लिए रहते हैं, जिसके लिए ‘अपनी गली में कुत्ता भी पहलवान’ कीकहावत है। उसके भीतर आने वाले अजनबियों पर वे भौंकते हैं, झपटते हैं। अपनी गली के अलावा वाले अपने सजातीयों (कुत्तों) पर भी – वे जहां भी एक दूसरे से मिल जाएं। इसीलिए तो कहावत है – ‘बाभन कुत्ता हाथी, ये न जाति के साथी’। तीनों अपनी जाति वालों से मिलते ही पहले भिड़ जाते हैं, फिर बाद में एक होते हैं। इसमें ब्राह्मणों के शास्त्रार्थ को  झगड़े के रूप में लिया गया है क्योंकि कभी-कभार शास्त्रार्थ करते-करते झगड़ा भी हो जाता था। खैर, इसी वृत्ति के तहत बिना पट्टे के तट पर प्रवेश करते ही चीकूजी उन्मुक्त उत्साह में ज्यों ही आगे बढ़ीं कि अपनी सीमा-रेखा में उन्हें देखकर भौं-भौं करते चार-पांच कुत्ते उनकी ओर दौड़ पड़े। और जब तक मैं रोकता तब तक चीकू आत्म-रक्षा में भाग ली। थी तो छोटीलेकिन भागी इतनीतेज कि वे उस तक पहुंचे उससेपहले ही समुद्र के पानी में हेल गई,जबकि यूं पानी से भागती है। नहाने से बचना चाहती है। नहलाते समय कांपती है। लेकिन उस दिन संकट में पड़कर सीधे घुस गई और वे तीनों-चारों किनारे खड़े भौंकते रहे। तब तक मैं दौड़ कर पहुंच गया। उसे अपने साथ लिए चला और उन सबको डंडा दिखायातो वे दूर हो चले। बस, चीकू ने ताड़ लियाऔर तब से आज तक जहां भी कुत्ते आते दिखते हैंचीकू बेन इधर-उधर कहीं भी हो, सीधे मेरे पास चली आती है।  ऐसे ही अवसरों के लिए कामदेव के धनुष की तरह दो फीट का एक सुघरपर मजबूत डंडा समुद्र-तट पर उसके साथ घूमते हुए हमेशा मेरे हाथ में रहता है।

रानी साहिबा

Chiku

 

अब तो चीकू के लिए पट्टे या डंडे की कोई जरूरत ही नहीं। कहीं भी ले जाना हो, कहीं जाने से रोकना हो,  नहलाना हो, बिना पट्टे के सब कुछ एक बार कहने भर से सुचारु रूप से ऐसे करा लेती है कि आदमी का बच्चा भी वैसा क्या कराएगा! हां, दवा लगाने के लिए अवश्य मुंह में जाबा लगाना होता हैताकि शांति से लगवा ले और चाट भी न पाए। वैसे इस सिधाई व अनुशासन का एक अपवाद भी है। मेरे न रहने पर वह अपनी मर्जी का हठ चलाती है। श्वान-वृत्ति है कि वे जहां सुख से सोते हैंउनके ठीक ऊपर प्राय: छांव जैसा होना उन्हें पसंद  है। इन्हें अक्सर खाटों के नीचे सोते हुए कभी भी देखा जा सकता है। और चीकू का स्थायी शयन पत्नी की बड़ीसी खाट के नीचे होता है। फिर जब कभी मन नहीं होगा तोलोग बुलाते रह जाएंगे – प्राकृतिक निपटान के लिए या खाने के लिए, वह नहीं आएगी। जोर-जबरदस्ती करने पर अंदर से ही गुर्राएगी। और लोग हारकर छोड़ देंगे। खाना उसके डिब्बे में वहीं पास में रख देंगे। फिर अपनी मर्जी से उठेगी, खा लेगी। और यदि बाहर जाने की हाजत हुईतो अपनी मचकती चाल में बड़े सलीके से सेवक (चंदन) के पास जाकर इसरार करके ले जाएगी। और इन सबके लिए घर में काम करने वाले तंज-विनोद में उसे ‘रानी साहिबा’ कहते हैं। ‘रानी साहिबा उठ गई हैं’ या ‘रानी साहिबा की सवारी आ रही  है सेवक तैयार हो जाएं’आदि। शुरू में ऐसा करते और खाट के नीचे बिल्कुल पीछे जाकर छिप जाने और बुलाने पर गुर्राने का मामला मेरे साथ भी हुआ था। लेकिन तब मैंने खाट ही दीवार से दूर खींच दी और कड़क होकर डांटातो निरुपाय होकर चुपचाप निकल आई – शायद उसे दो बार के डंडे भी याद आ गए हों। तब से मेरे बुलाने पर ऐसा नहीं करती है।मेरे घर में रहते कभी न उठने की जिद करती हैतो चंदन आकर कहता है – ‘अंकलजी, नहीं उठ रही है चीकू’। और मेरे जाते ही सिर झुकाए हुए निकल आती है। यानी ‘भय बिनु होइ न प्रीति’ के तहत डर-प्रेम के अनुशासन की पक्की परख है उसे। सुबह तो मुझसे पहले ही तैयार रहती है – कदाचित जुहू की मस्ती का आकर्षण भी हो।

बीजो के जाने के बाद जितने दिन (लगभग दो साल) काइया नहीं आई थीमैं अकेले चीकू को  लेकर जाता था। और वही मेरे भ्रमण के सबसे शांत दिन रहे। चीकू अपने होने का अहसास तो करातीलेकिन कोई अतिरिक्त निगरानी की दरकार कतई न पड़ती। ईयर फोन लगाए मोबाइल पर कोई व्याख्यान-विमर्श-गायनवगैरह सुनते हुए मैं अपनी मर्जी से चलता रहता और वह पीछे-पीछे बराबर चलती कदम-दर-कदम। चीकू के चलने के इस दृश्य के लिए एक बिम्ब सुनाऊं – ‘मोहिं मग चलत न होइहैं हारी, छिन-छिन चरन सरोज निहारी। यानी मेरे कदमों की राह पकड़े पानी में चलूंतो पानी में चले और बालू में चलूं तो बालू में या फिर फुटपाथ पर। जहां बैठूं, बैठ जाए। बीच-बीच में किसी कुत्ते को दौड़ा भी आएलेकिन झुंड में कुत्ते आते दिखेंतो झट से मेरी बगल में आ जाए – गजब की परख और कौशल। सड़क पार करनी होतो मेरा अनुसरण करते हुए यातायात खुद भी देखती रहती। मानुषबच्चा भी इतना सधा मुश्किल से होता है।

मनमोहक सुंदरता

‘चीकू’ के पंजीकृत नाम ‘चीकू त्रिपाठी’ के साथ बातचीत में ‘चीकू बेन’ व ‘रानी साहिबा’ के जिक्र तो हुए, मै कभी-कभी लाड़ में कह देता हूं – ‘मिस चीकू त्रिपाठी’। लेकिन इस प्रिय प्राणी के नामों को लेकर तो बाबा के शब्दों में वही कहना होगा – ‘इन्ह के नाम अनेक अनूपा’। अपनी शब्दावली में कल्पनाजी इसे ‘ब्यूटी-क्वीन’ कहती हैंतो उषा, निर्मला, सावित्री, महादेवीआदि काम करने वालियां ‘श्रीदेवी’ कहती हैं। फिर ऐसी ‘सुंदरता कहं सुंदर करहीं’ को बताना तो बनता है। मिस चीकू त्रिपाठी की कद-काठी एकदम सानुपातिक (प्रपोर्शनेट) है। पूरा रंग भूरा-लोहापर गाढ़ा नहीं। अगले दोनों पैरों के बीच में दो छोटी-छोटी पतली लकीरों की सफेदी के अलावा कहीं किसी दूसरे रंग का एक छींटा भी नहीं। पखुरे से गरदन की उठान इतनी सधी है कि गोया उसके गठन की सचमुच वही ‘नेक’ हो। गरदन से उभरा माथा चिकना-सुता हुआ। उससे दोनों तरफ लटके कान विरल रूप से थोड़े तिरछे होकर ध्यान खींचते हैं और माथे से उतरता हुआ मुंह थोड़ा लंबोतरा व पतला होकर खूबसूरती में चार चांद लगा देता है। आंखें सामान्य हैपर इतनी मुखर कि उसकी भाषा-विहीनता की मानो पूरक हों। इच्छा, याचना, मनुहार, उलाहना, रंज, गम, उछाह, अस्वीकारसब कुछ अनायास ही उसकी आंखों में बिल्कुल छप जाता है और भावानुसार गरदन के लोच से व्यक्त होकर ऐसा मुतासिर कर देता है कि आप उसके किसी भी भाव की अवहेलना नहीं कर सकते – मानना ही पड़ जाता है।

अब वह आधी उम्र पार कर चुकी हैलेकिन उसकी बालसुलभता जरा भी गई नहीं है। कहीं से आने पर स्वागत के लिए या कुछ पाने के इसरार के लिए या यूं ही प्यार व्यक्त करने लिए नितांत उतावलेपन के साथ अपना अगला एक पांव जिस तरह आपके हाथों या जांघों पर रख कर टहोकती है तो मुझे बेटे का बचपन याद आ जाता है।गोद में बैठकर उंगलियों से गाल या चिबुक को टहोकते-सहलाते हुए कुछ इसरार करताया अपने कुछ किए को सदर्थवाता (जस्टीफाई कराता)। कभी-कभी तो अति आवेग में अगले दोनों पांव ही मुझपर रख देती है। पांव यूं तो हर श्वान जैसे सामान्य हैंलेकिन चलते हुए उनकी नाजुकी ऐसे ख्याल में आती है कि ये चलने के लिए नहीं, प्रदर्शनी में रखने के लिए बने हों जिन्हें सिर्फ देखा-दिखाया जाए।

चीकू त्रिपाठी… छोटा कदम मचक चाल -1

छुईमुई सा बदन

मिस चीकू त्रिपाठी के शरीर में घने रोम हैं – बाल नहीं। इसलिए उसे नहलाना बड़ा आसान होता है। झबरे बालों वाले बीजो-काइया को नहलाते हुए की तरह हम थकते नहीं। उन दोनों को तो थक जाने के डर से स्टूल पर बैठ कर नहलाते हैं। और चीकू की त्वचा इतनी संवेदनशील है कि जोर से छू या दबा दोतो रोम सिकुड़ जाते हैं – जैसे मसल-कुचल दिए गए हों। फिर धीरे-धीरे उनका सीधा होना छुईमुई के पत्तों के लजाने के बाद उनके धीरे-धीरे फैलने की याद दिलाता है। इसके लिए मेरे मन में उसका एक नाम ‘लाजवंती’ भी है। और इसी प्रकृति के लिए यह कल्पनाजी की ‘डेलीकेट डार्लिंग’ और मुझ हिंदी वाले की ‘कोमलांगी’ भी है। ऐसी देहयष्टि को श्वान-योनि के चलते ‘पलंग-पीठि तजि गोंद हिंडोरा’ तो मुहैया नहीं करा सकते, लेकिन तीन कमरों में उसके लिए तीन गादियांजरूर रखी हैं कि जब जहां चाहे, ‘अवनि कठोरा’ पर सोना न पड़े। एक दिन वह धूप में खड़ी थी। मैंने देखा और एक गादी उठा कर वहां रख आयातो तुरत आराम से बैठ गई। यह कोमलता उसकी देह में ही नहीं, मन में भी है। काफी संवेदनशील है।तभी एक बार कड़क होकर जो कह दो, सीख-पकड़ लेती है। लेकिन स्वभाव में ऐसी सोझवा भी है कि बड़ी गलती करती ही नहींजिससे अधिक डांटपड़े और उसकी संवेदनशीलता आहत  हो। देह व मन की प्रकृति के इस साहचर्य की दाद देनी पड़ती है।

वह गादी पर बैठी हो या जमीन पर या समुद्र-तट पर बालू में,कहीं भी लेटी हो या तकिए पर सिर रखे करवट या सीधे सोई हो, मुझेआकर्षित करती है। ‘मुझे है अद्भुत एक रहस्य, तुम्हारी हर मुद्रा हर वेश’ यानी उसकी हर क्रिया अदा बन जाती है। फिर उसकी खास अदाएं भी हैं। घर में लेट कर पलटी खाती है और फिर पीठ के बल होकर चारो पांव ऊपर करबड़ी अदा में झटकारती है। यह अदा मैंने किसी श्वान-प्राणी में नहीं देखी। यह क्रम दो-चार मिनट चलता है और उसकी खुशी भरी मस्ती का परमान है, लेकिन इन सबके लिए वह ‘नौटंकीबाज’ (नाम नहीं, विशेषण) भी कही जाती है। कभी कमरे में या बाहर बैठे-बैठे शून्य में देखते हुए कहीं खो जाती है। आप उसकी तरफ देखते रहिएया कोई न देखे और वहीं लोग अपनी सारी बातें करते रहें, वह सब कुछ से परे चली जाती है,जैसे वहां होकर भी वहां हो ही न। इसके लिए कल्पनाजी उसे ‘अपनी फिलॉस्फर’ की संज्ञा से अभिहित करती हैं। और कभी चहलकदमी करते हुए घर में या चलते-चलते मैदान-सड़क पर भी लेटकर पीठ व गरदन रगड़ने लगती है। कभी बालू पर कुलांचे मारते-मारते लेट जाती है और मुंह बालू में गड़ा देती है। फिर मुंह से बालू खुलिहारने लगती है। ऐसा करने में सारा मुंह-नाक-आंख बालू से भर लेती हैजिसे साफ करना बिद्दत का काम हो जाता है। लेकिन वहीं रोककर करने लगता हूंतो खड़ी होकर प्रेम से किसी भोले-भाले बच्चे की तरह कराती भी है। और ऐसा सब करके वह मस्ती के भाव में इतनी इतराई हुई रहती है कि गोया जग जीत लिया हो। (जारी….)