सत्यदेव त्रिपाठी।
चीकू की कोमलता का परिणाम है कि उसके खाने-पीने में जरा भी गड़बड़ी हुई नहीं कि शरीर में दाग आने लगते हैं।यह है तो एक तरह का चर्मरोगलेकिन हमारी उषा उसे उसकी उक्त अदामयता से लग गई नजर का नतीजा मानती है। लेकिन ये दाग उसके जीवन में परहेज के नाम पर कई तरह की बंदिशों के कारक बन गए हैं। ग्लूकोज बिस्किट उसे पसंद था।दिन भर में एक छोटा पैकेट तो खा ही जाती थी। सभी से बारी-बारी से बिस्किट मांग लेने के उसके तरीके बड़े लुभावने व विविध किस्म के होते हैं – दे ही देना पड़ता है। उसकी इस कला को हम ठगी कहते हैंजिसके लिए बोलचाल में उसका एक नाम ‘ठग’ भी है।
मीठा बना मुसीबत
फिर डॉक्टर से पता चला कि देह के दाग का एक कारण मीठा बिस्किट भी है। तब से उसे बंद करके ‘मारी’ बिस्किट दिया जाता है – न खट्टा, न मीठा। और अब वही ठगी ‘मारी’ के लिए करती हैजिसका उपयोग मेरे न होने पर लोग उससे कुछ करा लेने के प्रलोभन के रूप में भी कर लेते हैं। असल में चीकू के हर काम की छवि सहज रूप से बीजो के समानांतर बनती गई। जैसे बीजो बेहद शांत था, तो थोड़ी भी गतिविधि से चीकू को चंचल मान लिया गया। इसी तरह खाना मिलते ही बीजो टूट पड़ता और सब एक साथ बैठे खा जाता। लेकिन चीकू की रुचि ऐसी नहीं, वह खाने में छिबिन (अरुचि रखने व चुन के खाने वाली) है। उसकी खुराक सीमित है। धीरे-धीरे खा पाती है। लेकिन इन सबको नजरअंदाज करके बीजो के सामने इसे अनखाती मान लिया गया। दोनों को रोटी-दूध देते थे। पेडिग्री के दाने अलग से खिलाते, जो था तो ताकत-सेहत के लिएलेकिन दोनों की पसंद भी था – शायद सुस्वादु की वजह से। तब चीकू दूध पीकर रोटी छोड़ देती थी। और उस पर से जरा भी नजर हट जाए, तो चीकू का बचा हुआ भी सब खा जाता पेटू बीजो, भले बाद में उल्टियां करे। फिर हम चीकू के दूध-रोटी में ही पेडिग्री के दाने डालने लगेताकि उसकी प्रियता से रोटी भी खा जाए। इसके बावजूद चीकू ‘नीर-क्षीर विवेक’ की तरह पेडिग्री-दूध खा-पीकर रोटी छोड़ देती।
इन सब स्थितियों के बीच कुल मिलाकर हमारे साथ चीकू की अच्छी चल रही थी। न कोई बड़ी हलचल थी, न बिना पालतू वाले घर का सूनापन था लेकिन बेटे को जर्मन शेफर्ड चाहिए था।जुलाई, 2020 में काइया आई। और तब से पालतुओं को संभालने के सारे फार्मूले बदल गए हैं। अब विशेषज्ञ डॉक्टरों के अनुसार दूध-रोटी भी रोग का कारण बन कर उभरा है। कहा गया कि अंतिम दिनों में बीजो की जो देह-सांसत हुईउसका कारण भी रोटी-दूध ही रहा। लिहाजा अब डॉक्टर की सलाह से काइया-चीकू के लिए उनकी प्रकृति के अनुसार अलग-अलग खानाआताहै। चिकन-मटन की बनी छोटी स्टिक, बिस्किट व हड्डी आदि। इनके सिवा कुछ नहीं। अपवाद है चीकू का ‘मारी’। और ठाकुरजी के चरणामृत का दूध दोनों को मिलता है – प्रसाद मात्र ही, जिसके लिए दोनों लालायित रहती हैं। फिर भी चीकू की त्वचा इतनी नरम व संवेदनशील है कि साल भर में दो-तीन पत्ते सेफालेक्सिन खिलाना ही पड़ता है। इसके लिए ग्लूकोज बिस्किट की शरण में जाना होता है, जिसे मीजकर बीच में कैप्सूल का पाउडर रख कर थोड़ा गीला कर देते हैंतो खा जाती है। इस तरह खाने में चीकू के नखरे ज्यादा नहीं, तो कम भी नहीं हैं।
चीकू त्रिपाठी…2 : सीखने की ऐसी क्षमता अपनी किसी पालतू में नहीं देखी
काइया ने छीना एकाधिकार
लेकिन काइया के आ जाने से चीकू का वर्तमान बड़ी पसोपेश में पड़ गया है। यूंउसकी मूल स्थिति तो वही हैलेकिन गति में बड़े परिवर्तन आए हैं। उसका समूचा अस्तित्त्व व व्यक्तित्त्व ही हिल गया है। काइया के आने पर उसके एक महीने के एकांतवास के दौरान तो चीकू बेहद उतावली में रही कि ये कौन है, कैसी है। लेकिन जब वह बाहर आईतो चीकू को बरज के दूर रखना पड़ता। काइया हमारी गोद में रहती या हमारे बैठने के सोफों-खाटों पर हमारे साथ, जहां जाने के लिए चीकू-बीजो के लिए बंदिश थी। अत: सबसे पहले तो इसी से कुछ हीन भाव चीकू के अंदर आना शुरू हुआजिसे दूर करने के लिए उसे भी सोफे पर बिठाने की कोशिश की गई।लेकिन 6-7 सालों की बनी आदत ऐसी दृढ़ कि वह बैठने के लिए तैयार नहीं हुई, तो हमने ज्यादा दबाव भी नहीं डाला। फिर जरा बड़ी होते ही काइया का बेहद चंचलबल्कि तूफानी स्वभाव उजागर होने लगा। तब दोनों आमने-सामने पड़ने लगे और पड़ते ही लड़ने के लिए तैनात – वही ‘जाति देखि गुर्राऊ’ वाला श्वान-स्वभाव! अभी तक काइया गहन बचाव के डॉक्टरी निर्देश में थी, सो दोनों को पकड़ना पड़ता। एकाध बार झटके में चीकू ने उसे गिरा भी दिया। फिर कई बार चीकू को लेकर मैं और काइया को लेकर बेटा आमने-सामने बैठते और कल्पनाजी चीकू को समझातीं – चीकू, यह काइया है, तुम्हारी छोटी बहन। इसको मारो मत, साथ रहो। फिर काइया को भी रस्मन बतातीं – यह चीकू है, तुम्हारी बड़ी बहन। खेलो इसके साथ, वगैरह, वगैरह..। लेकिन कहने-समझाने से मानुष-बच्चा नहीं मानता, ये मान जाएं, तो पशु काहे के?
फिर काइया को पट्टे में लिए चीकू के साथ मैं सुबह घुमाने निकलने लगा। सुबह तो प्राणि-मात्र के लिए बड़ी तारो-ताजा व सक्रिय रहती है। कुत्तों की सुबही सक्रियता तो खास तौर पर लक्ष्य है और दस बजते-बजते कहीं भी उन्हें अलसियाये-पड़े देखा जा सकता है। इसी प्रकृति का कमाल हुआ कि दो-तीन दिनों में ही उनके मन-मुंह पहचानकर एक सुबह जमना बाई स्कूल के सामने की जगह में काइया को छोड़ा और दोनों सहज ही खेलने लगे। वह मेरे लिए ‘यूरेका’ व ‘दा फतह’ जैसा क्षण लगा। वीडियो बना कर भेजातो कल्पनाजी व बेटे को भी सुखद आश्चर्यहुआ। लगासब ठीक हो जाएगा लेकिन अपनी नस्ल के मुताबिक काइया दिनों-दिन यूं तेजी से बढ़ती गई कि वही कहना होगा – ‘शुक्ल पक्षे यथा शशी’। और जल्दी ही चीकू पर भारी पड़ने लगी। खिलंदड़ी ऐसी कि 12 घंटे खेलेतो भी न थके, न ऊबे। और चीकू तो ठहरी ‘डेलिकेट डार्लिंग’। सो, 15-20 मिनट में खेल से बचने के लिए भागने लगे और काइया उसे घेर-घेर कर मजबूर करने लगे खेलने के लिए। न मानने पर जबर्दस्ती करने लगे और लड़ाई हो जाए तो चीकू पर बन आए। फिर हमें दखल दे कर छुड़ाना पड़े।
दूसरा मोर्चा यूं कि पहलेअकेली होने से जितने समय तक चाहे, चीकू हमारे पास रहती। शरीर से सटकर खड़ी रह कर पूंछ हिलाते रहना या जहां हम हों, वहीं शरीर से सटकर बैठ-सो जाती – हम सहला देते। यह उसका शगल हो गया था। कोई रोक-टोक नहीं थी। उसका एकछत्र साम्राज्य था। काइया आई तो नहीं-मुन्नी थी, तो गोद में रही। फिर विरल नस्ल होने से उसकी ज्यादा सजगता से संभाल होती। इसलिए अब दोनों ही हमारी नजदीकी के चाहक होते। आदतन चीकू आ जाती और फिर स्वभावन काइया कूद पड़ती। फिर दोनों में ठन जाती। यह बात प्यार के अपने-अपने अधिकार भाव की थी। कुल मिलाकर सोपत से रहने के प्रयत्न में लड़ाई के अवसर ज्यादा बनते।
दोनों के झगड़े में हुआ घायल
इस द्वंद्व का चरम तब आयाजब एक बार महीने भर के प्रवास के बाद मैं घर आया। शाम को दोनों मिले, खेलेलेकिन सुबह जब दोनों को घुमाने के लिए निकालने चला, तो बहुत दिनों के खालीपन को भरने के लिए दोनों ने मेरे पास रहने और दूसरी को न रहने देने की जिद फान ली और सुबह ही सुबह के आलस्य में मैं संभलूं-संभालूं कि दोनों भिड़ गए। और आधे मिनट के वक्फे में भारी काइया ने नाजुक चीकू को दबोच लिया। मैंने आव देखान ताव, झगड़ते आदमियों को छुड़ाने की तरह उन्हें रोकना चाहा और लड़ते हुए दोनों के बीच अपना पांव अड़ा दिया। फिर वही हुआ, हाथ की गदोरी में दोनों तरफ तो छिछो उठा ही, दांतों-नखों से लग कर मेरे घुटने के नीचे बनी लकीरों में खून चुहचुहा आया। दोनों को पकड़ कर अलग करके जब मैं अपना पांव देखने के लिए पास के झूले पर बैठातो दोनों अपराधी की तरह नीचे बैठ गए, गोया सजा भुगतने व प्रायश्चित्त करने के लिए प्रस्तुत हों। मुझे तो सुई लेनी पड़ी।
उस दिन चीकू के सिर में भी कट गयाजिसे ठीक होने में बहुत समय लगा। वह काफी डर गई। काइया के सामने आने से कतराने लगी। बस, साथ घूमने जाती रही। वहां खेल भी लेतीलेकिन स्थिति काफी विकट हो गई। मेरे सामने होने से मुझे अपराध-बोध होने लगा।दोनों के अस्तित्त्व-स्थापन के बारहा संघर्ष-प्रयत्न में चीकू का अस्तित्त्वहीन हो जाना चिंतनीय हो उठा। चीकू का अधिकार वरीयता व वरिष्ठता के क्रम से सिद्ध व जायज है। वह आश्रय में लाई गयी और बेहद प्यारी हो गईजबकि काइया प्रियता-क्रम में खोज कर लाई गई है – सहज सुलभ नहीं। लागत का जोखिम भी है। अत: ज्यादा रक्षणीय है। लेकिन सबसे बड़ा मामला वर्गीय चेतना का है। हम कितना भी दोनों को समान भाव से रखना चाहें, पर कहीं न कहीं काइया का जातीय व सामाजिक आभिजात्य निर्णायक बन जाता है। जुहू पर घूमने सारे कुत्ते नस्ली ही आते हैं। उनके साथ सामाजिक प्रतिष्ठा जुड़ी हुई है। देसी प्रजाति के कुत्ते रखते नहीं लोग। वे सब नस्ली काइया से खेलना चाहते हैं और काइया भी उनके पास दौड़ कर जाती है। चीकू अकेली रहती है, सो यह भी उनके पास पहुंच जाती हैलेकिन उसे कोई घास नहीं डालता। पीछे-पीछे घूमती हुई उपेक्षित होकर मन मसोस कर चली आती है। यह अभिजात व पिछड़ी की वर्गीय चेतना इस तरह पशुओं में भी देखकर लगता है कि यह जैविक या प्राकृतिक तो नहीं? इसे सिर्फ उच्च वर्गनिर्मित क्यों कहा जाए?
इसका एक दूसरा रूप और भी है। बेटे के कार्यक्षेत्र के लोगों के पास भी नस्ली श्वान ही हैं। काइया के आने के बाद उनमें से कुछ घर भी आने लगे हैं। कभी काइया भी उनके घर जाती है, गोया काइया को दोस्तों की जरूरत हो या फिर आने-जाने की सामाजिकता। पर चीकू को इसमें नहीं पूछा जाता और उनका यह आना-जाना चीकू थोड़ा देख भी पाती है। फिर महसूस ज्यादा करती है कि उसे नहीं ले जाया जाता, जबकि इससे पहले ऐसा कुछ इस घर में नहीं होता थाजिसमें चीकू उपेक्षित हो। इसके अलावा अब उनके जन्मदिन भी मनाए जाते हैं, जिसमें काइया जाती है। अब तक मनाए गए काइया के एकमात्र जनमदिन एक जुलाई को उसके वे सब दोस्त भी आए। छत पर आयोजन हुआ। चीकू उसमें भी नहीं बुलाई गई। बुलाई जातीतो भी वही जुहू वाला ही हाल होता, उपेक्षित होकर दरकिनार रह जाती। इन समागमों में मैं इसलिए नहीं जाता कि चीकू के पास रह सकूं। कल्पनाजी इसलिए नहीं जातीं कि कुत्तेआदि पालना मूलत: उनके स्वभाव के विपरीत है। बेटे के शौक व मेरी प्रियतावश इन सबको चला लेती हैं, लेकिन कहना होगा कि शान से चलाती हैं। इस तरह हम दोनों चीकू के साथ रहते तो हैंलेकिन उसके जन्मदिन का ही नहीं पतातो कभी मनाने का क्या!इन सब सूरतेहाल में पहले से ही कुछ ज्यादा सुकुमार व आरामतलब चीकू इस लड़ाई व मगजमारी के चलते कल्पनाजी के कमरे में पड़ी अपनी गादी पर बैठ जाती है और दिन-दिन भर नहीं निकलती है। एकांतप्रिय हो गई।
दोनों को साथ लाने का आया आइडिया
इन स्थितियों को देख कर बेटे ने काइया की मित्र-मंडली को बुलाना बिल्कुल कम कर दिया है और चीकू के साथ कभी-कभी जान-बूझकर अधिक समय बिताने लगा है। इसके लिए काइया को झिड़क भी देता है। उसके सामने ही चीकू को खूब लाड़-प्यार करने लगा है। घुमा कर लाने के बाद मैं भी चीकू को कमरे में नहीं जाने देता। दोनों को बाहर ही रखता हूं और वहीं आस-पास रहता भी हूं। सामने ही दोनों को उनके नाश्ते देकर वहीं बैठ कर पेपरआदि पढ़ते हुए दोनों के बीच साहचर्य का अभ्यास-सा कराता हूं। इसी दौरान एक दिन ऐसा भी हुआ कि किसी कार्यवश घुमाने जाने में देर हुईतो जुहूतट से सारे लोग जा चुके थे। किनारे से दूर समुद्री पाट बिल्कुल सूना था। उस दिन काइया को नस्ली साथी तो क्या, कोई न मिला। लिहाजा उसकी खेल-वृत्ति मजबूर होकर चीकू के पास आकर खेलने के लिए उकसाने लगी,उससे मनुहारसा करने लगी। इस भाव ने चीकू को भी मनहुक किया। वह भी खेलने लगी और ज्यादा खेली। बस, मैंने इस स्थिति को लोक लिया। इस विचार पर उछल पड़ा और रोज ही देर से आने का नियम बना लिया। अब वही दोनों रहते हैं और काफी खेलते हैं। इससे संसर्ग बढ़ रहा है। इस परिवर्तन को मैंने अपने हित से भी जोड़ लिया है। चार दशकों के प्रभात-भ्रमण को बदलकर अनौपचारिक सूर्य-स्नान कर लिया और विटामिन डी की जरूरत की आपूर्त्ति का तर्क भी शामिल कर लिया। कुछ मित्रों से मिलने, हालचाल लेने और कुछ परिचित चेहरों से ‘हलो-हाय’ की रस्मों के अभाव पर भी काबू पा लिया।
इन तब्दीलियों और प्रयत्नों के असर हो रहे हैं। अब दिन भर चीकू कमरे से बाहर रहने लगी है। ऊपर बसे बिल्लीपरिवार पर दोनों मिलकर भौंकने-दौड़ने लगे हैं। आमने-सामने बैठ कर खाने लगे हैं और एक दूसरे का छीनने नहीं जाते। रात को भी दोनों इस-उस तरफ सोने-बैठने लगे हैं। एक सहज जीवन के आसार दिख रहे हैं। शायद बीजो-चीकू के सहजीवन जैसा जनतंत्र आने वाला है। यह सब देखकर मेरे मन में नानी और मां की आत्मा आ जाती है और मैं उनकी तरह हाथ जोड़े बिना भी उन्हीं की तरह आसमान को लक्ष्य करके मनाने लगता हूं – ऐसा ही हो!!(समाप्त)