सत्यदेव त्रिपाठी ।
चट-पट वाले प्रभाव के कारण वह ‘चटक चाल’ थी और यह धीरे-धीरे मचकते हुए मस्ती में आराम से चलती है, इसलिए ‘मचक चाल’ है।
1962-63 में दर्जा चार-पांच में पढ़ते हुए जब हम पीटी में भाग लेते थेतो मार्चिंग करते हुए ‘तेज चल’, ‘धीमे चल’आदि की तरह ही एक आदेश होता था ‘छोटा कदम चटक चाल’। उसमें हमें हल्के झटके के साथ छोटे-छोटे कदम जल्दी-जल्दी रखते हुए कुछ नजाकत से चलना होता था। उसमें कमर पर एक खास तरह का हल्कालोच आता था। ‘छोटा कदम चटक चाल’ की शब्दावली मुझे बहुत मोहती थी और बार-बार मैं इसे विविध रूपों, अंदाजों, स्वरों में दुहराता रहता था।फिर आधी शताब्दी बीत गई। उस याद का हाल वही फ़िराक़ साहब वाला हो गया –‘मुद्दतें गुजरी तेरी याद भी आई न हमें, और हम भूल गए हों तुझे, ऐसा भी नहीं’।
इसीलिए 2013-14 में जब उस चाल से फिर साबका पड़ातो सब याद आ गया। बस, अंतर इतना है कि हमसे जल्दी-जल्दी कदम रखवाया जाता था, जिससे चट-पट वाले प्रभाव के कारण वह ‘चटक चाल’ थी और यह धीरे-धीरे मचकते हुए मस्ती में आराम से चलती है, इसलिए ‘मचक चाल’ है, जिसमें नजाकत से रखे जाते पिछले पांवों के साथ बारी-बारी से दोनो तरफ की कमर भी यूं मचकती है कि बस देखते ही रहें। और ऐसे में पिछले पैरों के साथ आगे उसकी गरदन और पीछे खड़ी पूंछ भी सम पर हिलती है। पूरा दृश्य दर्शनीय होता। ऐसी चाल वाली हमारे घर में आकर बन गई – चीकू त्रिपाठी। जी, यही नाम उसका महानगरपालिका में दर्ज हुआ। एक बार की बात है कि उसकी किसी बीमारी का इलाज हुआ था और अस्पताल का कागज बेटे ने गाड़ी में ही छोड़ दिया था। रोज सुबह जुहू आने-जाने में हमारे वरिष्ठ आईएएस (अब सेवामुक्त) मित्र सतीश त्रिपाठी साथ होते थे। उन्होंने यूं ही पेपर उठा लिया और पूछ बैठे – यह चीकू त्रिपाठी कौन है? मुझे भी सहसा याद न आयाक्योंकि चीकू-चीकू तो दिन भर में सौ बार बोलना होता था लेकिन तकनीकी तौर पर वह ‘चीकू त्रिपाठी’ है, यह जेहन-जुबान पर रवां बिल्कुल नहीं था। आखिर कागज देखातो हंसी छूट गई – ‘अरे, ये वही हमारी पालतू (पेट) है, ‘छोटी वाली’। इस ‘छोटी वाली’ से वे खूब परिचित थे। घर से बाहर तो कई बार मिल चुके थे, खास व यादगार पहचान तब हुई जब एक बार हमें सुबह-सुबह साथ में मुंबई सेंट्रल जाना था शताब्दी पकड़ने। वे पांच बजे के आसपास मुझे लेने के लिए गाड़ी गेट पर खड़ी कर परिसर में प्रविष्ट हुए और इतने में चीकू अंदर से ही इतने जोर से भौंकीकि वे वापस हो गए और गेट से बाहर जाकरफोन किया – ‘भाई, वो आपकी ‘छोटी वाली’ अंदर नहीं आने दे रही है, आप आ जाइए, गेट पर हूं’।
छोटी वाली, बड़ा वाला
छोटी वाली इसलिए कि उस समय बीजो था बड़ा वाला। उम्र में भी ज्येष्ठ और कद-काठी में चीकू का ढाई गुना। लेकिन वह तभी भौंकताजब अ-निवार्य हो जाता। फिर सतीशजी के पैरों की आहट तो वह बखूबी पहचानता था। उनके साथ जुहू पर सैकड़ों बार घूम चुका था। लेकिन चीकू तो तब छोटी थी और इतनी गहरी व दूरगामी समझ उसमें विकसित नहीं हुई थी। अब वह बड़ी है, छह-सात साल की। तो वैसा अनुभव अब इसे भी हो गया है। अब इसकी जगह ‘काइया’ आ गई हैजो उम्र में तो चीकू से लगभग छह साल लहुरी (छोटी) है, पर कद-काठी में चीकू की दोगुनी हो गई है। परंतु वही कि कुछ तो अनुभव की कमी सेऔर काफी तो अपने नस्ली (जर्मन शेफर्ड) स्वभाव से बारहा भौंकती रहती है। अब चीकू हो गई है बीजो की जगह, उसी की तरह अनुभवी, जो ‘समझे हुए है सबको, जिस भेस में जो आए’। लिहाजा, सिर्फ अजनबी आहट पर ही भौंकती है या चीकू भौंके तो तय मानें कि कोई नया आदमी परिसर में आया है।
नाम ही सबसे प्यारा
उम्र में पांचगुना बड़ी होने के बावजूद कद-काठी में छोटे होने का राज भी नस्ल में ही छिपा है। असल में चीकू की कोई नस्ल नहीं है। वह खांटी देसी है। उस बार किसी संयोगवश एक आसमानी छत वाली कुतिया ने एक रात पांच-छह बच्चे हमारी सीढ़ियों के नीचे ही जन दिए। बच्चे किसी के भी प्यारे होते हैं।लिहाजा घर में न आने देने के अलावा थोड़ी-बहुत देख-रेख सबकी हो जाती थी, लेकिन एक-एक कर सभी मरते गए। रह गई यही सिर्फ एक। दूध-अखबार पहुंचाने वाले से लेकर गाड़ी धोने वाले व परिसर की सफाई करने वालेतक सभी ने अलग-अलग शब्दों में बेटे से इसरार-आग्रह करना शुरू किया ‘रख लो बाबा, एक ही बची है नहीं तो यह भी मर जाएगी’। तो अंतत: उसने रख ही लिया और खुद ही ‘चीकू’ नाम से पुकारने लगा।देखते-देखते यह नाम बनने जैसा सरनाम होने लगातो मुझे ख्याल आया कि तब तक गांव में हमारे खानदान के एक पोते के बुलाने का नाम ‘चीकू’ पड़ चुका था।उसके हवाले से मैंने नाम बदलने का सुझाव दिया, लेकिन यह नाम सबको इतना भा गया और जल्दी ही इस कदर जुबान पर चढ़ भी गया कि बदलतेतो भी बदल न पाते। और अब तक के दर्जन भर पालतुओं के नामों की बावत गुजराती के गालिब कहे जाने वाले शायर ‘मरीज़’ के शब्दों में कहूं, तो ‘तुम्हारा नाम ही तो सबसे प्यारा नाम है साक़ी’ सिद्ध हुआ यह।
चीकू के आगमन के कुछ ही दिनों में दूसरा मुद्दा भी उठा, स्त्री लिंग होने का। लेकिन यह मनुष्यों वाले लिंगभेद का मामला न होकर नितांत व्यावहारिक था। उम्र आने पर उसकी दैहिक जरूरतों और प्रजनन के बड़े झंझट आते। मैं तो शायद निभाताक्योंकि अपने खानदान के भागीरथी काका को अपनी पालतू की जचगी का सब करते देख चुका था, लेकिन शहर में जन्मे-पले बेटे व पत्नी के लिए यह सर्वथा अकल्पनीय था। फिर तो ऐसा हुआजो हमारी ग्रामीण व पारंपरिक संस्कारी बुद्धि में पहले तो आता नहीं। और आता भी, तो करने में खासी दुश्वारी पेश आती। उसे नई पीढ़ी (बेटे) ने सहज ही करा दिया। अस्पताल ले जाकर बच्चेदानी निकलवा लाया और एक सप्ताह तक अपने कमरे में ही रख कर बिस्तरी आराम (बेड रेस्ट) की पूरी सेवा भी कर दी। बल्कि उस दौरान हमें देखने तक के लिए अंदर आने नहीं दिया।
बदली घर की व्यवस्था
जिन दिनों चीकू आई, हमारे घर के पूर्वी हिस्से में एक बिल्ली का परिवार आबाद था। उसके पांच-छह छोटे-छोटे प्यारे-प्यारे बच्चे थे। सब के सब मां की तरह चितकबरे थे। जब मैं बीजो को घुमा कर आतातो उसे खाना देते समय बिल्ली परिवार भी सामने आ जाता। कुछ दिनों तक रोटी के टुकड़ों व दूध की कुछ बूंदों से बहलाने के प्रयत्न को उनकी साधिकार जिद ने फेल कर दियातो उनके लिए भी पेडिग्री लानी पड़ी। इसे पाने के लिए बीजो के बाद दो-चार मिनट की देर भी उस परिवार को कुबूल न होती। मेरे सामने आकर सब इसरार-उलाहने का मोर्चा खोल देते और दाना पाते ही म्याऊं-म्याऊं करके टूट पड़ते। बड़ा सुंदर मंसायन दृश्य होता था। संत बीजो को कुछ नहीं पड़ी होती, वह पेडिग्री मिला हुआ अपना दूध-रोटी खाता रहता। लेकिन चीकू का संज्ञान होते ही उस परिवार की स्वतंत्रता छिन गई। चीकू को अपने खाने से जयादा फिक्र उनके वहां होने की होती। एक बड़ा मोर्चा खुल गया घर में। फलत: पतरे की एक बाड़ लगानी पड़ीजिसे फांदकर चीकू जा नहीं सकती थी, लेकिन इस पार से ही वह शोर मचा-मचा कर तबियत दिक् कर देती। हमेशा उनके पीछे पड़ी रहती। बेचारों का पूरे परिसर में आजादी से घूमना-फिरना बंद हो गया। एकाध बार आमना-सामना हो भी गया, लेकिन तब जिस तरह बिल्ली घूर कर खड़ी हुई कि चीकू को थसमसा कर रुक जाना पड़ा, वरना बिल्ली तो आक्रमण के लिए तैयार थी। तब समझ में आया कि चीकू भी लड़ाकू नहीं है। जन्म से ही घर में आ जाने से जीवन के संकटों में पड़ी नहीं, तो सुरक्षात्मक या आक्रामक तेवर आए ही नहीं। यह तो कुदरती है कि बिना किसी के बताए ही बिल्ली को हर कुत्ता अपना दुश्मन या शिकार मानता है। लेकिन इस किच-किच के चलते मार्जारी खुद ही अपने परिवार को लेकर घर के प्रवेश-द्वार के सामने बने बारजे की छत पर चली गई। वहां से टिन की बनी वह बाड़ दिखती और वहीं से सीधे उतर कर पेडिग्री के दाने खाने आ जाते। इस तरह चीकू ने घर की व्यवस्था में एक बड़ा परिवर्तन किया। (जारी…..)
(लेखक कला एवं संस्कृति से जुड़े विषयों के विशेषज्ञ हैं)