करीब महीने भर से चल रहा हमास-इजरायल युद्ध मिडिल-ईस्ट में एक बड़ी तबाही का संकेत दे रहा है। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय इस बात पर बहस कर रहा है कि अगर यह युद्ध लंबा खिंचा तो क्षेत्रीय तबाही बढ़ सकती है क्योंकि एक तरफ इजरायल के लिए यह युद्ध 1948 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद उसके अस्तित्व का सबसे खतरनाक युद्ध है, तो दुनिया के लिए इसका जोखिम इजरायल और मिस्र के बीच हुए 1973 के योम किप्पुर युद्ध से कम नहीं है, जब रूस और अमेरिका के हस्तक्षेप ने इसे परमाणु युद्ध की कगार पर पहुंचा दिया था।


7 अक्टूबर को गाजा की सीमा से लगे इजरायली समुदायों पर हमास आतंकवादियों के हमले के साथ शुरू हुए मौजूदा युद्ध में एक तरफ इराक और सीरिया में ईरान समर्थित आतंकी अमेरिकी और इजरायली संपत्तियों पर हमला कर रहे हैं,तो दूसरी तरफ अमेरिका उन आतंकियों पर पलटवार करते हुए इस क्षेत्र में एक दशक से भी अधिक सक्रिय भूमिका निभा रहा है। इधर, अमेरिका ने गाजा पट्टी पर आग बरसा रहे इजरायल को सुरक्षा कवच देने के लिए दुनिया के सबसे बड़े विमानवाहक पोत, यूएसएस गेराल्ड आर. फोर्ड और एक कैरियर स्ट्राइक ग्रुप को पूर्वी भूमध्य सागर में तैनात कर रखा है।

चीन का रुख आर्थिक हितों पर केंद्रित

यह विवाद और संघर्ष कैसे न केवल क्षेत्रीय बल्कि वैश्विक स्तर पर नया आकार ले रहा है, इसे समझने के लिए पूर्व की ओर यानी चीन की तरफ देखना होगा क्योंकि इस क्षेत्र के साथ चीन का जुड़ाव मुख्य रूप से आर्थिक रहा है। मध्य पूर्व में अमेरिका की कम होती दखल की धारणा के कारण बीजिंग ने वहां के लिए अपनी विदेश नीति को बड़े पैमाने पर पुनर्गठित किया है। इसे दो उदाहरणों से समझा जा सकता है।

चीनी विदेश नीति के तहत यूक्रेन-रूस युद्ध से हमास-इजरायल की तुलना करें तो हम पाते हैं कि बड़ी सावधानी से चलते हुए, बीजिंग ने रूस-यूक्रेन संघर्ष की शुरुआत के एक साल बाद अभी तक सिर्फ एक 12-सूत्रीय शांति योजना सामने रखी है। इसके अलावा चीन अभी भी रूस-यूक्रेन युद्ध को केवल एक “संकट” के रूप में देखता है। चीन रूस का रणनीतिक साझेदार रहा है और उस पर पश्चिमी देशों द्वारा लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों का विरोध करता रहा है।

एक तरफ गाजा पर हमले का विरोध, तो दूसरी तरफ इजरायल का समर्थन

मध्य पूर्व के मौजूदा इजरायल-फिलिस्तीन संघर्ष में भी चीन फूंक-फूंककर कदम उठा रहा है। उसने फिलिस्तीन का समर्थन किया है और इजरायल में हमले का शिकार होने के बावजूद अभी तक हमास को आतंकवादी संगठन कहने से बचता रहा है लेकिन दूसरे हाथ चीन ने इजरायल के जवाबी हमले का यह कहकर समर्थन किया है कि किसी भी देश को आत्मरक्षा करने का अधिकार है। यही चीन की बदली हुई विदेश नीति की सफलता है।

इसी साल मार्च में चीन ने सऊदी अरब और ईरान के बीच राजनयिक संबंधों की बहाली करवाई थी। दोनों देशों के बीच सात साल से राजनयिक कटुता जारी थी। कई लोगों ने इस समझौते को बीजिंग द्वारा इस क्षेत्र से अमेरिका के कथित प्रस्थान के कारण उत्पन्न शून्य को भरने की दिशा में एक बड़े कदम के तौर पर देखा है।

चीन निभाएंगा शांति समझौते की मध्‍यस्‍थ की भूमिका, इजरायल-हमास युद्ध को रुकवाने के संकेत 

बता दें कि चीन हाल के कुछ वर्षों में कई मध्य पूर्व देशों के प्रमुख आर्थिक भागीदार और सऊदी और ईरानी तेल के खरीदार के रूप में उभरा है। ऐसा लगता है कि बीजिंग भविष्य में होने वाले भू-राजनीतिक संघर्षों में मध्यस्थ की भूमिका निभाने और सद्भावनापूर्ण तरीके से आर्थिक लाभ कमाने की सोची-समझी रणनीति और डगर पर चल रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि चीन ने यह भी स्वीकार कर लिया है कि क्षेत्र में उसकी बढ़ती सक्रिय भूमिका की आर्थिक कीमत चुकानी पड़ सकती है।

मिडिल-ईस्ट में चीन का व्यापार

साउथ-चाइना मॉर्निंग पोस्ट की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2019 के बाद से मध्य पूर्व में चीन का व्यापार 79 अरब अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 2021 में 259 अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया है, जबकि इस क्षेत्र में अमेरिकी व्यापार 38 अरब अमेरिकी डॉलर की गिरावट के साथ 82 अरब अमेरिकी डॉलर रह गया है। आंकड़ों से स्पष्ट है कि चीन का व्यापार अमेरिका से तिगुना हो चुका है। 2015 से 2018 तक इस क्षेत्र में चीन ने सर्वाधिक निवेश इजरायल में किया है। इस क्षेत्र में कहीं और की तुलना में इज़रायल में सबसे ज्यादा बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के तहत निवेश किए गए हैं।।

अनुमान है कि 2011 से 2018 के बीच प्रौद्योगिकी क्षेत्र में चीनियों द्वारा किए गए 87 निवेशों में से 54 इजरायली कंपनियों में किए गए हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका के कड़े विरोध के बावजूद, चीन ने इजरायल के सबसे बड़े बंदरगाह, डेयरी कंपनी और अन्य कंपनियों में निवेश किया। हालाँकि, अमेरिकी दबाव के कारण कुछ सौदे रद्द भी करने पड़े

आर्थिक हितों पर टिकी निगाहें

मौजूदा संघर्ष में भी साफ हो गया है कि बीजिंग आर्थिक हितों को देखकर ही राजनयिक कदम उठा रहा है। यही वजह है कि वह लंबे समय से दो-देश समाधान की वकालत करता रहा है। यहां तक कि उसने 1960 और 1970 के दशक में फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन को शस्त्र भी मुहैया करवाया फिर भी, आज बीजिंग इजरायल का दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार बना हुआ है। चीन की चालाकी इससे साफ दिखती है कि जब जब संयुक्त राष्ट्र महासभा में मानवीय संघर्ष विराम का आह्वान वाला गैर-बाध्यकारी प्रस्ताव आया तो वह 119 अन्य देशों के साथ खड़ा हो गया, जिन्होंने प्रस्ताव के समर्थन में मतदान किया। (एएमएपी)