सत्यदेव त्रिपाठी ।
ट्रेजिडी के बाद इस रूमानी व बाग़ी प्रेमी के अलावा अन्य बदलावों में पहले की फ़िल्म ‘पैग़ाम’ की सरणि में नया दौर, गंगा-जमुना, सगीना महतो, संघर्ष आदि जैसी सोद्देश्य-समस्यामूलक फ़िल्में कीं। फिर तो ‘ट्रेजिडी किंग’ मात्र की छबि न रही, बदल गयी- ‘ट्रेजिडी किंग’ उनके काम का सही वाचक न रहा। लेकिन लेबल तो लग ही गया था और दुनिया तो लकीर की फ़क़ीर है, लिहाज़ा वह नाम हटा नहीं। लोग आज भी उन्हें ‘ट्रेजिडी किंग’ कहे जा रहे हैं, जो सही व उचित नहीं। यह नाम उनके कला-वैविध्य को सीमित कर देता है। उसमें दिलीपजी का बहुआयामी कलाकर उसमें समाता नहीं। उन्होंने ऐसा कोई ठप्पा लगाने न दिया अपने पर। हर तरह की भूमिकाएँ करते रहे, जिनके यथासंभव आकलन आगे होते रहेंगे।
एक साल में एक फ़िल्म
इस मामले में भी दिलीप कुमार अपवाद रहे कि 1942-44 से 1998 तक के लगभग 58 सालों के फ़िल्मी सफ़र में कुल 63 फ़िल्में की हैं, जिनका समूचा औसत एक साल में एक फ़िल्म का आता है। वैसे वर्ष 1948 में सर्वाधिक 6 फ़िल्में (घर की इज्जत, शहीद, मेला, अनोखा प्यार, नादिया के पार, शबनम) प्रदर्शित होने का उनका अपना रेकॉर्ड ही कहा जायेगा। फिर उसके अगले सालों में भी 3-3 फ़िल्में तो अक्सर आ जाती रहीं। इस प्रकार 1960 तक लगभग 18 सालों के दौरान 34 फ़िल्में आयीं- दो फ़िल्में प्रति वर्ष का औसत। फिर अगले 42 सालों में 29 फ़िल्में। लेकिन इन आँकड़ों के बरक्स देखें, तो 37 सालों के सफ़र में अनुपम खेर 500 फ़िल्में कर चुके हैं। माना कि नायक की भूमिका वाली खेर की बहुत कम फ़िल्में हैं, फिर भी…! लेकिन नायक के रूप में भी देखें, तो अक्षयकुमार व अजय देवगन जैसे लोग 30 सालों में सवा सौ फ़िल्में कर चुके हैं। तब समझ में आता है कि दिलीप साहब की फ़िल्में चल रही थीं, ढेर सारे प्रस्ताव (ऑफ़र्स) आ रहे थे, तो भी उन्होंने अन्य कलाकारों की तरह थोक में कभी फ़िल्में स्वीकार (साइन) नहीं कीं। हमेशा चरित्रों को लेकर अपनी पसंद व निभायी जाने वाली भूमिकाओं के चयन के आग्रही रहे। आज के अक्षय कुमार, अजय देवगन… आदि लोग इतनी सारी फ़िल्में करने के अलावा एकाधिक कम्पनियाँ (प्रोडक्शन हाउसेज) भी चलाते हैं। कभी पत्नी निर्माता होती है, कभी बच्चे तो कभी घर (का नाम) भी। अभी जुम्मा-जुम्मा आठ दिन हुए हैं फ़िल्म-दुनिया में कदम रखे… और तापसी पन्नू ने अपनी कम्पनी खोल ली। ये अभिनेता इन कम्पनियों के प्रबंधन-संचालन व हिसाब-किताब का भी काम करते हैं। आयकर से उलझते हैं, व्यय के विधान से जूझते हैं… और इतने सबके बीच धड़ा-धड़ अभिनय किये जा रहे हैं। शायद आज के यांत्रिक-भौतिक युग ने आदमी की सृजन-चेतना में, उसके दिल व ज़ेहन में भी स्वचालित मशीन या कम्प्यूटर फ़िट कर दिया है। अब अभिनय जैसी कला भी ज़ेहनी (बल्कि मैनुअल भी) न रहकर मशीनी हो गयी है। अब तो (फ़िल्म ‘डैडी’ वग़ैरह के बाद) अवसाद की वैसी फ़िल्में बनतीं भी नहीं। क्योंकि आदमी ने टूटकर प्यार करना अमूमन छोड़ दिया है। सो, प्यार के टूटने-छूटने का कोई असर नहीं। हर दस-पंद्रह साल पर बीवी तक बदलने की प्रवृत्ति चल पड़ी है। कलाकार पति-पत्नी साथ मिलकर तलाक़ की जन-घोषणाएँ करते हैं। आज का प्यार व भाषा देखें- ‘रिलेशन में हैं’ और ‘ब्रेक-अप हो गया है’, कहना ऐसा लगता है, जैसे ‘खा रहे हैं’ व ‘खा लिया है’… कहा जा रहा हो। ऐसे में किसी के अवसाद में जाने का मामला ही नहीं बनता- याने आदमी बदल गया है। अब तो ‘ऐंग्री यंग मैन’ की भूमिका वाली दर्जन भर फ़िल्में करके भी आदमी शरीफ़ ही नहीं, ‘महान’ और ‘देव’ बना रहता है। ऐसा सब कमोबेस उस समय भी होता रहा।
कला-मूल्य के लिए नहीं झुके
परंतु दिलीप साहब का ऐसा न था। उन्होंने तो कोई विज्ञापन फ़िल्म भी नहीं की- सिवाय किसी मित्र के लिए एक फ़िल्म के, जिसका कोई पैसा नहीं लिया। वे भूमिका चुनते भी थे जाँच-परख कर, जिसमें कोई ख़ास जगह व्यावसायिकता के लिए न होती। फिर उस चरित्र के साथ तदवत (आइडेंटिफाइ) होने की मानसिक प्रक्रिया को व्यवहार में उतारते रहते- कृष्णमय होने की विद्यापति की राधा की तरह-‘अनुखन माधव-माधव रटइत सुंदरि भेलि मधाई’। प्रस्तावों को अस्वीकार करते हुए वे बाक़ायदा अपने चयन और फ़िल्म पर पूरा समय देने तथा भूमिका के साथ अधिकतम एकाकार होने की अपनी बात को साफ़-साफ़ कहते भी थे। इसके लिए उन्होंने कमाई को ही नहीं त्यागा, खुद उन्हीं के एक साक्षात्कार के साक्ष्य पर इस कला-मूल्य के लिए जीवन तक की क़ुर्बानी दी। मधुबाला के प्रति अनन्य अनुरक्ति के बावजूद इस कला-मूल्य के लिए वहाँ भी नहीं झुके। मधुबाला के पिता अताउल्ला खां देहलवी नहीं चाहते थे कि बेटी शादी करके कहीं जाये और उनकी इतनी बड़ी आमदनी, जिससे 11 बच्चों वाला उनका घर चलता था, बंद हो जाये। लेकिन इन दोनो के बढ़ते प्रेम-सम्बंधों के चलते उन्होंने एक चाल चली। कहा कि उनकी एक फ़िल्म-निर्माण कम्पनी है। शादी के बाद उन दोनो को सिर्फ़ उन्हीं की कम्पनी के लिए फ़िल्में करनी होंगी। ज़ाहिर है कि घर के ही दो-दो सुपर स्टार के साथ वे मनचाही फ़िल्में बना-बनवा कर लाखों-करोड़ों का फ़ायदा कमाना चाहते थे। इसी बीच मधु-दिलीप की भूमिका वाली फ़िल्म ‘नया दौर’ बनने लगी, जिसे फ़िल्माने के लिए पूरे समूह (यूनिट) को मध्यप्रदेश जाना था। दिलीप की उपस्थिति में अताउल्लाजी ने बेटी को जाने से मना कर दिया। तब अंतत: मधुबाला की जगह वैजयंती माला को लेकर बी.आर. चोपड़ा ने नए सिरे से फ़िल्म शुरू की। और मुक़दमा भी शुरू हो गया। गवाही में दिलीप कुमार ने मधुबाला के प्रति अपने बेइंतहा प्रेम का खुल कर इज़हार किया, लेकिन मधुबाला के पिता पर बेटी के शोषण से लेकर उसके पेशेवर जीवन में बेजा दख़लंदाज़ी के आरोप भी खुलकर लगाए। इतनी बेबाक़ी की उम्मीद मधुबाला को नहीं थी। उधर अब भी दिलीप साहब अपनी ‘मधु’ से शादी के लिए तैयार थे और उन्हें अपने प्रेम पर विश्वास भी था। लेकिन मधुबाला ने दिलीप कुमार के सामने अपने पिता से माफ़ी माँगने या खेद व्यक्त करने (सॉरी बोलने) की कठिन व बेजा शर्त रख दी, जो दिलीप साहब को कदापि मंज़ूर न हुई। इस प्रकार इस कलाकार ने अपनी मनचाही ज़िंदगी छोड़ दी। अपने कलामूल्य के लिए जीवन को हार दिया- वार दिया। नैतिकता और मूल्यवत्ता के ऐसे द्वंद्वों के समय ही सही व खाँटी की पहचान होती है। ऐसी जानलेवा कश्मकश के बीच ही मनुष्य की प्रतिबद्धताओं का पता चलता है। बहरहाल, मधुबाला के अंतिम दिन काफ़ी त्रासद रहे। तब दिलीप साहब उन्हें देखने भी गये थे- गोया ‘जज़्बात निभाये हैं उसूलों की जगह’। जीवन और कला के प्रति यह निष्ठा ही दिलीप कुमार को दिलीप कुमार बनाती है। कहते हैं कि देखने जाने की पहल पत्नी सायरा ने करायी थी- दोनो के घनिष्ठ सम्बंधों को जानने के बावजूद।
अरथ अमित अति, आखर थोरे
अंतस् की प्रक्रिया और अपनी उसूली प्रतिबद्धता के साथ दिलीप कुमार के अभिनय की बाह्य स्थितिको जोड़ कर देखें, तो उनकी अदाकारी की रेखीयता (ग्राफ़) और कलामयता के फलक (रेंज मान लें) को समझा जा सकता है। यह बात कहीं पढ़ने-जानने से नहीं, अपने निरीक्षण से एक प्रयोग की तरह कह रहा हूँ और इसकी पुष्टि का मुंतज़िर भी रहूँगा कि दिलीप साहब इकले कलाकार हैं, जिनके शरीर का सबसे कम हिस्सा पर्दे पर खुला दिखता है- चेहरा और कलाई के बाहर का हाथ, बस। कभी खाट से उतरने वग़ैरह के दृश्य में अपवाद स्वरूप पैरों का निचला हिस्सा अवश्य दिख गया है, लेकिन और कुछ नहीं। इससे बने अफ़साने नहीं, अफ़वाह की बात यह कि उनके भर शरीर में बाल थे और इस अफ़वाह की कोई तस्दीक़ मेरे पास नहीं। अनिल कपूर आदि जैसे कुछ कलाकर हैं, जो बालों के कभी दिख जाने से आपत्ति नहीं करते। लेकिन इससे उलट दिलीप साहब ने किसी को कभी इसकी भनक तक न लगने दी- झलक तक न दिखने दी। लेकिन मुझे तो यहाँ उस कमाल की बात करनी है, जिस पर आप भी गौर कीजिए कि अभिनय में देह सबसे प्रमुख है- बल्कि कालिदास के शब्दों में कहें, तो ‘शरीरमाद्यम खलु धर्म साधनम्’ (शरीर ही सभी धर्म-साधनाओँ का आदि माध्यम) है। और उसी आदि माध्यम के कम से कम हिस्से का इस्तेमाल करके अधिक से अधिक परिणाम (आउटकम) देने की यह क्षमता कला के उस प्रतिमान की मिसाल है, जिसमें सबसे कम साधन का इस्तेमाल करके सबसे अधिक प्रभावी अभिव्यक्ति होती है। इसके तहत साहित्य को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है, क्योंकि ‘कविहिं अरथ-आखर बल साँचा’- अक्षर भर ही उसके साधन हैं और कम अक्षरों में असीम अर्थ भरने की प्रतिज्ञा भी उसमें निहित है- ‘अरथ अमित अति, आखर थोरे’। तो दिलीप साहब के अभिनय के ‘अरथ-आखर’ हैं- चेहरा और कलाई के बाहर का हाथ। इसी पिंड में वे रचते हैं अभिनय का ब्रह्माण्ड या इसी में होता है अभिनय का ‘असीम अवसित’। अब कहने का मोह-संवरण नहीं हो पा रहा कि यह कलामानक आज कितना गिर गया है-कैलाश वाजपेयी के शब्दों में ‘कितना उघड़-उधड़ गया है’ कि बिना शर्ट उतारे व बिना समूची देह दिखाये आज के सितारों की फ़िल्म का चरमोत्कर्ष (क्लाइमेक्स) बनता ही नहीं। और तो और क्या कहें चंद्र प्रकाश द्विवेदी जैसे कलमर्मज्ञ को, जिनने इतना अच्छा तो सीरियल बनाया ‘चाणक्य’, लेकिन उसके चंद्रगुप्त की उठी हुई छाती बार-बार न जाने क्यों दिखाते रहे और कभी यह न देखपाये कि वह आकृति ऊँट की पीठ जैसी उभर आती है। ऐसे कला-स्खलन के समय में दिलीप साहब का अभिनय जो मानक रचता है, उसे छूना तो क्या, उस तक नज़र उठा पाना भी आज के नामी-गरामी कलाकारों के लिए सम्भव न रहा…और जिनमे सम्भव है- आज का फ़िल्म-उद्योग उसे समझता ही नहीं- तवज्जो ही नहीं देता…। ऐसे कला मूल्य आज कालबाह्य (आउट ओफ़ डेट) समझे जाते हैं। यह उद्योग कमोबेस ऐसा ही तब भी था, लेकिनइस तरह की सारी व्यावसायिकता व भौतिकता को विजित करके दिलीप कुमार ने फ़िल्म-संसार में अपना अलग मुक़ाम बनाया।
दीवानगियाँ अलग-अलग
ऐसे दिलीप कुमार का अभिनय जब अपने उरोज को पार कर रहा था, हम किशोरावस्था की देहलीज़ लांघ रहे थे और मुम्बई की डाक-तार सेवा में नौकरी पर लग गये थे। वही समय देवानंद, राजकपूर व राजकुमार के अभिनय के उत्कर्ष के असीम सीमांत का भी था। विभागीय प्रशिक्षण में मुम्बई से हम 12 लोग साथ थे और बारहो की नियुक्ति ‘एयरपोर्ट छँटाई कार्यालय’ में हो गयी थी। उनमें से हम चार लोगों की सिनेमा देखने की दीवानगी प्रशिक्षण-काल में सामने ही नहीं आ गयी थी, वरन कुछ रविवारों को खाने के बाद भाड़े की सायकल लेकर बड़ौदा शहर के थिएटरों तक भी ले गयी थी। उनमें संयोग ऐसा बना कि हम चारों की दीवानगियाँ भी इन चारो सितारों के प्रति अलग-अलग निकलीं। शैलेंद्र दुबे दीवाना निकला राजकुमार का, अशोक बेलवलकर देवानन्द का, चंद्रहास शानभाग राजकपूर का और मैं दिलीप कुमार का। नियुक्ति के बाद हम चारो की स्थिति तब ‘आगे नाथ न पीछे पगहा’ की थी, सो चारो अपनी ड्यूटी अप्पा साहब ढमढेरे से अनुनय करके साथ लगवा लेते और ड्यूटी के बाद निकल जाते फ़िल्म देखने। इन चारो कलाकारों की फ़िल्में ख़ास निशाने पर होतीं और जिस फ़िल्म में इनमें से दो कलाकर साथ होते, उसके लिए तो हम कुछ भी करते। तब सिर्फ़ अलग तरह के मज़े के लिए ऐसा करते हुए यह पता न था कि मूल्यांकन सदा सापेक्ष्य हुआ करता है। उन दिनों मुम्बई में रविवारों को सुबह 9 बजे का ‘मॉर्निंग शो’ भी होता था, जिसमें विरल फ़िल्में दिखायी जातीं। 12 बजे का मैटिनी शो तो रोज़ होता ही, जिसमें प्रायः अलग फ़िल्में लगतीं। हम 9 बजे के शो में दिलीप-राजकुमार अभिनीत ‘पैग़ाम’ देखने ग्रांट रोड के ‘अलंकार’ थिएटर पहुँच गये थे, तो दिलीप-राजकपूर की ‘अन्दाज़’ देखने सुबह 9 बजे ग्रैंट रोड पे ही ‘अप्सरा’ चले गये थे और दिलीप-देवानंद को लेकर बनी ‘इंसानियत’ हमें दादर के ‘ब्रोडवे’ (जो सबसे पहले शॉपिंग कोम्पलेक्स बना) में भेंटाई थी।
कालजयी दिलीप कुमार-1: हमारे बाद इस महफ़िल में अफ़साने बयां होंगे
चाय पर अपने-अपने हीरोज़ का गुणगान
हम ढाई घंटे फ़िल्म देखते, फिर किसी ईरानी होटल में चाय पर अपने-अपने हीरोज़ के गुणगान और दूसरे की कमियाँ निकालते तीन घंटे बैठे-बैठे एक दूसरे से लड़ते-उलझते रहते। ‘पैग़ाम’ से निकलकर दुबे कहता- ‘दिलीप कुमार को खा गया है राजकुमार’। मैं कहता मिल मालिक सेठ की चमचागीरी (स्वामि-भक्ति) करने वाला राजकुमार क्या खाके खायेगा दिलीप कुमार को? अरे बड़ा भाई है, इसलिए लिहाज़ करने में दिलीप का किरदार ज़रा विनम्र है, बस। वरना मालिक से बहस करने और यूनियन का नेत्तृत्व करते हुए शोषण-अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष का मूल काम तो दिलीप कुमार ही करता है और अंत में उनकी भी आँखें खोलने का काम करके दिलीप कुमार ही विरोध की चेतना को अंजाम तक पहुँचाते हैं! गरज ये कि तब यही हमारी भाषा थी और यही समझ थी। पर आर-पार की इन्हीं अधकचरी बहसों में कहीं हमारी सिनेमाई समझ पनप रही थी या कुछ बन रही थी और वही शायद ‘सुबइ समय अनुकूल’ पाकर समीक्षा लिखने की तरफ़ ले गयी। अब तो मॉल और मल्टीप्लेक्स में न वे ईरानी होटेल बचे, न 9 बजे वाले सस्ते शोज़। उनके बिना यह मुम्बई हमें मुम्बई नहीं लगती- हमारी मुम्बई तो वहीं कहीं खो गयी। और अब क्या कहने की ज़रूरत है कि इसके केंद्र में कर्त्ता बनकर बैठे थे दिलीप कुमार। उन आरम्भिक दिनों में उनकी फ़िल्में न मिलतीं, तो इस विशाल कला-संसार में हमारा आना ही न होता। होता भी, तो ऐसा न होता… और ऐसा तमाम लोगों के साथ हुआ होगा, जिनकी रुचि फ़िल्म-कला में जगायी होगी दिलीप कुमार के अभिनय ने। यहीं कह दूँ कि ‘पैग़ाम’ के इसी किरदार का और प्रौढ़ व विश्वस्त रूप दिलीप कुमार के अंतिम दौर की फ़िल्म ‘मज़दूर’ में अधिक खुलता है, जो उनके पात्रत्व की प्रौढ़ उम्र के समानांतर होने से खूब खिलता भी है।
ऐसा पागल-दीवाना दूसरा न देखा
उल्लेख्य है कि दिलीप कुमार के अभिनय का असर ही ऐसा था- हमारी पीढ़ी तक तो था। या अब भी हो, हमें मालूम नहीं। लेकिन तब के असर के उदाहरण दे सकता हूँ। बेलवलकर ने अपनी बदली थाने करा ली- अपने घर के पास। हम तीन रह गये। राजकपूर का दीवाना शानभाग सबकी मिमिक्री करता था, लेकिन दिलीप कुमार की मिमिक्री के प्रस्ताव पर अपने कान पर हाथ रख लेता-‘ना बाबा, उसकी नहीं कर सकता… बड़ा कलाकर है वो’। लगे हाथों यह कि दिलीप कुमार भी मिमिक्री करते थे, लेकिन जनता के बीच नहीं, घर में सायराबानो के सामने- हेलेन तक की मिमिक्री करने के उल्लेख मिलते हैं। जैसे करीना आइटम सॉंग करती है घर में सिर्फ़ अपने सैफ़ के लिए। लेकिन फ़िल्मों में ऐसा कई बार करते हुए देख सकते हैं- याद कीजिए ‘राम श्याम’ में काग़ज़ात पर दस्तख़त कराने आये पारसी किरदार के बोलने की नक़ल तुरत की तुरत करते हुए- ‘साहब, हम आटा टो है, मगर साइन नईं कड़ता’। ख़ैर, खालसा हॉस्टल में मिला प्रतापगढ़ का रामचंद्र पांडेय, जो दिलीप कुमार की तरह के कपड़े पहनता, उन्हीं की तरह के बाल रखता, वैसे ही चलता-बोलता… और यह सब गम्भीरता पूर्वक करता। चिढ़ाने-उड़ाने की रौ में उसका नाम दिलीप कुमार पड़ा था, लेकिन इस पर वह गर्वान्वित होता। मिल में ड़ाइंग सुपरवाइज़र था और छात्रावास में रहने के लिए बी.ए. में दाखला ले रखा था। तब रहने का यह भी एक रास्ता था। खालसा से पढ़ाए पूरी हो जाने पर एन.एम. (विलेपार्ले) के लॉ कॉलेज में मैंने भी प्रवेश लेकर छात्रावास हासिल करने की कोशिश की थी। अब तो हॉस्टल भी न रहे। सो, पांडेय का उद्देश्य पास होना था ही नहीं। सब उससे पूछते- तुम्हारी योजना पंचवर्षीय है या सप्तवर्षीय? और ऐसा बंदा दिलीप कुमार की फ़िल्म लग जाये, तो अपनी ड्यूटी के हिसाब से पूरे सप्ताह का टिकट एक ही दिन खरीद लेता था। ऐसा पागल-दीवाना (क्रेजी) मैंने दूसरा न देखा। (जारी)