बी.पी. श्रीवास्तव ।

जो लोग अपनी गलतियों से सबक नहीं सीखते हैं, वे उन ही गलतियों को बार बार दोहराते हैं- यह एक बहुत पुरानी कहावत है जिसका भारत के इतिहास से चोली दमन का साथ रहा है। ऐसी ही एक गलती भारत के राजनेताओं ने की थी और आज तक करते आ रहे हैं। वह गलती है, ‘मुस्लिम केंद्रित राजनीति’, जिससे देश को पर्याप्त हानि हो चुकी है और अब भी हो रही है। इसी से जुड़ी एक गलती थी- नेहरू और जिन्ना के बीच मुस्लिम नेतृत्व की होड़, जो ले गयी थी भारत को एक कदम और आगे विभाजन की ओर। ऐसा नहीं कि केवल वही एक गलती देश के विभाजन का कारण बनी। गलतियां अनेक थीं। और उन सब पर भी चर्चा आवश्यक है ताकि आज की पीढ़ी अपने इतिहास से सबक ले सके। यह चर्चा विस्तार से आगे कभी करेंगे। यहां हम ‘नेहरू और जिन्ना के बीच मुस्लिम नेतृत्व की होड़’ को लेकर तथ्यों पर आधारित चर्चा करते हैं।


 

अपने समय के दो महत्वपूर्ण व्यक्तित्व

भारत के विभाजन और स्वतन्त्रता के पहले के निर्णायक समय में जिन दो नेताओं की बड़ी भूमिका रही वे थे जवाहरलाल नेहरू और मुहम्मद अली जिन्ना। दोनों ही इंग्लैंड में पढ़े थे और वहीं से बैरिस्टर बन कर आए थे। दोनों ही ब्रिटिश रस्मोरिवाज और राजनीति से अच्छी तरह परिचित थे और इस कारण ब्रिटिश नेताओं से बातचीत करने में पूर्ण रूप से सक्षम थे। दोनों ही नेता जनता के सामने आते समय अपने अपने पहनावे को लेकर बहुत सतर्क रहते थे। एक की जेब के ऊपर गुलाब का फूल लगा रहता था तो दूसरे के हाथ में एक आंख वाला चश्मा रहता था। दोनों ही महानुभावों को अपने अपने धर्म के सिद्धांतों और रस्म रिवाजों को नकारने में कोई हिचक नहीं थी। दोनों इस हद तक महत्त्वाकांक्षी थे कि कोई भी नंबर दो बनने को राजी नहीं था। दोनों की महत्वाकांक्षाएं पूरी भी हुईं। विभाजन के बाद, दोनों अपने अपने देश की सरकारों के मुखिया बने। हां एक कसक दोनों की बाकी रह गयी- जिन्ना का पूरे भारत के नेतृत्व का सपना और नेहरू की विभाजन के पूर्व वाले भारत के समस्त मुसलमानों के नेतृत्व की अभिलाषा।

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दोनों नेता एक दूसरे को सख्त नापसंद थे। यहां तक कि वे एक दूसरे से नफरत करते थे। नेहरू के लिए जिन्ना एक ऐसे व्यक्ति थे जो सभ्य दिमाग से रहित थे, वहीं जिन्ना को नेहरू की बातों में कोई तत्व नहीं लगता था। जिन्ना नेहरू को पीटर पैन बताते थे- एक ऐसा व्यक्ति जो न तो कभी कुछ सीखता है न भूलता है। सामान्य रूप से दोनों के बीच की समानताएं यहीं अंत हो जाना चाहिए थीं। पर उनमें एक समानता और भी थी और वह ऐसी थी जिसने भारत को बहुत क्षति पंहुचाई।

मुसलमानों का नेता बनने की होड़

दोनों नेताओं की दिली इच्छा थी कि वे भारतवर्ष के मुसलमानों के नेता माने जाएं। यहां तक कि दोनों में एक होड़ सी बन गयी थी और दोनों की वह इच्छा किसी न किसी रूप में पूरी हुई भी… जिन्ना की देश के विभाजन के पहले और नेहरू की विभाजन के बाद। जिन्ना की विभाजन के पहले तब, जब 1945-46 के चुनाव में उनकी पार्टी ने मुसलमानों के 86.6 % वोट प्राप्त किये। यहां तक कि उन्होंने केंद्र की 30 मुसलमान सीटों में से कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिलने दी। नेहरू की इच्छा भी पूरी हुई। वह हुई देश के विभाजन के बाद जब भारत के कुल 9 करोड़ मुसलमानों में से 4.3 करोड़, यानी लगभग आधे मुसलमान पाकिस्तान जाने के बजाय भारत में ही रुक गये। इसका मुख्य कारण था नेहरू के नेतृत्व वाला भारत।

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यह होड़ अब समाप्त हो गयी है। अब ना तो नेहरू हैं ना जिन्ना। देश का विभाजन भी हो चुका है। अब तो बस भावी पीढ़ी को इस बात पर विचार करते रहना है कि इस होड़ का भारत पर और भारत के मुसलमानों पर क्या प्रभाव पड़ा है।

जिन्ना कैसे बने राष्ट्रीय से साम्प्रदायिक

इसमें कोई संदेह नहीं कि जिन्ना अपने राजनीतिक जीवन के आरम्भ में हिन्दू मुस्लिम एकता के प्रतीक थे। महान स्वतंत्रता सेनानी और विचारक गोपाल कृष्ण गोखले ने उनकी प्रशंसा करते हुए कहा था कि ‘जिन्ना सांप्रदायिक पक्षपात और भेदभाव से इतना परे हैं कि आगे चलकर वह हिन्दू मुस्लिम एकता के सबसे बड़े दूत बनेंगे।’ और वह कदाचित इसी राह पर चलते भी रहते, यदि नीरद चौधरी के शब्दों में उन्हें ‘गांधीजी के रूप में एक अवरोध न मिला होता।’ इसी के फलस्वरूप जिन्ना ने, 1920 में हुए कांग्रेस के कलकत्ता और नागपुर अधिवेशनों में नीतियों को लेकर गांधीजी से करारी पछाड़ खाने के बाद कांग्रेस पार्टी से नाता तोड़ लिया था। हालांकि उसके बाद भी जिन्ना साम्प्रदायिकता की ओर नहीं गए और काफी वर्षों तक हिन्दू और मुसलमानों के बीच पुल बनने की कोशिश में लगे रहे थे। उन्होंने उस समय तक पूरी तरह से ‘मुस्लिम नेता’ का रूप धारण नहीं किया जब तक मुसलमानों के नेतृत्व को लेकर उनकी नेहरू से एक होड़ सी नहीं बन गई थी।

कांग्रेस छोड़ने से पहले जिन्ना ने अपने लिए पार्टी में जो स्थान बना लिया था, उसको देखते हुए अपने सांप्रदायिक अवतार के लिए वह दया के पात्र लगते हैं। इसे परिस्थितियां कहें या विधाता का विधान- राष्ट्र के लिए बड़ी भूमिका निभाना उनकी हार्दिक इच्छा थी… उसके विपरीत वह केवल एक धर्म विशेष के नेता बन कर रह गए। इस परिवर्तन में बहुत कुछ हाथ उस मानवीय कमजोरी का भी रहा, जो व्यक्ति को एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करने की ओर ले जाती है और एक दूसरे पर हावी होने की ओर ढकेलती है। इस बारे में लेखक निसिड हजारी ने अपनी पुस्तक ‘मिडनाइट फ्यूरीज’ में लिखा है : ‘नेहरू नहीं, जिन्ना उस समय लगते थे भारत के भाग्य विधाता।’ ऐसे ही 1917 में सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट ऑफ़ इंडिया, सर एडविन मॉन्टेगु, ने जिन्ना की योग्यता को देखते हुए अपनी डायरी में लिखा था, ‘यह बड़ी अपमानजनक बात है कि ऐसे मनुष्य को अपने देश के कार्यों में सम्मिलित होने का कोई अवसर न मिले।’

जिन्ना और हिन्दू मुस्लिम सहयोग

यद्यपि जिन्ना ने मुसलमान वंश में जन्म लिया था लेकिन वह इस बात से सचेत भी थे। यह इस बात से साबित होता है कि वह 1909 में मुसलमानों के नामांकित व्यक्ति के रूप में इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल के सदस्य चुने गये थे, पर वह हर दम हिन्दू मुस्लिम भाईचारे के पक्ष में थे और दोनों के बीच की दूरी कम करने का काम करना चाहते थे। शायद इसी विचार के कारण उन्होंने 1913 में कांग्रेस पार्टी में रहते हुए मुस्लिम लीग से नाता जोड़ लिया था। ऐसा नहीं कि जिन्ना हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच के छिपे मानसिक तनाव से परिचित नहीं थे, जो कुछ पुरानी दुखद यादों पर और कुछ आगे के डर पर आधारित थे। वह जानते थे कि मुसलमान राजाओं और मुसलमान आक्रमणकारियों के द्वारा उनके मंदिर तोड़े जाने की पुराने दिनों की कसक हिन्दुओं के हृदय में कहीं न कहीं छिपी हुई है जो उग्र होकर समय समय पर बाहर आती है। दूसरी ओर मुसलमानों को अपने भविष्य को लेकर डर है कि वे भावी प्रजातंत्र में संख्या बल के आधार पर हिन्दुओं के अधीन हो जाएंगे। जिन्ना इस डर से सहमत नहीं थे जो मुसलमानों के अंदर भरा जा रहा था। इस को लेकर उन्होंने मुसलमानों के बीच दिए गए अपने एक भाषण में कहा था कि ‘यह आप सबको भयभीत करने और उस एकता और सहयोग के मार्ग से भटकाने के लिए आप के मन में भरा जा रहा है जो जनतंत्र के लिए अत्यंत आवश्यक है।’ जिन्ना कांग्रेस पार्टी छोड़ने के बाद भा हिंदू मुस्लिम सहयोग के मार्ग से नहीं डिगे थे। यह उस लेख से विदित होता है जिसकी चर्चा प्रसिद्ध लेखक और न्यायविद एम सी छागला ने अपनी पुस्तक, ‘रोजेज इन दिसंबर’ में की है। उस समय छागला ‘डेली मिरर’ पत्रिका के विशेष सम्पादक थे और 1926 के मुस्लिम लीग सेशन को कवर कर रहे थे। उन्होंने अपने विवरण में लिखा था, ‘वहां दो विचारधारा के लोगों की लड़ाई थी। एक ओर सर अब्दुल रहीम की धार्मिक कट्टर विचारधारा वाले लोग थे और दूसरी ओर राष्ट्रवादी उदार विचारधारा वाले जिन्ना थे।’ छागला ने लिखा, ‘यदि जिन्ना बीच में न आते तो वहां जो प्रस्ताव पारित होता, वह अत्यंत साम्प्रदायिकता भरा होता।’ तात्पर्य यह कि उस समय तक के जिन्ना, मुस्लिम लीग मजमे में फिट नहीं बैठते थे।

दिल में गहरे तक चुभी नेहरू की बात

Aman Ki Asha – Remembering Quaid-e-Azam Muhammad Ali Jinnah, Pakistan and India should move towards peace

जिन्ना के लिए यह चिंता की घड़ी थी। एक तरफ वह कांग्रेस पार्टी में पूछे नहीं जा रहे थे तो दूसरी तरफ राष्ट्रवादी और हिन्दू मुस्लिम सहयोग के आदर्शों के कारण मुस्लिम लीग की विचारधारा से उनकी पटरी नहीं बैठ रही थी। भारतीय राजनीतिक वातावरण से निराश और खिन्न होकर जिन्ना ने लंदन में रहने और वकालत करने का निर्णय लिया। वह 1931 से 1934 तक लंदन में रहे। संभवत: वह वहां आगे भी रहते अगर उनका हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स में नामांकन हो गया होता… या फिर लंदन हनीमून मनाने आए उनके पूर्व शिष्य लियाकत अली खान ने उनको भारत लौटकर मुस्लिम लीग का नेतृत्व करने के लिए राजी न कर लिया होता। जिन्ना के भारत लौटने का एक और कारण भी बताया जाता है जो नेहरू से जुड़ा है। चर्चा थी कि नेहरू ने एक डिनर पार्टी में बातों बातों में किसी पत्रकार से कह दिया था कि जिन्ना अब कोई मायने नहीं रखते हैं। यह बात उस पत्रकार ने जब जिन्ना को बताई, तो वह आग बबूला हो गए। इस बात का जिन्ना पर क्या प्रभाव पड़ा उसे लेखिका अलेक्स तुन्जेलमेन ने अपनी पुस्तक ‘इंडिया समर’ में प्रभावशाली ढंग से बताया है। वह लिखती हैं, ‘यह बात सुनकर जिन्ना आपे से बाहर हो गए और उन्होंने तुरंत भारत लौटने के लिए अपना बिस्तर बांध लिया। जिन्ना ने नेहरू को यह दिखाने की ठान ली कि वह क्या कर सकते हैं… और इसी इरादे से उन्होंने मुस्लिम लीग में जान फंूकने का बीड़ा उठा लिया। भारत लौटकर जिन्ना ने ऐसा ही किया। मुस्लिम लीग पार्टी- जो उस समय तक कुछ बिखरे हुए सनकी लोगों का समूह बन कर रह गयी थी- उसे उन्होंने देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनाकर ही दम लिया। और फिर बाकी बातें तो इतिहास में दर्ज हैं ही।

नेहरू की मुसलमानों का ‘मसीहा’ बनने की महत्वाकांक्षा

नेहरू की महत्वाकांक्षा थी कि वह मुसलमानों के नेता के रूप में माने जाएं। उनकी इस महत्वाकांक्षा को हवा दी थी उनकी इस वैचारिक प्रतिबद्धता ने कि भारत में कभी भी इस्लामिक राज नहीं था। अपनी पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ में वह जोर देकर कहते हैं, ‘यह कहना बिलकुल गलत और ध्यान भटकाने वाला है कि भारत में कभी मुस्लिम आक्रमण हुआ था या फिर भारत में कभी मुस्लिम राज था। इस्लाम ने कभी भारत पर आक्रमण नहीं किया। इस्लाम तो भारत में कई सदियों पहले आया था।’ नेहरू हमेशा इस बात को खारिज करते रहे कि हिंदू और मुसलमानों में धर्म को लेकर कोई टकराव है। उनके अनुसार, ‘इस टकराव का धर्म से कुछ लेना देना नहीं है। यह उन दो सोचों के बीच टकराव है जिसमें एक ओर राष्ट्रवाद, जनतंत्र और सामाजिक क्रांतकारी नीति में विश्वास रखने वाले लोग हैं और दूसरी ओर वे लोग हैं जो चाहते हैं कि सामंती शासनकाल के अवशेष जीवित रहें।’

India Muslim History on Twitter: "Jawaharlal Nehru, Mahatma Gandhi and Maulana Abul Kalam Azad together in Wardha, August 1935,… "

नेहरू के अनुसार, ‘भारत की हिन्दू मुस्लिम (या अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक) समस्या को लेकर जो सवाल उठाय जा रहे हैं, वे सब तीसरी पार्टी के (अंग्रेजी) राज से जुड़े हैं। आज वह राज समाप्त हो जाय तो बुनियादी सवाल ही समाप्त हो जाता है।’

अपनी इसी धारणा और विश्वास के चलते नेहरू मुस्लिम जनता तक पहुंचना चाहते थे और उनके नेता के रूप में दिखना चाहते थे। यह सच्चाई भी उन्हें अपने इरादे से न डिगा सकी कि सर सैय्यद अहमद खान के समय से ही अधिकतर मुसलमानों ने अपने को कांग्रेस पार्टी से अलग रखा था। कांग्रेस से मुसलमानों के इस अलगाव का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि कि उस समय के एक कांग्रेस सेशन में शामिल 1500 प्रतिनिधियों में से केवल 44 प्रतिनिधि मुस्लिम थे। नेहरू की मुस्लिम नेतृत्व करने की महत्वाकांक्षा को परवाज देने के लिए कांग्रेस ने 1937 में मुसलमानों से जुड़ने का एक अभियान चलाया था जिसे मुस्लिम लीग और विशेषकर जिन्ना ने अच्छी नजर से नहीं देखा था।

हिंदू मुस्लिम एकता के लिए नाजुक समय

Potent Memories From a Divided India - The New York Times

यह वह समय था जब स्वतंत्रता की दिशा में चल रही बातचीत के कुछ परिणाम आते दिख रहे थे। ब्रिटिश सरकार ने 1935 के इंडिया एक्ट के माध्यम से प्रांतीय स्वत्व अधिकार भारतीय हाथों में देने का निर्णय लिया था। इसकी पूर्ति के लिए सब प्रांतों में मतदान होना था। संभवत: इसी बात को ध्यान में रखकर लियाकत अली ने जिन्ना को भारत वापस लाने की पहल की थी। यह समय स्वशासन की दिशा में बहुत महत्वापूर्ण था और आवश्यक था कि सभी भारतीय मिल जुलकर कदम आगे बढ़ाते। पर क्या ऐसा हो पाया…? दुर्भाग्यवश नहीं! मुस्लिम समस्या पहले की ही तरह हावी रही और इसी के चलते आरम्भ हो गई नेहरू और जिन्ना के बीच मुस्लिम नेतृत्व की दौड़।

चुनाव परिणाम और नेहरू की दूरी बढ़ाने वाली टिप्पणियां

मुस्लिम सीटों को लेकर प्रांतीय असेम्बलियों के चुनाव के परिणाम कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों राष्ट्रीय दलों के लिए सुखद नहीं थे। क्षेत्रीय दलों ने 438 में से 261 सीटें जीत कर दोनों राष्ट्रीय दलों को कहीं पीछे छोड़ दिया था। मुस्लिम लीग कुल जमा 109 सीटें ही जीत पाई थी और वह भी अधिकतर उन प्रांतों में जहां मुसलमान अल्पसंख्या में थे। जैसे- यूनाइटेड प्राविंस में लीग ने 64 में से 29 सीटें जीती थीं। कांग्रेस का तो और बुरा हाल था। वह पूरे देश में केवल 59 सीटों पर चुनाव लड़ने की क्षमता जुटा पाई थी। उसे 29 सीटों पर जीत हासिल हुई। इतने पर भी नेहरू मुस्लिम नेतृत्व को लेकर मुस्लिम लीग से पीछे हटने को तैयार नहीं थे। यद्यपि कांग्रेस ने मुस्लिम सीटों को लेकर अच्छा प्रदर्शन नहीं किया था, पर पार्टी और नेहरू का उत्साह सातवें आसमान पर था। उसका कारण था कि कांग्रेस भारत के 11 प्रांतों में से 8 में अपनी सरकारें बनाने में सफल हुई थी। शायद उत्साह के इसी अतिरेक में नेहरू ने मुस्लिम लीग को सरकार में शामिल करने पर कोई ध्यान नहीं दिया, बल्कि उन्होंने मुस्लिम लीग के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा कर दिया था। उन्होंने यहां तक कह डाला कि ‘भारत में केवल दो पार्टियां ही माने रखती हैं जिनके बीच बातचीत होनी है। वे हैं- कांग्रेस और ब्रिटिश। शेष सब को, यदि वे राजनीति में बने रहना चाहते हैं तो, कांग्रेस की लाइन में ही खड़ा हो जाना चाहिए।’ नेहरू के इस कथन से जिन्ना का पारा चढ़ गया और उन्होंने पलट कर उत्तर दिया कि ‘वह किसी के इशारे पर चलने वाले नहीं हैं। यहां एक तीसरी पार्टी भी है और वह हैं मुसलमान।’

जिन्ना ने स्वीकार की नेहरू की चुनौती

नेहरू ने लगभग उसी समय एक बयान और दिया था जिसने जिन्ना के मन में बदले की भावना और बढ़ा दी थी। नेहरू का यह कथन 14 जनवरी 1937 के स्टेट्समैन अखबार में छपा था। नेहरू ने कहा था : ‘हम मुस्लिम जनता के संपर्क में उन लोगों से अधिक आते हैं और उनकी भूख, गरीबी और दुखदर्द के बारे में उन लोगों से अधिक जानते हैं जो बात करते हैं सीटों की, चुनाव के आंकड़ों की और परिषद में सीटों की।’ जिन्ना ने नेहरू की इस चुनौती को स्वीकार कर लिया और उसका परिणाम सब के सामने है। मुस्लिम लीग जो 1937 में एक छोटी सी पार्टी थी, वह 1945 -46 के चुनाव में एक बड़ी शक्ति बनकर उभरी और शक्तिशाली कांग्रेस को मुंह की चटा कर पकिस्तान की मांग पर मुसलमानों से मोहर लगवा दी।

Why M.A. Jinnah was a man of many contradictions

मौलाना आजाद ने अपनी पुस्तक, ‘इंडिया विंस फ्रीडम’ में इस टकराव और असहयोग पर प्रकाश डाला है जिसके चलते कांग्रेस ने यूपी में मुस्लिम लीग को सरकार में शामिल नहीं किया। उनके अनुसार यदि ऐसा किया गया होता तो नतीजा कुछ और ही होता। पुस्तक में उन्होंने लिखा, ‘यदि ऐसा किया होता तो मुस्लिम लीग का कांग्रेस में करीब करीब विलय हो गया होता। नेहरू के इस रवैये ने मुस्लिम लीग में एक नई जान फूंक दी। इतिहास के सभी जानकर जानते हैं कि यूपी से ही मुस्लिम लीग का पुनर्निर्माण हुआ। जिन्ना ने इस परिस्थिति का पूर्ण रूप से लाभ उठाया और एक आक्रामक मुहिम चलाई, जिस का नतीजा हुआ- पाकिस्तान का जन्म।’

आज सवाल यह है

नेहरू और जिन्ना में मुस्लिम नेतृत्व की होड़ और ऐसी ही कई और बातें भारत को विभाजन की ओर ढकेलती गयीं। अंतत: भारत का विभाजन हो ही गया। हम समय को पीछे नहीं घुमा सकते। लेकिन रह रहकर यह विचार तो मन में आता ही है कि काश! उस समय के नेता विशेष कर मुस्लिम समस्या को लेकर समझ बूझ से काम लेते और इस सच्चाई पर आंखें ना मूंदते कि देश में हिन्दू मुस्लिम समस्या मौजूद थी और उसी के कारण देश की स्वतंत्रता में विलम्ब हो रहा था। यदि ऐसा होता तो भारत में हिन्दू मुस्लिम नेतृत्व की होड़ न होती और फिर भारत विभाजन की और एक कदम और आगे ना बढ़ा होता। आज सवाल यह है कि हमने अपनी पूर्व की गलतियों से कुछ सबक सीखा है, या नहीं।

(लेखक आल इंडिया रेडियो के पूर्व निदेशक और ब्रॉडकास्ट इंजीनियरिंग कंसल्टेंट्स ऑफ़ इंडिया के वरिष्ठ सलाहकार हैं)


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