पहाड़ का दर्द- दर्द का पहाड़।
व्योमेश चन्द्र जुगरान।
‘‘हम डाक बंगले में नहीं, गांव के निकट पुराने लीसा भवन ठहरे। असल में बाघ जिस क्षेत्र में एक्टिव होता है, उसके आसपास रहकर आप माहौल का हिस्सा बन जाते हैं। पहले ही दिन पंजों के निशान और लोगों की जानकारी के आधार पर हमने अनुमान लगा लिया कि कातिल फीमेल है। फीमेल का सिर मेल के मुकाबले छोटा होता है। शाम करीब चार बजे कुछ महिलाओं ने उसे गोमती नदी के उस पार नीचे झाड़ियों में देखा। हम तुरंत मौके पर पहुंचे तो छतों पर खड़े लोग नीचे झाड़ियों में बाघ के होने का शोर मचा रहे थे। मैंने बाइनाक्युलर से देखा कि वो तो आराम से झाड़ियों में बैठी है। उसका थोड़ा सा सीना और सिर नजर आ रहा था। लेकिन वो बेहद चालाक निकली। जैसे ही हम नीचे उतरे, वह झाड़ियों में गुम हो गई। बाघ तो वैसे भी झाड़ियों का मास्टर होता है। अंधेरा होने लगा। हमने उसे ललचाने के लिए पुल के पास कुत्ता बांध दिया। हम अभी जीप का शीशा खोलकर चुपचाप उसमें बैठने की तैयारी कर ही रहे थे कि मुझे लगा कि वो आ रही है। हमने सहम कर जीप के पीछे पोजिशन ले ली और साथी को टार्च जलाने को कहा। देखा तो वह चुपचाप कुत्ते की तरफ बढ़ रही थी। बस, बिना अगला क्षण गंवाए मैंने फायर कर दिया जो एकदम निशाने पर लगा। वह नीचे गिर कर ढेर हो गई थी। मैंने आवाज लगाकर फारेस्ट वालों को बुला लिया। मुंह खोलकर उसके कैनाइन शिकारी दांतों को देखा तो अंदाजा सही निकला वह करीब तेरह-चौदह साल की बूढ़ी मादा थी….”
नवम्बर 2018 में कुमांऊ के बागेश्वर आदमखोर के खात्मे की यह घटना जॉय हुकिल ने एक बातचीत के दौरान बताई। हुकिल एक नामी शिकारी हैं और पौड़ी शहर में रहते हैं। वह अब तक करीब 40 आदमखोर गुलदारों को अपनी बंदूक का निशाना बना चुके हैं। हुकिल बताते हैं कि बागेश्वर शहर में रोज शाम को चार-पांच तेंदुए आ जाते हैं। यही हाल उत्तराखंड के बाकी पहाड़ी शहरों का भी है। शहरों में उन्हें आसान शिकार मिल जाता है। कुत्ते हैं, गाय हैं, सूअर हैं। उनका काम चल जाता है। जंगल में उनके लिए शिकार नहीं है।
सोचिए, जब शहरों का यह हाल है तो गांवों की क्या स्थिति होगी ! दर्जनों गांव एकदम बंजर हो चुके हैं। लोग खेती नहीं कर पा रहे हैं और मवेशी नहीं पाल रहे हैं। गौशाला में यदि मवेशी नहीं होंगे तो भूखा बाघ मनुष्य पर ही झपटेगा। कोई व्यक्ति विपरीत परिस्थितियों से लड़कर यदि गांव में ठहरना चाहता है मगर गुलदार से कैसे लड़े ! जब हम छोटे थे तो गांव और आसपास भूतों व चुड़ैलों के बारे में खूब किस्से होते थे। लोग डराते भी थे कि उधर नहीं जाना वहां भूत है। लेकिन आज इन गुलदारों ने भूतों और चुड़ैलों को खत्म कर दिया। आज लोग शहर की हद से लगी किसी सुनसान जगह पर जाने पर बाघ के नाम से कांपने लगते हैं। जब हम पढ़ते थे तो रात को अकेले मीलों चले जाते थे। कभी बाघ दिमाग में नहीं आता था। पर, अब सबसे पहली चीज ही बाघ आता है।
वन्य जीव संरक्षण के सवाल पर हुकिल कहते हैं, आप बचाएंगे उसी चीज को न जो कम हो रही हो ! आपके दिमाग में एक बात बैठ गई कि कम हो रहे हैं। जबकि सच यह है कि आपको पता नहीं है कि लैपर्ड कितने हैं। आपने कोई सेंसस नहीं कराया। साइंटिफिक तरीके से आपके पास कोई प्रूफ नहीं है। सच्चाई यह है कि इनकी संख्या बेतहाशा बढ़ गई है। अगर आपने बचाने हैं तो क्या इनके खाने का इंतजाम नहीं करोगे! उसने तो मांस ही खाना है, घास तो खानी है नहीं। उसके पास कोई ऑप्शन भी नहीं है। हमें बाघ और गुलदार को अलग-अलग देखना पड़ेगा। दोनों में फर्क करना पड़ेगा और अलग-अलग पॉलिसी बनानी पड़ेगी। गुलदार तो कुत्ते-बिल्लियों की तरह बढ़ रहे हैं। अखबारों में रोज गुलदारों के हमले की खबरें हैं।
हुकिल की बातचीत से साफ है कि गढ़वाल-कुमांऊ के गांवों में जंगली जानवरों और आदमी के बीच इस समय संघर्ष चरम पर है और सरकारें बाघ संरक्षण के आगे किसी किस्म का समझौता करने को तैयार नहीं हैं। पिछले सात साल में पौड़ी जिले के करीब 186 गांव पूरी तरह खाली हो चुके हैं। इन सालों के दौरान चार दर्जन से अधिक लोग गुलदारों का निवाला बन चुके हैं। जंगली सूअर, बंदर, भालू और तेंदुओं के आतंक ने गांवों का जीवन नर्क बना दिया है। कई गांवों में खेती बंजर हो चुकी है।
हाल में पौड़ी जिले में रिखणीखाल और धूमाकोट तहसीलों के अनेक गांवों में सक्रिय आदमखोर बाघ के कारण जिला प्रशासन को 28 गांवों में रात्रिकालीन कर्फ्यू लागू करना पड़ा है। बाघ दो लोगों का शिकार कर चुका है। प्रशासन केजिंग और ड्रोनिंग की मदद से आदमखोर की शिनाख्त में लगा है, मगर अभी तक सफलता हाथ नहीं लगी है। खौफ के मारे लोगों की सांसे अटकी हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)