प्रदीप सिंह ।
बहुत पुरानी कहावत है- ‘पिता पर पूत, जात पर घोड़ा। नहीं ज्यादा, तो थोड़ा थोड़ा।‘ बात अगर कांग्रेस नेता राहुल गांधी की हो तो ये थोड़ा-थोड़ा ज्यादा-ज्यादा हो जाता है। जवाह लाल नेहरू और इंदिरा गांधी के पूरे राजनीतिक जीवन में विचारों और दिशा को लेकर कभी कोई दुविधा नहीं रही। दिशा भ्रम की प्रवृत्ति पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी में थी। राहुल गांधी को यह विरासत में मिली है। अपनी राजनीतिक नासमझी से उन्होंने इसे कई गुना बड़ा कर लिया है। नतीजा यह है कि राजीव गांधी की तुलना में नुक्सान भी ज्यादा उठा रहे हैं।

कंप्यूटर गेम नहीं राजनीति

Only 15 paise reaches the needy': SC quotes Rajiv Gandhi in its Aadhaar verdict | Hindustan Times

राजीव गांधी ने शाहबानो पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलटकर और फिर अयोध्या में राम जन्म भूमि मंदिर का शिलान्यास करवाकर हिंदू-मुसलमान दोनों को एक साथ खुश करने की कोशिश की और दोनों को नाराज कर लिया। बोफोर्स पर भी उनकी इसी दुविधा ने मिस्टर क्लीन से गली गली में शोर है… के नारे तक पहुंचा दिया। पर एक अंतर है राहुल गांधी दो वर्गों को अलग अलग समय पर खुश करने की कोशिश करते हैं। उन्हें लगता है कि वे राजनीति में नहीं कम्प्यूटर पर गेम खेल रहे हैं। दूसरे गेम से पहले वाला डिलीट कर दिया तो वह खत्म हो गया। सार्वजनिक जीवन में लोगों की याददाश्त आमतौर पर कमजोर होती है लेकिन उतनी नहीं जितनी राहुल गांधी समझते हैं। चुनाव जब ऐसे राज्य में हो रहा हो जहां मुसलिम आबादी के वोट निर्णायक न हों तो वे जनेऊधारी ब्राह्मण और शिवभक्त हो जाते हैं। मंदिर-मंदिर घूमने लगते हैं। लोकसभा चुनाव के बाद से उनकी शिवभक्ति (सुसुप्तावस्था) हाइबरनेशन में चली गई है।

दो तरह के नेता

Rahul Gandhi tweets India is no longer a democratic country latest news | India News – India TV

नेता अमूमन दो तरह के होते हैं। एक जो धारा के साथ चलते हैं और दूसरे जो हानि लाभ की चिंता किए बिना धारा के विपरीत चलने का साहस दिखाते हैं। जो धारा के विपरीत चलते हैं वे ऐसा किसी बड़े उद्देश्य यानी समाज या देश के वृहत्तर हित के लिए करते हैं। अब राहुल गांधी क्या करते हैं और क्यों करते हैं यह आप खुद तय कीजिए। मैं सिर्फ कुछ तथ्य आपके सामने रखूंगा। राहुल गांधी की बात इसलिए कर रहा हूं क्योंकि कांग्रेस का मतलब वही हैं। कौन किस पद पर है इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। जैसे कुछ व्यापारी होते हैं जो सारा धंधा किसी और के नाम से करते हैं, जिससे फंसने की नौबत आए तो वे बचे रहें।

इंदिरा इज़ इंडिया

The last day of Indira Gandhi - India News

आज से छियालीस साल पहले देवकांत बरुआ कांग्रेस के अध्यक्ष हुआ करते थे। उन्होंने नारा लगाया था कि इंदिरा इज़ इंडिया, इंडिया इज़ इंदिरा। साल 1977 में इंदिरा गांधी सत्ता से बाहर हो गईं। जनता पार्टी ने इमरजेंसी की ज्यादतियों की जांच के लिए शाह कमीशन बनाया। कमीशन के सामने इंदिरा गांधी के खिलाफ गवाही देने वालों में देवकांत बरुआ भी थे। तो निष्ठा बड़ी चंचल होती है और माया की तरह ठगिनी भी। समय के साथ बदलती रहती है। राहुल गांधी के लिए कोई नहीं कहता कि राहुल ही कांग्रेस हैं और कांग्रेस ही राहुल। क्योंकि सबको मालूम है कि यही सच है। अब यह बचाने की तो जरूरत है नहीं कि सूरज पूरब से उगता है।

ऐसी लागी भक्ति की ‘लगन’…

साल 2014 में लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की ऐतिहासिक हार के बाद एक एंथनी कमेटी बनी। उसने अपनी रिपोर्ट में बहुत सी बातें कहीं जो परिवार और उनके दरबारियों के अलावा किसी को मालूम नहीं। पर एक बात बाहर निकल गई कि कांग्रेस की छवि हिंदू विरोधी और मुसलिम परस्त पार्टी की बन गई है। इस चुनाव में पहली बार भाजपा को लोकसभा में स्पष्ट बहुमत मिला। तब से देश की राजनीति वाम से दक्षिण मार्गी हो गई है। तीन चार साल उस रिपोर्ट पर सोने के बाद कांग्रेस यानी राहुल गांधी ने तय किया कि धारा के साथ बहना ठीक है। तो वे शिवभक्त हो गए। देश में मंदिर दर्शन नाकाफी लगा तो कैलाश मानसरोवर की यात्रा कर आए। वहां शंकर भगवान से उनकी पता नहीं क्या बात हुई कि धीरे धीरे शिव भक्ति उन्हें निरर्थक लगने लगी। कोई शंका रही भी हो तो 2019 के लोकसभा चुनाव के नतीजे ने खत्म कर दी। ऐसी शिवभक्ति किस काम की जो अमेठी तक हरा दे।

असम, बंगाल में उतार रहे केरल का कर्ज

Buddhadeb-Rahul rally, a 'historic' moment for Bengal | Business Standard News

लोकसभा चुनाव में ही केरल के वायनाड में मुसलिम मतों ने उन्हें लोकसभा में पहुंचा दिया। अब शायद उसका कर्ज उतार रहे हैं। वायनाड में उनका चुनाव एक तरह से इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग ने लड़ा। वैसे लीग से कांग्रेस का पुराना नाता है। पर उन्हें लगा इतने से बात नहीं बनेगी। सो असम में इत्र व्यापारी बदरुद्दीन अजमल की ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट से गठबंधन कर लिया। असम के दिवंगत कांग्रेस नेता और पंद्रह साल मुख्यमंत्री रहे तरुण गोगोई ने अपने जीते जी ऐसा नहीं होने दिया। पर अब राहुल गांधी को कौन रोके। उनको रोकने का मतलब कांग्रेस को रोकना है। तो सब चुप। पर वे इससे भी संतुष्ट नहीं हुए। पश्चिम बंगाल में एक दरगाह फुरफुरा शरीफ के मौलवी की नई नवेली पार्टी से गठबंधन कर लिया। गठबंधन तो सीपीएम ने भी किया है। पर उनका एक मकसद है। उन्हें ममता को हराना है। राहुल किसे हराना चाहते हैं? ममता को या भाजपा को?

मौजूदा सूरत-ए-हाल

अब आप जरा मौजूदा राजनीतिक माहौल पर नजर डालिए। बंगाल में मुसलमानों की सबसे बड़ी हितैषी ममता बनर्जी चुनावी सभा के मंच से चंडी पाठ कर रही हैं। अपने को ब्राह्मण बता रही हैं। उधर तमिलनाडु में धर्म को न मानने वाली पार्टी द्रमुक के मुखिया एमके स्टालिन पूरी दुनिया को बता रहे हैं कि द्रमुक हिंदू विरोधी नहीं है। उनकी पत्नी प्रैक्टिसिंग हिंदू हैं। तमिलनाडु का कोई ऐसा मंदिर नहीं है जिसका दर्शन उनकी पत्नी ने न किया हो। उन्होंने कहा कि उनके नब्बे फीसदी कार्यकर्ता भी हिंदू हैं और विभूति लगाते हैं। क्या आपने करुणानिधि को ऐसा बयान देते हुए कभी सुना था।
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पहुंचेंगे कहां मालूम नहीं…

तो राहुल गांधी धारा के विपरीत खड़े हैं यह तो दिखाई दे रहा है। पर किसका हित साधने के लिए? समाज और देश का हित तो उनका लक्ष्य नहीं दिखता। पर क्या पार्टी का हित सधेगा?  राहुल की हालत फिल्म ‘बहू बेगम’ में साहिर लुधियानवी के गीत की तरह है- ‘निकले थे कहां जाने के लिए, पहुंचेंगे कहां मालूम नहीं। अब अपने भटकते कदमों को, मंजिल का निशां मालूम नहीं।‘ राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर ने ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में लिखा है कि ‘आदमी कमजोर पहले होता है, पराजय उसकी बाद को होती है।‘ हालांकि उन्होंने यह भारत के गुलाम होने के संदर्भ में लिखी है। कांग्रेस पर यह बात खरी उतरती है। हार, कमजोर और दिशा भ्रम का शिकार कांग्रेस का प्रारब्ध बन गई है।
(सौजन्य : दैनिक जागरण)