अनिल भास्कर।
कांग्रेस और ट्विटर को अखाड़े में देख एक घिसा-पिटा मुहावरा याद आ रहा है- मीठा मीठा गप्प, कड़वा कड़वा थू। कांग्रेस का आरोप है कि ट्विटर ने राहुल गांधी समेत पार्टी के पांच हजार से ज्यादा नेताओं के अकाउंट लॉक कर दिए हैं। इस कार्रवाई से नाराज राहुल कह रहे हैं कि ट्विटर हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में हस्तक्षेप कर रहा है। विचारों की अभिव्यक्ति के अधिकार को कुचला जा रहा है। ट्विटर का यह कदम दिखाता है कि वह एक तटस्थ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म नहीं हैं और सरकार के दबाव में काम कर रहा है। कांग्रेस के कई अन्य नेता भी दावा कर रहे कि ट्विटर यह सब केंद्र सरकार के इशारे पर कर रहा है।


राजनीतिक एजेंडा

यहां दो बातें समझना जरूरी है। पहला यह कि ट्विटर ने जिन कारणों का हवाला देकर अकाउंट्स लॉक किये वे कितने जायज़ हैं? और दूसरा, अगर आज ट्विटर देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में हस्तक्षेप कर रहा है तो इसके लिए उसे सबसे पहले न्योता किसने था? जहां तक पहले सवाल की बात है, राहुल समेत कांग्रेस के कई नेताओं ने दिल्ली में रेप और कत्ल की शिकार हुई बच्ची के परिवारजनों की तस्वीर को ट्वीट किया था, जिससे उनकी पहचान जाहिर हो गई थी। इसके बाद ट्विटर ने राहुल गांधी और पार्टी समेत तमाम नेताओं के अकाउंट्स लॉक कर दिए। इस मामले में ट्विटर की कार्रवाई देश के किसी भी संवेदनशील जागरूक नागरिक को कानून सम्मत नज़र आएगी, क्योंकि भारतीय दंड विधान के तहत पॉक्सो एक्ट यह सुनिश्चित करता है। अब कोई कृत्य इसलिए तो विधान निरपेक्ष नहीं हो सकता कि वह किसी दल विशेष के राजनीतिक एजेंडे का हिस्सा है?

तब क्या कहा था कांग्रेस ने ट्विटर से

अब जरा यह भी गौर कर लें कि ट्विटर की ताजा कार्रवाई को देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में हस्तक्षेप बताने वाली कांग्रेस ने तब क्या स्टैंड लिया था जब केंद्र सरकार ने ट्विटर की मनमानी के खिलाफ सख्ती दिखाई थी। याद कीजिए, किसान आंदोलन को लेकर कांग्रेस के कथित टूल किट पर जब केंद्र सरकार के नुमाइंदों और भाजपा के नेताओं ने विरोध दर्ज कराए थे तो इसी कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रणदीप सुरजेवाला ने ट्विटर को चिट्ठी लिखकर कुछ केंद्रीय मंत्रियों और भाजपा नेताओं के अकाउंट्स लॉक करने का अनुरोध किया था। क्या यह अनुरोध देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में हस्तक्षेप का आमंत्रण नहीं था? क्या यह देश के अंदरूनी मामलों में किसी विदेशी कंपनी की घुसपैठ के लिए रास्ता बनाना नहीं था?

Rahul Gandhi's Twitter handle blocked: Congress | english.lokmat.com

ट्विटर के पक्ष में किसने दी थी दलील

चलिए एक और मामला याद दिला दूं। करीब दो महीने पहले जब ट्विटर ने छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह का अकाउंट लॉक कर दिया था तब इसी कांग्रेस पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष मोहन मरकम ने ट्विटर के पक्ष में खड़े होकर दलील दी थी कि जब डोनाल्ड ट्रंप का अकाउंट लॉक किया जा सकता है तो रमन सिंह की क्या बिसात? यह भी काबिले-गौर है कि जब मरकम यह बयान जारी कर रहे थे, तब फ्रांस और जर्मनी समेत विश्व के अनेक राष्ट्रों के शासकीय प्रमुख ट्रंप के मामले को लेकर ट्विटर के खिलाफ खड़े थे। उन्होंने कड़े शब्दों में कार्रवाई की अलोचना करते हुए वही चिंता जताई थी जो आज राहुल गांधी जता रहे हैं। सोशल मीडिया संचालकों की ऐसी मनमानी से किसी भी देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को होने वाले खतरे की चिंता।

हर बार देशहित के खिलाफ खड़ी दिखी

समझने की दरकार है कि जब केंद्र सरकार सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म संचालकों पर देश के कानूनों के मुताबिक चलने का दवाब बनाते हुए जरूरी सख्ती कर रही थी, तब कांग्रेस इसे अभिव्यक्ति की आज़ादी पर शिकंजा बताते हुए उन संचालकों के पाले में क्यों जा खड़ी हुई? क्या यह निरा राजनीतिक विरोध था या उसने अपने इस स्टैंड के दूरगामी परिणामों पर भी गौर किया था? चीन के साथ तनातनी में सरकार और सेना को झुठलाने की कुत्सित कोशिश हो या पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक की सफलता पर सवाल, सत्ता परिवर्तन के लिए मणिशंकर अय्यर की पाकिस्तान सरकार से इल्तिजा हो या कथित लोकतंत्ररक्षा के लिए राहुल गांधी का जो बाइडेन से आग्रह, नवजोत सिंह सिद्धू का इमरान खान को फरिश्ता करार देना हो या सैम पित्रोदा का पुलवामा हमले में पाकिस्तान को क्लीन चिट, राजीव गांधी फाउंडेशन को चीनी चंदे पर चुप्पी हो या तनातनी के बीच चीनी राजदूत से कांग्रेस प्रतिनिधिमंडल की गुपचुप मुलाकात- क्या किसी जगह आपको कांग्रेस देशहित के लिए प्रतिबद्ध नज़र आती है? देश की सबसे पुरानी पार्टी का यह दोहरापन क्या स्पष्ट नहीं करता कि सरकार विरोध की राजनीति करते हुए वह इतनी आत्मकेन्द्रित हो गई है कि विदेशी संस्था, सरकार या कम्पनी तक की गोद में जा बैठने से भी गुरेज नहीं कर पाती? सत्तालिप्सा में देशहित की सीमा लांघकर किसी बाहरी ताकत के साथ जा खड़ी होती है? इन सवालों से घिरी कांग्रेस के लिए बचाव का रास्ता अब बेहद संकरा हो चला है।
(लेखक ‘हिंदुस्तान’ के पूर्व वरिष्ठ स्थानीय संपादक हैं)