खरगे जहां पर्यवेक्षक बनाकर भेजे गए वहीं किया बंटाधार,अब कर्नाटक की बारी।
प्रदीप सिंह।
कांग्रेस का बहादुर शाह जफर कौन बनेगा? अगर यह सवाल पूछा जाए तो 10 में से आठ लोग राहुल गांधी का नाम लेंगे। लेकिन मैं आज राहुल गांधी की बात नहीं कर रहा हूं। कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं मल्लिकार्जुन खरगे। उन्होंने तीन बार कर्नाटक का मुख्यमंत्री बनने की कोशिश की,लेकिन तीनों ही बार नहीं बन पाए। पहली बार एसएम कृष्णा बन गए। दूसरी बार धर्म सिंह और तीसरी बार सिद्धारमैया बन गए। वैसे भी कांग्रेस दलितों की बात तो करती है,लेकिन एक दलित को कर्नाटक में मुख्यमंत्री नहीं बनने दिया। और याद रखिए एक और दलित बाबू जगजीवन राम को कांग्रेस ने प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया था।

कांग्रेस के बहादुर शाह जफर का मैं जिक्र क्यों कर रहा हूं,उसको समझने के लिए मल्लिकार्जुन खरगे ने पिछले सात सालों में जो किया है, खासकर पर्यवेक्षक के रूप में, उसको समझिए। 2018 में जब छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस जीत गई तो पर्यवेक्षक बनाकर खरगे को वहां भेजा गया। भूपेश बघेल के पक्ष में पलड़ा झुकाने वाले मल्लिकार्जुन खरगे ही थे।
इसके बाद उन्हें हाईकमान की ओर से पर्यवेक्षक बनाकर राजस्थान में अशोक गहलोत का इस्तीफा लेने के लिए भेजा गया। वे जयपुर पहुंचे तो अशोक गहलोत ने इस्तीफा देना तो बहुत दूर की बात है। विधायक दल की बैठक बुलाने से भी मना कर दिया। गहलोत ने विधायकों से कहा कि विधानसभा अध्यक्ष को इस्तीफा दे दो। इससे पहले भारत के इतिहास में किसी राज्य में ऐसा नहीं हुआ कि सत्तारूढ़ दल के विधायक जाकर अपने ही विधानसभा अध्यक्ष के यहां इस्तीफा सौंप आएं। इतना ही नहीं खरगे से मिलने के बजाए अशोक गहलोत शहर से बाहर चले गए। खरगे को यह जिम्मेदारी दी गई थी कि वे गहलोत को केंद्र में आने के लिए मनाएं और सचिन पायलट को राज्य का मुख्यमंत्री बना दिया जाए। अशोक गहलोत ने हाईकमान को ठेंगे पर रखते हुए उप मुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष पद से सचिन पायलट को ही हटा दिया। मुख्यमंत्री पद छोड़ने के एवज में अशोक गहलोत को कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष तक बनाने की कोशिश हुई लेकिन उन्होंने साफ मना कर दिया। वे मुख्यमंत्री का पद छोड़ने को बिल्कुल तैयार नहीं हुए और पूरा गांधी परिवार उन्हें पद से हटवा नहीं पाया।

इसके अलावा एक तीसरे राज्य पंजाब में भी मल्लिकार्जुन खरगे केंद्रीय पर्यवेक्षक बनाकर भेजे गए थे। वहां सिद्धू और कैप्टन अमरिंदर सिंह की लड़ाई चल रही थी। प्रियंका वाड्रा सिद्धू को मुख्यमंत्री बनाने के पक्ष में थीं। हालांकि राज्य के अन्य नेता ऐसा नहीं चाहते थे। अमरिंदर सिंह से इस्तीफा देने को कहा जा रहा था। इस पर मल्लिकार्जुन खरगे ने कॉम्प्रोमाइज कैंडिडेट का आइडिया सुझाते हुए कहा कि दलित समाज से आने वाले चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बना दिया जाए। इससे पूरे देश के दलितों में कांग्रेस की भारी लहर चलने लगेगी,लेकिन हो गया इसका ठीक उल्टा। देश के बाकी प्रांतों की बात तो छोड़ दीजिए पंजाब में भी कांग्रेस बुरी तरह हार गई और वहां आम आदमी पार्टी की सरकार बन गई। इसी तरह राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में भी कांग्रेस की हार हुई। तो जिन तीन राज्यों में मल्लिकार्जुन खरगे पर्यवेक्षक बनाकर भेजे गए थे,वहां से उन्होंने कांग्रेस की विदाई करवा दी।
अब चौथे राज्य कर्नाटक में उनकी भूमिका है। इस समय देश के केवल तीन राज्यों कर्नाटक,तेलंगाना और हिमाचल प्रदेश में ही कांग्रेस अकेले दम पर सत्ता में है। कनार्टक मल्लिकार्जुन खरगे का गृह प्रदेश भी है। राज्य में मुख्यमंत्री पद के लिए सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार के बीच खींचतान चल रही है। 2023 में राज्य में जब पार्टी जीती थी तब फार्मूला तय हुआ था कि ढाई साल सिद्धारमैया मुख्यमंत्री रहेंगे और ढाई साल बाद डी के शिवकुमार मुख्यमंत्री बनेंगे। अब हाईकमान की हालत यह है कि उसने जो भी वादा किया है, उसको लागू कराने की उसकी क्षमता नहीं रह गई। मल्लिकार्जुन खरगे से जब इस संकट के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि इसे हाईकमान हल करेगा। इस पर बड़ा मजाक उड़ा। लोगों ने कहा, आप पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। अगर आप हाईकमान में शामिल नहीं हैं तो और कौन है? इस पर उन्होंने साफ-साफ कहना शुरू किया कि इसे गांधी परिवार के लोग तय करेंगे। तो कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष सार्वजनिक रूप से भी इस बात को कहने में कोई शर्म महसूस नहीं करता कि राष्ट्रीय अध्यक्ष की कोई हैसियत नहीं है। वैसे भी कांग्रेस में यह कोई नई बात नहीं है।
कर्नाटक में फैसला ज्यादा दिन तक टाला नहीं जा सकता है। हालांकि लगातार उसे टालने की कोशिश गांधी परिवार और मलिकार्जुन खरगे कर रहे हैं। मल्लिकार्जुन खरगे वैसे ही बिना अधिकार वाले राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं, जैसे अधिकारविहीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह थे। कांग्रेस पार्टी में जिसके पास अधिकार है यानी राहुल गांधी,वह अध्यक्ष बनने को तैयार नहीं हैं क्योंकि अध्यक्ष बनने से जवाबदेही तय होती है। फिर सवाल पूछे जाते हैं। अभी तो सारे सवाल मल्लिकार्जुन खरगे की तरफ टाल सकते हैं। लेकिन लोग समझते हैं कि कांग्रेस पार्टी में पावर सेंटर कहां है? खरगे रबर स्टैंप हैं। वह इस्तेमाल होने को तैयार हैं तो इसलिए इस्तेमाल हो भी रहे हैं। अपने मिसमैनेजमेंट और अनिर्णय की स्थिति के कारण तीन सरकारें और मध्य प्रदेश को भी जोड़ दें तो चार सरकारें कांग्रेस पार्टी 2018 से 2025 के बीच में गंवा चुकी है और कर्नाटक भी उसी राह पर है। कर्नाटक में यथास्थिति बरकरार रहेगी इसके आसार नहीं लग रहे। क्योंकि डीके शिवकुमार इस बात के लिए तैयार नहीं हैं कि अगले ढाई साल भी सिद्धारमैया मुख्यमंत्री रहें, लेकिन वह बगावत करने को तैयार नहीं हैं। यह स्थिति बगावत से भी बुरी होने वाली है क्योंकि दो बड़े नेताओं का झगड़ा सरकार को चलने नहीं देगा। वैसे भी कर्नाटक सरकार के पास पैसा नहीं है। खुद डीके शिवकुमार बोल चुके हैं,वे राज्य के फाइनेंस मिनिस्टर भी हैं, प्रदेश की विकास योजनाओं के लिए पैसा नहीं है। सरकार और साथ में पार्टी की स्थिति खराब होती जा रही है।

अब कर्नाटक में हालत यह है कि गांधी परिवार सरकार बचाए या पार्टी। दोनों तो बचते हुए नहीं दिख रहे हैं। सवाल यह है कि पहले पार्टी में टूट होगी और सरकार गिरेगी या फिर सरकार के मतभेद के कारण 2028 के चुनाव में पार्टी गिरेगी। कर्नाटक की सरकार अगर खतरे में पड़ी तो आप मानकर चलिए कि अगला नंबर हिमाचल की सरकार का होगा और फिर तेलंगाना का। तो अब मल्लिकार्जुन खरगे अध्यक्ष रहते हुए क्या यह चौथा राज्य लूज करेंगे या कर्नाटक को बचा पाएंगे? यही सवाल है। अगर वह बचा लेते हैं तो बड़ी उपलब्धि होगी। हालांकि उनकी उसमें कोई भूमिका नहीं है। बचेगा तो सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार के समझौते से ही बचेगा। हालांकि ऐसा होता दिखता नहीं। आने वाले दिनों में पता चलेगा कि क्या होने वाला है और इसमें बहुत ज्यादा समय नहीं लगने वाला है।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अखबार’ के संपादक हैं)



