प्रदीप सिंह।
“इंदिरा इज इंडिया और इंडिया इज इंदिरा” वाली सोच इमरजेंसी में शुरू नहीं हुईथी। यह तो नेहरू जी के समय ही शुरू हो गया था। उस समय भले ही यह नारा न लगा हो। सरदार पटेल का जाना और कांग्रेस पार्टी से आंतरिक लोकतंत्र का खत्म होना दोनों एक साथ हुआ।
रफी अहमद किदवई कांग्रेस से तो अलग हो गए लेकिन नेहरू मंत्रिमंडल से उन्होंने इस्तीफा नहीं दिया था। टंडन जी ने कहा कि यह तो नहीं चलेगा। यह कैसे हो सकता है कि आप पार्टी छोड़ दें फिर भी सरकार में बने रहें। चारों तरफ से दबाव बढ़ने लगा तो नेहरू के सामने कोई रास्ता नहीं था सिवा इसके कि रफी अहमद किदवई से कहें कि आप सरकार से भी इस्तीफा दे दीजिए। उन्होंने सरकार से इस्तीफा दे दिया।तब नेहरू जी को लगा कि अब आखिरी हथौड़ा मारने का समय आ गया है। फिर से उनके समर्थक नेताओं की बैठक हुई। अब आप देखिए कि जिस तरह से पार्टी का फॉर्मल सेटअप है, वर्किंग कमेटी, एआईसीसी, इन सबको दरकिनार कर, पार्टी के चुने हुए राष्ट्रीय अध्यक्ष को दरकिनार करबैठक हो रही थी। उसमें तय हुआ कि वर्किंग कमेटी के जितने सदस्य हैं सब इस्तीफा दे दें और नेहरू जी फिर से सीडब्ल्यूसी (कांग्रेस वर्किंग कमेटी) को रीकंस्टीट्यूट करें। राष्ट्रीय कार्यकारिणी बनाने का अधिकार राष्ट्रीय अध्यक्ष का होता है लेकिन नेहरू जी के समर्थक कह रहे थे कि यह अधिकार नेहरू जी को मिल जाए। वे नई वर्किंग कमेटी बनाएं और टंडन जी अध्यक्ष बने रहें। इस तरह की बात, इस तरह का सिस्टम आपने कभी डेमोक्रेटिक पार्टी में न तो देखी होगी, न सुनी होगी।
विरोधियों को धकेला जाता था हाशिये पर
गांधी जी और सरदार पटेल के जाने के बाद इस तरह का खेल जवाहरलाल नेहरू ने शुरुआत में ही खेला था। जबकि उन्हें दुनिया में और देश में सबसे बड़ा डेमोक्रेट माना जाता है। फैसले की घड़ी आ गई थी। एक बार फिर से टंडन जी ने इस्तीफा देने की पेशकश की लेकिन उसे माना नहीं गया क्योंकि इस्तीफा नहीं लेना था, उन्हें हटाना था। उनको सबक सिखाना था, उनको बताना था कि नेहरू के विरोध का मतलब क्या होता है, उनको बताना था कि अब कांग्रेस पार्टी का मतलब जवाहरलाल नेहरू है। वे जो चाहेंगे वह होना चाहिए।जो लोग कांग्रेस के मौजूदा कल्चर की बात करते हैंउसकी शुरुआत तो जवाहरलाल नेहरू के समय ही हो गई थी।उस समय बिहार के मुख्यमंत्री थे एस. के. सिन्हा। उन्होंने प्रस्ताव रखा कि लोकसभा और विधानसभा के सारे उम्मीदवारों के चयन का अधिकार नेहरू जी को दे दिया जाए।“इंदिरा इज इंडिया और इंडिया इज इंदिरा” वाली सोच इमरजेंसी में शुरू नहीं हुईथी। यह तो नेहरू जी के समय ही शुरू हो गया था। उस समय भले ही यह नारा न लगा हो। सरदार पटेल का जाना और कांग्रेस पार्टी से आंतरिक लोकतंत्र का खत्म होना दोनों एक साथ हुआ। सरदार पटेल के देहांत के बाद कांग्रेस पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र समाप्त हो गया।
अब आप देखिए कि टंडन जी की किस-किस तरह की चीजों से नेहरू जी को ऐतराज था। टंडन जी की नीतियों से तो था ही,वे दिल्ली में एक रिफ्यूजी कॉन्फ्रेंस में चले गए थे, यह भी नेहरू जी को पसंद नहीं आया।1948 मेंराजस्थान में दंगा हुआ।तब गांधी जी जीवित थे। नेहरू जी चाहते थे कि जो दंगाई मुसलमान हैं उनको बचाया जाए। उन्होंने सरदार पटेल से कहा कि जितने मुसलमान गिरफ्तार हों उतने ही हिंदुओं को भी गिरफ्तार किया जाना चाहिए, चाहे वे दंगे में शामिल हों या न हों। सरदार पटेल ने सीधे मना कर दिया। सरदार पटेल ने इसके बाद अपना इस्तीफा गांधी जी को भेज दिया। जब नेहरू जी को यह बात पता चली तो उन्होंने भी गांधी जी के पास अपना इस्तीफा भेज दिया। सरदार पटेल ने कहा कि मैं इनके साथ काम नहीं कर सकता हूं। लेकिन इसके कुछ ही समय बाद गांधी जी की हत्या हो गई और यह मामला दब गया। सरदार पटेल को लगा कि अब इस मामले को आगे बढ़ाना ठीक नहीं होगा।
कांग्रेस का आंतरिक लोकतंत्र नेहरू ने कैसे और क्यों किया खत्म – 1
जब कांग्रेस अध्यक्ष को हटाने के लिए अड़ गए
सरदार पटेल के दहांत के बाद 1951 में 8 और 9 सितंबर को ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी की बैठक बुलाई गई। आप देखिए पैटर्न, आपको एक समान दिखाई देगा। वही तरीका इंदिरा गांधी के समय, वही तरीका राजीव गांधी के समय, वही तरीका सोनिया गांधी के समय कि कैसे अपने फैसलों को एआईसीसी की बैठक बुलाकर, वर्किंग कमेटी की बैठक बुलाकर उसके जरियेसही ठहराया जाए।जो विरोधी हैं उनको कैसे हाशिये पर धकेला जाए।एआईसीसी से पहले नेहरू जी ने अपने वरिष्ठ साथियों और कांग्रेस नेताओं के सामने यह स्पष्ट कर दिया कि या तो मैं रहूंगा या पुरुषोत्तम दास टंडन रहेंगे। फैसला आप लोगों को करना है। एआईसीसी की बैठक बुलाई गई।उसमें प्रस्ताव रखा गया और उसे पास किया गया। वहां टंडन जी से इस्तीफा लिया गया, उनका इस्तीफा मंजूर हुआ और राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गए जवाहरलाल नेहरू। प्रधानमंत्री भी और कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बने। कांग्रेसमें यह सिलसिला कोई नया नहीं है। आज जो कांग्रेस का कल्चर है उसकीनींव जवाहरलाल नेहरू की डाली हुई है जिसका भुगतान अब कांग्रेस पार्टी कर रही है। यह जो वफादारों और चाटुकारों का कल्चर है वह उसी समय से शुरू हो गया था। इसीलिए मैंने शुरू में ही कहा कि अगर सरदार पटेल सिर्फ पांचसाल और जीवित रह गए होते तो स्थिति दूसरी होती। गांधीजी के दबाव में जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री भले ही बन गए लेकिन कांग्रेस पार्टी, कांग्रेस संगठन पर जो सरदार पटेल की पकड़ थी, उनको जो लौह पुरुष की पदवी दी गई थी उनके अनुरूप थी।
अब सामने आ रहा स्याह पक्ष
कांग्रेस संगठन में वही हो सकता था जो सरदार पटेल चाहते थे। मगर सरदार पटेल ने कभी अपने हित के अनुसार संगठन में कोई फैसला नहीं लिया। कोई ऐसा फैसला नहीं लिया कि उनका अधिकार बढ़ जाए, उनका अहम संतुष्ट हो जाए या उनकी ही चले, ऐसा कोई फैसला नहीं लिया। लेकिन ठीक इसके विपरीत नेहरू जी का आचरण था। उन्होंने कांग्रेस पार्टी में इंटरनल डेमोक्रेसी को हमेशा के लिए खत्म कर दिया। डीपी मिश्रा, जो एक समय कांग्रेस के चाणक्य कहे जाते थे और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री थे, उनका एक कोटेशन है। अपनी किताब में उन्होंने एक वाक्य लिखा है-“गांधीजी मेड हीरोज आउट ऑफ क्ले, बट अंडर नेहरूज लीडरशिप दियर बीइंग टर्न्ड इनटू कॉप्सेज”। अब आप अंदाजा लगा लीजिए कि यह कांग्रेस के वरिष्ठ नेता का नेहरू जी के बारे में आकलन है जो आजादी के आंदोलन में शामिल रहे थे। किसी बीजेपी, आरएसएस, सोशलिस्ट पार्टी या अन्य विपक्षी दल के नेता का आकलन नहीं है। नेहरू जी के बारे में जो कुछ अच्छा था उसको कई गुना बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया गया और उनके राजनीतिक जीवन के जो अंधेरे पक्ष थे उनको पूरी तरह से दबा दिया गया। लेकिन सच को जितना छुपाने की कोशिश होती है, उसकी एक जिद होती है कि वह बार-बार निकल कर सामने आता है। नेहरू जी के बारे में यह जो सच है वह लगातार निकल कर सामने आ रहा है। सामने इसलिए आ रहा है कि लोग ज्यादा जागरूक हो गए हैं। लोग जानना चाहते हैं। उन्हें एक ढर्रे की तरह जिस तरह से चलना सिखाया गया था उससे हटना चाहते हैं।लीख से हटकर चलना चाहते हैं। वह जानना चाहते हैं कि दरअसल सच्चाई क्या थी।किस तरह से उस समय राजनीति चल रही थी, शासन चल रहा था।
नेहरू जी की जो अंतरराष्ट्रीय छवि है उससे बहुत उलट थे वे देश की राजनीति में। देश में जिस तरीके से उन्होंने शासन चलाया, अपने विरोधियों सेजिस तरह से निपटे, उनका जो अहंकार था कि वह जो सही समझते हैं वही सही है। उनको भारतीय संस्कृति से, सनातन से बड़ी चिढ़ थी। उसे वे पुरातनपंथी, रूढ़िवादी मानते थे। इसलिए देश में जो ये कल्चर आया सेक्युलरिज्म का, एंग्लो इंडियन का, यह सब नेहरू जी की देन है। अब यह सब बदल रहा है, देश बदल रहा है। बदलता तभी है जब जानकारी होती है। जानकारी होने के बाद ही समझ में आता है कि सही क्या है, गलत क्या है।इसका अहसास लोगों को हो रहा है। (समाप्त)