#pradepsinghप्रदीप सिंह।
शिवसेना के लोकसभा में 19 सदस्य हैं। अट्ठारह महाराष्ट्र से और एक दादर नगर हवेली से। इन 19 लोकसभा सदस्यों का बहुमत चाहता है कि शिवसेना यानी उद्धव ठाकरे राष्ट्रपति पद के लिए एनडीए की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू का समर्थन करें। क्या उद्धव ठाकरे के पास इसके अलावा कोई विकल्प है? उद्धव ठाकरे को मजबूरी में हां करना पड़ा। उन्होंने सांसदों की बैठक बुलाई थी जिसमें पांच सांसद नहीं आए। जो सांसद बैठक में आए उनमें से ज्यादातर केवल द्रौपदी मुर्मू का समर्थन ही नहीं चाहते थे- बल्कि वे चाहते थे कि उद्धव ठाकरे पहले एकनाथ शिंदे से बात करें और उसके बाद भारतीय जनता पार्टी से बात करें। तो अब संकेत क्या है?

उद्धव ठाकरे की स्थिति

उद्धव ठाकरे इस बात के लिए तो मान गए हैं कि शिवसेना का उनका गुट, उनके सांसद राष्ट्रपति पद के लिए द्रौपदी मुर्मू का समर्थन करेंगे। अब सवाल यह है कि इसको किस रूप में देखा जाए। बहुत से लोगों का कहना है कि यह इस बात का संदेश है कि उद्धव समझौता करना चाहते हैं- वे फिर से बातचीत शुरू करना चाहते हैं- एकनाथ शिंदे गुट के लोग भी शिवसैनिक ही हैं इसलिए वे हमारे साथ आ जाएं। दूसरी बात कि बीजेपी से फिर से समझौते की, गठबंधन की बात हो। लेकिन क्या उस स्थिति में उद्धव ठाकरे हैं? यह बात इसलिए पूछ रहा हूं कि एक और खबर है कि उद्धव ठाकरे के करीबी और हाल तक मंत्री रहे अनिल देसाई ने चुनाव आयोग को एक पत्र लिखा है। उन्होंने लिखा कि अगर एकनाथ शिंदे गुट पार्टी के चुनाव चिन्ह पर दावा करता है- और इस तरह का कोई आवेदन या याचिका आपके पास आती है तो- उस पर फैसला देने से पहले हमें भी सुना जाए।

सांसदों की टूट को टाला

Maharashtra Political Crisis News Highlights: Shiv Sena seeks disqualification of 12 rebel MLAs in Eknath Shinde camp | Cities News,The Indian Express

आप समझिए लड़ाई कहां जा रही है? लोग तो यहां तक कह रहे हैं कि उद्धव ठाकरे के साथ जो 16 विधायक हैं उनमें आदित्य ठाकरे के खिलाफ शिंदे गुट द्वारा नोटिस नहीं देना भी समझौते का संकेत था। ऐसा कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा। उद्धव ठाकरे ने द्रौपदी मुर्मू को समर्थन देकर एकनाथ शिंदे के दबाव में और बीजेपी के दबाव में सरेंडर किया है। उससे उन्होंने अपने संसदीय दल में हो रही टूट को सिर्फ टाला है- यह टूट रुकने वाली नहीं है- बल्कि राष्ट्रपति चुनाव के बाद कार्रवाई और तेज होने वाली है। अगर सोमवार को हुई बैठक में उद्धव ठाकरे यह नहीं कहते कि उनकी पार्टी द्रौपदी मुर्मू का समर्थन करेगी तो उसी दिन उनका संसदीय दल टूट जाता। उद्धव ठाकरे के सामने बहुत ज्यादा विकल्प नहीं हैं। उनके सामने समस्या है अपनी पार्टी को बचाने की। वहीं मंगलवार, 12 जुलाई को एकनाथ शिंदे ने जो कहा है उससे उनकी चिंता और बढ़ेगी। एकनाथ शिंदे ने कहा है कि उद्धव ठाकरे गुट के 9 से 12 विधायक इधर आ सकते हैं। यानी हो सकता है कि उद्धव ठाकरे के साथ उनके बेटे तथा एक-दो और विधायक बचें- बाकी कोई बचे ही नहीं।

अचानक उठकर चले गए राउत

ऐसी ही स्थिति शिवसेना के संसदीय दल में भी होने वाली है क्योंकि सोमवार को हुई बैठक से संजय राउत अचानक उठकर चले गए। संजय राउत अकेले थे जो राष्ट्रपति पद के लिए यशवंत सिन्हा की उम्मीदवारी का समर्थन कर रहे थे। यह जो एक गुट द्वारा बातें फैलाई जा रही हैं कि उद्धव ठाकरे की शिवसेना के एकनाथ शिंदे गुट और भारतीय जनता पार्टी के बीच फिर से बातचीत हो सकती हैं- उनके बीच कुछ बात बन सकती है… इसका कोई आधार नहीं है। उधर एनसीपी प्रमुख शरद पवार दबाव बढ़ाते जा रहे हैं। वह विधान परिषद में शिवसेना को नेता पद देने को तैयार नहीं हैं। अब पवार ने कहा है कि औरंगाबाद का नाम बदलना हमारे एजेंडे में नहीं था। हमको बताएं बिना और विश्वास में लिए बिना ऐसा किया गया है।

घबराया हुआ है ठाकरे परिवार

You've sat in lap of those who tried to finish my son: Uddhav Thackeray to Eknath Shinde camp MLAs - India News

उद्धव ठाकरे की बात तो कम से कम मुझे समझ में नहीं आती। उनको तय करना पड़ेगा कि वह शिवसेना को बचाने के लिए अपनी पुरानी विचारधारा पर लौटना चाहते हैं- या उन्होंने मुख्यमंत्री बनने के बाद धर्मनिरपेक्ष बनने की जो नई विचारधारा अपनाई- उसके साथ रहना चाहते हैं। क्या वह अभी भी महाराष्ट्र विकास अघाडी के साथ जाना चाहते हैं- या शिवसेना, जो वास्तव में थी, उसे फिर से खड़ा करने की कोशिश करना चाहते हैं। ये सारे सवाल ऐसे हैं जिनका जवाब अभी तक उद्धव ठाकरे की ओर से नहीं आया है। उद्धव ठाकरे जो बातें कह रहे हैं उन्हें राजनीतिक रूप से समझना मुश्किल हो रहा है। वह कोई स्पष्ट बात नहीं कर रहे हैं क्योंकि उनके दिमाग में स्पष्टता है ही नहीं। उनको समझ में नहीं आ रहा है कि उनको कितना ज्यादा नुकसान हो रहा है और लगातार होता जा रहा है। जिस तरह से विधायकों के बाद अब सांसदों की टूटने की खबर है- कारपोरेशन की बात मैंने पहले की ही थी। अलग-अलग शहरों के स्थानीय निकायों में टूट शुरू हो गई है। शिवसेना पर एकनाथ शिंदे का कंट्रोल या कब्जा लगातार बढ़ता जा रहा है। इससे ठाकरे परिवार घबराया हुआ है।

संकेत जो दिखाई दे रहे हैं

I'm With Hindutva, Will Not Return to Shiv Sena': Eknath Shinde

आगे भविष्य में क्या होगा मुझे नहीं मालूम लेकिन अभी जो संकेत दिखाई दे रहे हैं उससे बहुत स्पष्ट है कि शिवसेना से ठाकरे परिवार का कब्जा हटने वाला है। ठाकरे परिवार के बिना एक नई शिवसेना एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में खड़ी होगी। एकनाथ शिंदे नए शिवसेना प्रमुख बन सकते हैं इस बात की प्रबल संभावना है। इधर उद्धव ठाकरे को लेकर जो तरह-तरह की अफवाह चल रही हैं कि वह फिर से बीजेपी के साथ आ सकते हैं- तो बीजेपी उनको अब क्यों साथ लेना चाहेगी। शिवसेना में परिवारवाद को खत्म करने के लिए बीजेपी ने यह सब कुछ किया। अगर उद्धव ठाकरे के साथ ही रहना होता और शिवसेना का ही मुख्यमंत्री बनाना होता तो 2019 में ही सरकार बन गई होती। याद कीजिए महाराष्ट्र में 2014 का विधानसभा चुनाव जब बीजेपी और शिवसेना अलग-अलग चुनाव लड़ीं थीं। तब चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि इस गुंडागर्दी और परिवारवाद की राजनीति को खत्म करना है। जब उस राजनीति को खत्म करने में पार्टी कई कदम आगे बढ़ चुकी है तो वहां से वह अपने कदम पीछे क्यों खींचना चाहेगी। इसलिए दूर दूर तक ऐसी कोई संभावना नहीं दिखाई देती कि उद्धव ठाकरे और बीजेपी के बीच समझौते की कहीं कोई गुंजाइश है।

और कठिन होती जा रही राह

एकनाथ शिंदे अब आजादी महसूस कर रहे हैं। इससे पहले एक परिवार के दबाव में, लिहाज में वह डरे हुए से थे। बल्कि डरे हुए से ज्यादा कहिए कि वह अपने संस्कारों और संस्कृति की वजह से लिहाज कर रहे थे। अब उसकी कोई जरूरत नहीं रह गई है। एकनाथ शिंदे और बीजेपी ने दो फैसले किए हैं। एक- आदित्य ठाकरे के खिलाफ नोटिस ना देना और दूसरा- ठाकरे परिवार के खिलाफ कोई बयानबाजी नहीं होगी। बयानबाजी न करने का यह अभिप्राय नहीं है कि समझौते का रास्ता खुला रखना है। यह फैसला इसलिए किया गया क्योंकि इस परिवार के खिलाफ बोलने के बाद इस परिवार के प्रति जो सहानुभूति की लहर आ सकती है, लोगों की सहानुभूति पैदा हो सकती है- उसका मौका भी उद्धव ठाकरे को नहीं देना चाहते। यानी उद्धव ठाकरे को विक्टिम कार्ड खेलने का कोई मौका भाजपा और एकनाथ शिंदे नहीं देना चाहते हैं। ऐसे में उद्धव ठाकरे की राह और कठिन होती जा रही है।