प्रदीप सिंह।
‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म आपने देखी होगी शायद, या कम से कम उसके बारे में पढ़ा होगा। उसका एक डायलॉग है- ‘सरकार उनकी है तो क्या हुआ सिस्टम तो हमारा है।’ मुझे लगता है कि यह बात आज के समय में सबसे ज्यादा लागू होती है अरविंद केजरीवाल पर। सरकार किसी की हो सिस्टम केजरीवाल के लिए काम कर रहा है। जिस तरह से कोशिश हुई कि केजरीवाल जमानत पर छूट जाए और उसके बाद देखिए अपने देश में कोर्ट की परिपाटी है एक बार किसी को जमानत मिल जाए तो अदालत जल्दी उसको वापस जेल भेजती नहीं, जब तक कि कोई बहुत महत्त्वपूर्ण बात ना हो। जिसे बेल मिल गई है वह बेल पर ही रहता है, मुकदमा चलता रहता है।
कितने शातिर अंदाज में यही कोशिश की जा रही थी अरविंद केजरीवाल के लिए। मंगलवार के हाई कोर्ट के जजमेंट ने बड़ा स्पष्ट कर दिया है कि ट्रायल कोर्ट का जजमेंट कितना गलतियों से भरा हुआ था। मैं कोई मोटिव इंप्यूट नहीं करना चाहता लेकिन ट्रायल कोर्ट ने जो सवाल उठाए हैं उनको देखते हुए लगता है यह पूरी तरह से बायस जजमेंट था। ट्रायल कोर्ट में दोनों पक्षों ने अपने अपने डॉक्यूमेंट, सबमिशन पेश किए थे। अदालत का यह दायित्व है कि उन पर विचार करने के बाद फिर बहस करें और दोनों पक्षों को मौका दे। उसके बाद फैसला सुनाए। जज ने खुली अदालत में कहा और अपने जजमेंट में लिखा कि हजारों पेज पढ़ना संभव नहीं है। उसके बाद जजमेंट में आगे यह भी लिखा कि दोनों पक्षों के उठाए गए मुद्दों पर विचार करने के बाद यह फैसला दिया जा रहा है। दोनों बातें सही कैसे हो सकती हैं।
दूसरी बात हाई कोर्ट ने कही कि दिल्ली हाई कोर्ट के 9 अप्रैल के जजमेंट में बेल डिनायर विंद केजरीवाल में उस समय जो तर्क दिए गए थे, हाई कोर्ट उस समय खास तौर से अरविंद केजरीवाल के खिलाफ उनकी वाईकेरियस लायबिलिटी के बारे में ईडी ने जो दस्तावेज पेश किए थे उनसे संतुष्ट था। लेकिन ट्रायल कोर्ट के जजमेंट में वाईकेरियस लायबिलिटी का जिक्र ही नहीं है। हाई कोर्ट ने सवाल उठाया कि हाई कोर्ट का एक फैसला एक मामले पर आ चुका है तो ट्रायल कोर्ट उसके खिलाफ फैसला कैसे दे सकता है। लेकिन यह हुआ। ईडी को अपना पक्ष रखने का मौका नहीं दिया गया। इसके बावजूद ट्रायल कोर्ट की जज साहिबा का कहना है कि ईडी गलत नीयत के साथ अरविंद केजरीवाल को फंसाना चाहता है। अरविंद केजरीवाल के खिलाफ उसके पास कोई सबूत नहीं है। जबकि जो सबूत दिए उसको देखने से मना कर दिया। अब आप सबूत देखे बिना इस नतीजे पर कैसे पहुंच गए कि इंफोर्समेंट डायरेक्टरेट के पास कोई सबूत नहीं है। मुझे नहीं लगता कि पिछले चालीस पचास सालों में इस तरह का जजमेंट कोई आया होगा।
मुझे लगता है कि सुप्रीम कोर्ट को इस मुद्दे को बड़ी गंभीरता से लेना चाहिए और ट्रायल कोर्ट की जज साहिबा के बारे में विचार करना चाहिए कि इनको जज रहना चाहिए या नहीं। हाई कोर्ट के जजमेंट में ट्रायल कोर्ट के बारे में जो कहा गया है केवल उन्हीं मुद्दों पर अगर विचार कीजिए तो आपको लगेगा कि कितना बड़ा षड्यंत्र चल रहा था। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि जज साहिबा उसमें शामिल थीं लेकिन उस षड्यंत्र को फलीभूत करने के लिए उन्होंने जो किया, वह कैसे हुआ।
अब षड्यंत्र की बात सुनिए कि क्या हुआ? 20 जून को ट्रायल कोर्ट ने अरविंद केजरीवाल को जमानत दे दी। फैसला देर शाम आया तो जाहिर था कि अरविंद केजरीवाल अगले दिन तिहाड़ जेल से निकल जाते। तिहाड़ जेल में फैसले की कॉपी लेकर उनका वकील जाता और उसके बाद वहां से उनकी रिहाई हो जाती। आम आदमी पार्टी ने पूरी बाजे गाजे के साथ उनकी रिहाई की तैयारी कर ली थी। एक लाख के मुचलके पर उनको जमानत दी गई थी। जब फैसला आया उस समय तक कोर्ट बंद हो चुका था। तो मुचलके का ड्राफ्ट अगले दिन सुबह ही बन सकता था। आम आदमी पार्टी का कोई कार्यकर्ता, पदाधिकारी द्वारा सबसे नजदीक बैंक की ब्रांच से ड्राफ्ट बनवाया जा सकता था और तिहाड़ जेल में पेश कर दिया जाता। उसके बाद जो है उनकी रिहाई हो जाती।
बात इतनी होती तो गनीमत थी। बात यह थी कि जज साहिबा ने कहा कि उनका फैसला उनके और उनके रीडर के अलावा किसी से शेयर नहीं किया जाएगा। परंपरा यह है कि फैसला आने के कुछ घंटे में वेबसाइट पर अपलोड कर दिया जाता है। वह फैसला वेबसाइट पर भी अपलोड नहीं किया गया। योजना के हिसाब से फैसला अगले दिन 10 बजे या उसके बाद अपलोड होना था। तो अब ईडी के पास तो फैसला ही नहीं था जिसके खिलाफ वह हाई कोर्ट जाते। फिर भी ईडी हाई कोर्ट गई और वहां ठीक यही दलील अभिषेक मनु सिंघवी ने दी कि इनको कैसे मालूम कि जजमेंट में क्या है? जब इनको जजमेंट नहीं मालूम है तो ये यहां कैसे आए। इस पर ईडी ने कहा कि हमको तो सुनने का मौका ही नहीं दिया गया, जजमेंट की कॉपी भी नहीं दी गई, तो इसलिए हमारे सामने और कोई तरीका नहीं था। जब बेल का ऑर्डर हो गया है तो उसको रोकने का एक ही तरीका है कि त्वरित सुनवाई हो, तत्काल सुनवाई हो और जब तक हाई कोर्ट इस बारे में फैसला नहीं सुनाता ट्रायल कोर्ट के बेल ऑर्डर को स्टे किया जाए।
हाई कोर्ट ने बेल ऑर्डर को स्टे कर दिया और यहीं से अरविंद केजरीवाल का खेल बिगड़ गया। अगले दिन रिहाई नहीं हो पाई। हाई कोर्ट ने उस मामले की सुनवाई की और उसके बाद जजमेंट रिजर्व कर लिया। उसके बाद अरविंद केजरीवाल के वकील चले गए सुप्रीम कोर्ट। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हमको समझ में नहीं आया कि हाई कोर्ट ने जजमेंट रिजर्व क्यों किया और कहा कि अब हम इस मामले पर सुनवाई 26 जून को करेंगे। तो 25 जून को हाई कोर्ट का फैसला आ गया। अब 26 जून को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होती लेकिन अरविन्द केजरीवाल ने अपनी याचिका वापस ले ली क्योंकि उनको सीबीआई ने पूछताछ के बाद गिरफ्तार कर लिया है और अदालत ने उन्हें तीन दिन की सीबीआई रिमांड पर भेज दिया है। अब केजरीवाल की तरफ से नयी याचिका दायर की जाएगी।
लेकिन यह जो पूरा खेल रचा गया कि अरविंद केजरीवाल को चालाकी से बेल पर बाहर निकाल लिया जाए, वह इस देश में किसी पार्टी का कोई नेता नहीं कर सकता। यह बात दावे के साथ कही जा सकती है इस तरह का खेल केजरीवाल जैसा नटवरलाल ही कर सकता है। धन्यवाद देना चाहिए, आभार मानना चाहिए हाई कोर्ट के जज का, जिन्होंने इस पूरे खेल के पीछे की मंशा को समझ लिया। उन्होंने जो कुछ भी किया कानून के मुताबिक किया। कानून के दायरे से बाहर जाकर उन्होंने कुछ नहीं किया। फंडामेंटल प्रिंसिपल है कि कोई भी निचली अदालत अपने से ऊपर की अदालत के फैसले को नहीं पलट सकती। हाई कोर्ट का फैसला इस मामले में 9 अप्रैल को आ चुका है तो उसके खिलाफ ट्रायल कोर्ट कैसे जा सकता है। यह वैसे ही है जैसे हाई कोर्ट सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दे। ऐसा संभव है क्या? ऐसा कभी नहीं हो सकता। कानूनी रूप से नहीं हो सकता, संवैधानिक रूप से नहीं हो सकता। इसलिए इस फैसले के बारे में केवल अरविंद केजरीवाल नहीं, ट्रायल कोर्ट की जज साहिबा के बारे में भी सुप्रीम कोर्ट को सुओ मोटो कॉग्निजेंस लेकर कोई ना कोई एक्शन लेना चाहिए या कम से कम स्पष्टीकरण तो मांगना ही चाहिए। खास तौर से हाई कोर्ट ने जो ऐतराज किए हैं, जो मुद्दे उठाए हैं, जो टिप्पणियां की हैं उनको लेकर कि कोई भी जज यह बात कैसे कह सकता है कि हमारे सामने जो सबमिशन है उसको पढ़ने हमारे पास समय नहीं है या हमारी रुचि नहीं है। और यह कहने के बाद भी वह फैसला दे और कहे कि सभी मुद्दों पर विचार हो चुका है।
दूसरे पक्ष को बिना सुने जो फैसला दिया ट्रायल कोर्ट ने, उसने अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों को यह षड्यंत्र रचने का एक अवसर दिया कि किसी तरह से अरविंद केजरीवाल को जेल से बाहर निकाल लिया जाए। उनको भी मालूम है उनके साथ बड़े-बड़े वकील हैं। उनको मालूम है कि भारत देश में एक बार बेल पर छूट गए तो फिर दोबारा जेल भेजना बहुत मुश्किल होता है। ट्रायल कोर्ट की सबसे हास्यास्पद बात यह है कि जज साहिबा ने अपने जजमेंट में कोट क्या किया है? आमतौर पर जो जजमेंट आते हैं उसमें अगर ट्रायल कोर्ट है तो हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट को कोट करता है। उन्होंने हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट को कोट नहीं किया। उन्होंने चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया के एक भाषण को कोट किया जिसका आशय था कि बेल नियम होना चाहिए और जेल अपवाद होना चाहिए। लेकिन उन्होंने यह नहीं कहा कि आप परिस्थिति देखे बिना, केस की मेरिट देखे बिना, यह फैसला कर दे कि बेल मिलेगी कि नहीं मिलेगी। यह हिंदुस्तान नहीं शायद दुनिया का पहला जजमेंट होगा जिसमें जज ने देश के चीफ जस्टिस के अदालत से बाहर दिए गए एक भाषण को कोट किया। उस भाषण को आधार बनाकर अपना फैसला सुनाया। यह विचित्र बात भारत में ही हो सकती है… और इस तरह का विचित्र फैसला देकर अपने पद पर बने रहना- यह उससे भी बड़ी विचित्र बात होगी। क्या सुप्रीम कोर्ट इसका कोई संज्ञान लेगा? क्या सुप्रीम कोर्ट इसके बारे में कुछ करेगा? उम्मीद करनी चाहिए कि करेगा। अगर न्याय प्रणाली में लोगों के विश्वास को कायम रखना है तो होना चाहिए। अगर इसकी परवाह नहीं है तो इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए।
कुल मिलाकर अरविंद केजरीवाल के जेल से बाहर आने के रास्ते लगभग बंद हो गए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने अरविन्द केजरीवाल को चुनाव प्रचार के लिए इंटरम बेल देते समय भी कहा था कि यह केस के मेरिट के आधार पर नहीं दिया जा रहा है, केवल लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर दिया जा रहा है। इससे अंदाजा लगा सकते हैं कि सर जी के जेल में बने रहने की पूरी संभावना है और लंबे समय तक जेल में बने रहने की पूरी संभावना है। उनका खेल पहले दिल्ली और पंजाब के मतदाता ने बिगाड़ा, अब अदालत ने बिगाड़ दिया है। अब उनका खेल लगातार बिगड़ता ही रहेगा। उनके लिए मुश्किलें बढ़ती ही रहेंगी। देखिए आगे आगे क्या होता है।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अख़बार’ के संपादक हैं)