प्रहलाद सबनानी।
प्राचीनकाल में भारत विश्व गुरु रहा है इस विषय पर अब कोई शक की गुंजाईश नहीं रही है क्योंकि अब तो पश्चिमी देशों द्वारा पूरे विश्व के प्राचीन काल के संदर्भ में की गई रिसर्च में भी यह तथ्य उभरकर सामने आ रहे हैं। भारत क्यों और कैसे विश्व गुरु के पद पर आसीन रहा है, इस संदर्भ में कहा जा रहा है कि भारत में हिंदू सनातन संस्कृति के नियमों के आधार पर भारतीय नागरिक समाज में अपने दैनंदिनी कार्य कलाप करते रहे हैं। साथ ही भारतीयों के डीएनए में अध्यात्म पाया जाता रहा है जिसके चलते वे विभिन्न क्षेत्रों में किए जाने वाले अपने कार्यों को धर्म से जोड़कर करते रहे हैं। लगभग समस्त भारतीय, काम, अर्थ एवं कर्म को भी धर्म से जोड़कर करते रहे हैं।

काम, अर्थ एवं कर्म में चूंकि तामसी प्रवृत्ति का आधिक्य बहुत आसानी से आ जाता है अतः इन कार्यों को तासमी प्रवृत्ति से बचाने के उद्देश्य से धर्म से जोड़कर इन कार्यों को सम्पन्न करने की प्रेरणा प्राप्त की जाती है। जैसे, भारतीय शास्त्रों में काम में संयम रखने की सलाह दी जाती है तथा अर्थ के अर्जन को बुरा नहीं माना गया है परंतु अर्थ का अर्जन केवल अपने स्वयं के हित के लिए करना एवं इसे समाज के हित में उपयोग नहीं करने को बुरा माना गया है। इसी प्रकार, दैनिक जीवन में किए जाने वाले कर्म भी यदि धर्म आधारित नहीं होंगे तो जिस उद्देश्य से यह मानव जीवन हमें प्राप्त हुए है, उस उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो सकेगी।

प्राचीनकाल में भारत में राजा का यह कर्तव्य होता था कि उसके राज्य में निवास कर रही प्रजा को किसी प्रकार का कष्ट नहीं हो और यदि किसी राज्य की प्रजा को किसी प्रकार का कष्ट होता था तो वह नागरिक अपने कष्ट निवारण के लिए राजा के पास पहुंच सकता था। परंतु, जैसे जैसे राज्यों का विस्तार होने लगा और राज्यों की जनसंख्या में वृद्धि होती गई तो उस राज्य में निवास कर रहे नागरिकों के कष्टों को दूर करने के लिए धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक संगठन भी आगे आने लगे एवं नागरिकों के कष्टों को दूर करने में अपनी भूमिका का निर्वहन करने लगे। समय के साथ साथ धनाडय वर्ग भी इस पावन कार्य में अपनी भूमिका निभाने लगा। फिर, और आगे के समय में एक नागरिक दूसरे नागरिक की परेशानी में एक दूसरे का साथ देने लगे। परिवार के सदस्यों के साथ पड़ौसी, मित्र एवं सह्रदयी नागरिक भी इस प्रक्रिया में अपना हाथ बंटाने लगे। इस प्रकार प्राचीन भारत में ही व्यक्ति, परिवार, पड़ौस, ग्राम, नगर, प्रांत, देश एवं पूरी धरा को ही एक दूसरे के सहयोगी के रूप में देखा जाने लगा। “वसुधैव कुटुंबकम”, “सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय”, “सर्वे भवंतु सुखिन:” का भाव भी प्राचीन भारत में इसी प्रकार जागृत हुआ है।  “व्यक्ति से समष्टि”  की ओर, की भावना केवल और केवल भारत में ही पाई जाती है।

वर्तमान काल में लगभग समस्त देशों में चूंकि समस्त व्यवस्थाएं साम्यवाद एवं पूंजीवाद के नियमों पर आधारित हैं, जिनके अनुसार, व्यक्तिवाद पर विशेष ध्यान दिया जाता है और परिवार तथा समाज कहीं पीछे छूट जाता है। केवल मुझे कष्ट है तो दुनिया में कष्ट है अन्यथा किसी और नागरिक के कष्ट पर मेरा कोई ध्यान नहीं है। जैसे यूरोपीयन देश उनके ऊपर किसी भी प्रकार की समस्या आने पर पूरे विश्व का आह्वान करते हुए पाए जाते हैं कि जैसे उनकी समस्या पूरे विश्व की समस्या है परंतु जब इसी प्रकार की समस्या किसी अन्य देश पर आती है तो यूरोपीयन देश उसे अपनी समस्या नहीं मानते हैं। यूरोपीयन देशों में पनप रही आतंकवाद की समस्या पूरे विश्व में आतंकवाद की समस्या मान ली जाती है। परंतु, भारत द्वारा झेली जा रही आतंकवाद की समस्या यूरोप के लिए आतंकवाद नहीं है। यह पश्चिमी देशों के डीएनए में है कि विकास की राह पर केवल मैं ही आगे बढ़ूँ, जबकि भारतीयों के डीएनए में है कि सबको साथ लेकर ही विकास की राह पर आगे बढ़ा जाय। यह भावना भारत में विभिन्न क्षेत्रों में कार्य कर रहे धार्मिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संगठनों में भी कूट कूट कर भरी है। इसी तर्ज पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी कार्य करता हुआ दिखाई दे रहा है। संघ के लिए राष्ट्र प्रथम है, और भारत में निवास करने वाले हम समस्त नागरिक हिंदू हैं, क्योंकि भारत में निवासरत प्रत्येक नागरिक से सनातन संस्कृति के संस्कारों के अनुपालन की अपेक्षा की जाती है। भले ही, हमारी पूजा पद्धति भिन्न भिन्न हो सकती है, परंतु संस्कार तो समान ही रहने चाहिए। इसी विचारधारा के चलते आज संघ देश के कोने कोने में पहुंचने में सफल रहा है।

संघ ने न केवल राष्ट्र को एकजुट करने का काम किया है, बल्कि प्राकृतिक आपदाओं के समय तथा उसके बाद राहत एवं पुनर्वास कार्यों में भी अपनी सक्रिय भूमिका सफलतापूर्वक निभाई है। इस वर्ष संघ अपना शताब्दी वर्ष मनाने जा रहा है परंतु संघ इसे अपनी उपलब्धि बिल्कुल नहीं मानता है बल्कि संघ के लिए तो शताब्दी वर्ष भी जैसे स्थापना वर्ष है और उसी उत्साह से अपने कार्य को विस्तार तथा सुदृढीकृत करते हुए आगे बढ़ने की बात कर रहा है। संघ का अपनी 100 वर्षों की स्थापना सम्बंधी उपलब्धि को उत्सव के रूप में मनाने का विचार नहीं है बल्कि इस उपलक्ष में संघ के स्वयंसेवकों से अपेक्षा की जा रही है कि वे आत्मचिंतन करें, संघ कार्य के लिए समाज द्वारा दिए गए समर्थन के लिए आभार प्रकट करें एवं राष्ट्र के लिए समाज को संगठित करने के लिए स्वयं को पुनः समर्पित करें। शताब्दी वर्ष में समस्त स्वयंसेवकों से अधिक सावधानी, गुणवत्ता एवं व्यापकता से कार्य करने का संकल्प लेने हेतु आग्रह किया जा रहा है।

आज संघ कामना कर रहा है कि पूरे विश्व में निवास कर रहे प्राणी शांति के साथ अपना जीवन यापन करें एवं विश्व में लड़ाई झगड़े का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। अतः हिंदू सनातन संस्कृति का पूरे विश्व में फैलाव, इस धरा पर निवास कर रहे समस्त प्राणियों के हित में है। इस संदर्भ में आज हिंदू सनातन संस्कृति को किसी भी प्रकार का प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि अब तो विकसित देशों द्वारा की जा रही रिसर्च में भी इस प्रकार के तथ्य उभर कर सामने आ रहे हैं कि भारत का इतिहास वैभवशाली रहा है और यह हिंदू सनातन संस्कृति के अनुपालन से ही सम्भव हो सका है। अतः आज विश्व में शांति स्थापित करने के उद्देश्य से हिंदू सनातन संस्कृति को पूरे विश्व में ही फैलाने की आवश्यकता है। परम पूज्य डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार जी ने भी संघ की स्थापना के समय कहा था कि संघ कोई नया कार्य शुरू नहीं कर रहा है, बल्कि कई शताब्दियों से चले आ रहे काम को आगे बढ़ा रहा है। संघ का यह स्पष्ट मत है कि धर्म के अधिष्ठान पर आत्मविश्वास से परिपूर्ण संगठित सामूहिक जीवन के आधार पर ही हिंदू समाज अपने वैश्विक दायित्व का निर्वाह प्रभावी रूप से कर सकेगा। अतः हमारा कर्तव्य है कि सभी प्रकार के भेदों को नकारने वाला समरसता युक्त आचरण, पर्यावरण पूरक जीवनशैली पर आधारित मूल्याधिशिष्ठ परिवार, स्व बोध से ओतप्रोत और नागरिक कर्तव्यों के लिए प्रतिबद्ध समाज का निर्माण करें एवं इसके आधार पर समाज के सब प्रश्नों का समाधान, चुनौतियों का उत्तर देते हुए भौतिक समृद्धि एवं आध्यात्मिकता से परिपूर्ण समर्थ राष्ट्र्जीवन खड़ा करें। संघ का यह भी स्पष्ट मत है कि हिंदुत्व की रक्षा और उसका सशक्तिकरण ही विश्व में स्थायी शांति का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। 99 वर्षों की साधना के बाद संघ का प्रभाव देश में स्पष्ट रूप से दिख रहा है, और राष्ट्र का कायाकल्प हो रहा है। राष्ट्रीयता, स्व-पहचान, स्वदेशी भावना और हिंदू संस्कृति को ऊर्जा के स्त्रोतों के रूप में पुनर्परिभाषित करने के प्रयास तेज हो चुके हैं।

उक्त संदर्भ में संघ द्वारा नवम्बर 2025 से जनवरी 2026 के दौरान किन्हीं तीन सप्ताह तक बड़े पैमाने पर घर घर सम्पर्क अभियान की योजना बनाई गई है, इसका विषय “हर गांव, हर बस्ती, हर घर” होगा। साथ ही, संघ द्वारा समस्त मंडलों और बस्तियों में हिंदू सम्मेलन आयोजित किए जाएंगे। इन सम्मेलनों में बिना किसी भेदभाव के प्रत्येक नागरिक के जीवन में एकता और सद्भाव, राष्ट्र के विकास में सभी का योगदान और पंच परिवर्तन में प्रत्येक नागरिक की भागीदारी, का संदेश दिया जाएगा। प्रत्येक खंड एवं नगर स्तर पर सामाजिक सद्भाव बैठकें भी आयोजित की जाएंगी, इन बैठकों में एक साथ मिलकर रहने पर बल दिया जाएगा। इन बैठकों का उद्देश्य सांस्कृतिक आधार और हिंदू चरित्र को खोए बिना आधुनिक जीवन जीने का संदेश देना होगा। प्रयागराज में हाल ही में सम्पन्न महाकुम्भ में समस्त क्षेत्रों में लोग एक साथ आए थे, किसी को भी किसी नागरिक की जाति, मत, पंथ, आदि की जानकारी नहीं थी। विभिन्न नगरों के संभ्रांत नागरिकों के साथ संवाद कार्यक्रम भी आयोजित किए जाने की योजना बनाई जा रही है। इसी प्रकार, युवाओं के लिए भी राष्ट्र निर्माण, सेवा गतिविधियां एवं पंच परिवर्तन पर केंद्रित विशेष कार्यक्रम आयोजित किए जाने की योजना विभिन्न प्रांतों द्वारा तैयार की जा रही है।

आज भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तरह अन्य धार्मिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संगठनों को भी आगे आकर मां भारती को एक बार पुनः विश्व गुरु के रूप में प्रतिष्ठित करने में अपना योगदान देने की आवश्यकता है।
(लेखक भारतीय स्टेट बैंक के सेवानिवृत्त उपमहाप्रबंधक हैं)