सत्यदेव त्रिपाठी ।

गाँव से भतीजे घनश्याम का व्हाट्सएप पर आया सन्देश पढ़कर सहसा विश्वास नहीं हुआ कि हमारे (गाँव के) डीह बाबा गिर भी सकते हैं। ‘देवता अमर होते हैं…’ के मिथक ने शायद यह भुलवा दिया था कि हमने जिस पीपल के पेड़ में अपने डीह बाबा को बसा लिया था, वह नश्वर है। सन्देश के साथ तस्वीर भी थी, जिसमें ज़मीन पर गिरे हुए डीह बाबा को देखकर विश्वास करना पड़ा और जो पहला भाव मन में उभरा– ज़ुबान से हॉय बनकर निकला, वह यह कि हम याने हमारा पूरा गाँव आज हमेशा के लिए अनाथ हो गया… हम सबका रक्षक चला गया।


 

पिछले न जाने कितने सालों से समूचे गाँव के सुख-दुख, आस्था-आशा के प्रहरी- प्रेरक रहे डीह बाबा। न कोई बच्चा इनकी मनौती के बिना धरती पर गिरा, न इनके असीसों के बिना जीया-बढ़ा। सर झुका के इनसे आज्ञा लिये बिना गाँव का कोई लड़का न शादी करने जाता, न बहू लाते हुए बिना माथा नवाये घर में प्रवेश करता। न कोई बीमार बच्चा इनकी मनौती के बिना चंगा होता, न चंगा हो जाने के बाद शाम को घी का दिये जलाके अच्छे होने की सूचना दिये बिना रह पाता। न इनके थाने पूजा सुने बिना कोई परदेस गया, न इनके तले होम कराये बिना किसी परदेसी ने अपने घर में कदम रखा। कथा सुननी है ठाकुरजी की, लेकिन डीह बाबा के थाने – ऐसा प्रताप!! और ऐसे हजारों होमों-हवनों की साक्षी हैं पल्लव से घी की आहुति देती यही उँगलियां, जो आज लैपटॉप के बटनों पर चलती हुई डीह बाबा पर यह स्मृति लेख लिख रही हैं। परदेसियों के होमो-हवन की इस परम्परा को तोड़ने का शुरुआती प्रतिनिधित्त्व भी 25-30 सालों पहले मुझसे ही हुआ, जिसके लिए आज असीम ग्लानि भी हो रही है।

ग्रामीण संस्कृति की शरण-स्थली

इसी डीह बाबा की झबराई छाँह हमारी समूची ग्रामीण संस्कृति की शरण-स्थली रही… इन्हीं के तले तम्बू तानके जाने कितनी बारातें टिकीं, जिनमें घराती-बराती के सारे आचार निभे। दोनो पक्षों के पण्डितों ने आयसु पर यहीं घण्टों शास्त्रार्थ किये, तो महफिल पर दोनो पक्षों के सजे-धजे युवा बुद्धिजीवियों ने बहस-मुबाहसों के झण्डे गाडे, जिनमें ‘प्रेम से सौन्दर्य की उत्पत्ति होती है या सौन्दर्य से प्रेम की…’ जैसे तमाम विमर्शों को उपराम मिला। यहीं सबके खान-पान, स्वागत-सत्कार हुए। नाच-गान हुए, जिनमें ढोलक की थाप और नगाडेकी धनक के साथ ‘अमरसिंह राठौर’ से लेकर ‘लैला मजनूं’ तक की नौटंकियां रात-रात भर खेली गयीं तथा सारंगी-तबले-बाँसुरी की धुन पर छमकती-लरजती तवायफों ने ‘रहलू ए बबुई राति कहाँ रहलू’ जैसे ढेरों दिलकश मुजरे पेश किये, तो एक से एक नामी गवैयों ने ‘है प्रेम जगत में सार, और कुछ सार नहीं’ जैसे प्रेमरस पगे और ‘न शुभ कर्म धर्मादिधारी हूँ भगवन, तुम्हारी दया का भिखारी हूँ भगवन…’ जैसे भक्ति-दर्शन के निचोड पेश किये…। तड़तड़ाती ढोलक पर आल्हखण्ड के युद्ध गरजे, तो करताल की घनघन-झनझन पर बिरहिया थिरके-पिहके।

जाने कितनी पंचायतों के फैसलों के साक्षी ही नहीं न्यायाधीश भी बने डीह बाबा, क्योंकि इनकी कौल देकर इनके पैरों में डाल दिया गया तब का कोई मुजरिम झूठ न बोल सका और उसकी क़बूलियत एवं  ग़वाहियों के मुताबिक कितनों की जुर्म-माफ़ीव कितनों की सजाओं के वारे-न्यारे हुए। डीह बाबा के तले स्थित कूएं से ही गाँव के उत्तर की सगरो सिवान सींची गयी। इन्हीं की चहुँ ओर छितराई छाया में चैत की फसलें कटकर गिरतीं और यहीं से उठकर घर-घर गये गेहूं–भूसे ही समस्त पशु-प्राणियों के सालभर के आहार बनते। हमारे तो बचपन से किशोरावस्था के संगी-पालक रहे डीहबाबा…कितने खेल खेले इन्हीं के पैरों-हाथों, छाती-कंधों पर चढकर, झूले इन्हीं पर लटक कर,जाने कितने पाठ याद कियेइन्हीं अंगों पर सवार होकर – वैशाख-जेठ की दोपहरियों में, फागुन-चैत की शामों को…। और कातिक-अगहन (अक्तूबर-नवम्बर) की चटक चाँदनी जब पत्तियों-डालों से झरती हुई अँधेरे-उँजाले की आँखमिचौली रचती होती, हम वहीं लुक-छिप कर अपनी किशोर-वय के कुछ हवाई, कुछ जमीनी प्रेम-प्रसंगों के पट खोलते लँगोटिया यारों के बीच और चालें तय करते रक़ीबों से निपटने व पहरेदारों को चकमा देने की।

हर गाँव में डीह बाबा

यूँ तो हमारे यहाँ डीह बाबा हर गाँव में होते हैं। ‘डीह’ शब्द की अवधारणा किसी ऊंचे स्थल की है। कुछ गाँवों में ऊंची जमीन वाली सिवान (क्षेत्र) को ‘डीहवा पर का खेत’ कहा जाता है। इस ऊँचाई से शीर्ष का भान होता है – श्रेष्ठ होने का। कुछ गाँवों के डीह बाबा के स्थान को मैंने चबूतरे (जमीन से ऊँचे) के रूप में देखा है, जिसे कभी रँग-पोत के आकर्षक भी बना दिया जाता है। और वृक्षों में देवताओं के निवास की धारणा भी बहुत-बहुत प्रचलित और आम है। मनुष्य की धारणाएं कब किस बिम्ब से जुडकर क्या रूप धर लेती हैं, कहा नहीं जा सकता और यही नवनवोन्मेषशालिनी क्षमता ही मानव-सभ्यता व उसके विकास का मंत्र है। मेरे गाँव के पुरखों में कब, किसकी प्रातिभ-तरंग ने पीपल के वृक्ष में डीह देवता का निवास निहित कर दिया, हमें नहीं मालूम। इसी तरह वृक्ष की विशालता के बिम्ब ने इसे ‘डीह बाबा’ नाम देने की प्रेरणा दी होगी या नाम पाकर ही तदनुरूप विशालकाया मिली होगी… का भी हमें कुछ पता नहीं। हमने तो होश सँभालते ही इस आकार की विशालता व माहात्म्य की महानता के साथ दोनो को ‘डीह बाबा’ के रूप में ही जाना और माना। फिर ज्यों-ज्यों बड़े होते गये, बाहर आना-जाना होने लगा, तो पता चला कि ‘दृग देख जहाँ तक पाते हैं’, की सीमा में जहाँ तक जाओ, अपने डीह बाबा दिखायी पड़ते। हम चलते-चलते किसी पुल या पेड़ आदि पर पैर टिकाकर सायकल रोककर सीट पर बैठे-बैठे अपने सहयात्री मित्रों को उँगली के इशारे से सुदूर दिखाते हुए यह कहते न अघाते, बल्कि कहने की शान बघारते कि वो वहाँ देखो – हमारे डीह बाबा हैं। इस प्रकार छोटे क्षेत्रफल व बहुत कम आबादी वाले गाँव सम्मौपुर के प्रतीक व पहचान की विशालता पर सभी रश्क़ करते। आज भी यह लिखना न होता, तो सैकड़ों को एक साथ छाँव देने वाले, सैकड़ों की सपने में और जागते भी रक्षा करने वाले- अपने डीह बाबा को पीपल का वृक्ष बताने का ख्याल न आता। और आज मुम्बई न होकर गाँव में होता, तो सबके साथ डीह बाबा को धरणी पर क्षत-विक्षत-विदीर्ण पड़ा हुआ अपनी आँखों से निहार पाता, सबके साथ हिल-मिल कर इस वेदना को सहने का आधार पाता, उनमें अपने भावों को समा पाता, उन्हें अपने अंतस् में समो पाता… तो शायद लिखने की ज़रूरत न पड़ती।

डीह बाबा हमारे गाँव ‘सम्मौपुर’ (आज़मगढ) के सबसे जाग्रत देवता हैं। यूँ तो देवी-देवता कई हैं गाँव में… शंकरजी सबसे बड़े, उसके बाद काली माई, मरी माई और सत्ती माई आदि। अभी दो दशकों से एक दुर्गा माता का नया और कुछ ठीक-सा मन्दिर भी बन गया है। इन सबमें देवियों की बहुतायत स्पष्ट है और जायज़ भी, क्योंकि ज्यादा पूजा-पाठ स्त्रियां ही करती हैं। लेकिन इन सबके थाने (स्थान) पर पूजा-पाठ के समय व अवसर तय हैं| जैसे नवरात्र में दुर्गा-काली की पूजा, शिव की शिवरात्रि-श्रावण आदि। लेकिन डीह बाबा इस मायने में सदाबहार या बारहमासी हैं। अहर्निश के देवता हैं। सारी पूजाओं में जैसे सत्यनारायण की व्रत कथा है, जिसका कोई मुहूर्त्त नहीं। उसके पाठ के साक्ष्य पर ही – यस्मिन कस्मिन दिने मर्त्यो भक्तिश्रद्धा समन्वित:, जिस किसी दिन भक्त के मन में में श्रद्धा जागी, वही मुहूर्त्त। मन्दिरों में प्रतिष्ठित देवताओं के सोने-जागने का समय होता है। उसी के अनुसार मन्दिर के पट खुलते-बन्द होते हैं। इसी के अनुरूप दर्शन के समय भी नियत हैं – ख़ासकर शहरों और बड़े मन्दिरों में – जैसे शहर के बड़े लोगों से मिलने के लिए फोन पर समय लेके जाना होता है। लेकिन हमारे डीह बाबा के सोने-जागने का ऐसा कोई समय नहीं – सदा सुलभ होते हैं रात-दिन – ‘अहर्निशं सेवामहे’ – आठो पहर, सातो दिन, बारहो महीने। जब चाहें, आप डीह बाबा के दर्शन-पूजन कर सकते हैं। जो चाहे कर सकता है। उसमें जाति-पाँति का, बड़े-छोटे का भेद नहीं। अछूत जातियां खँसी (बकरे) की बलि चढाने वाली पूजा भी करतीं – बस, चबूतरे के नीचे। कोई रोक-टोक नहीं – प्रताप डीह बाबा की समदृष्टि व समरसता का! वैसे तो डीह बाबा न नवग्रह में आते, न गणेश-गोवर्धन में, न पुरखे, न इतिहास-पुरुष, पर हर जगह उन्हें सादर स्थान मिलता– ग्राम देवताभ्यो नम:। भारतीय लोक संस्कृति की इस उदारता को, उदात्तता को, लोक सुलभता को, ऐसी पावन निष्ठा को जितना श्रेय दिया जाये, उसके सामने जितना माथा नवाया जाये, कम होगा।

पेड़ में निवास करते देवता

जिस नवनवोन्मेषशालिनी प्रातिभ तरंग ने डीह बाबा को पीपल में बसाया, वैसी ही मेधा ने उनका रूप भी सिरजा। इसमें उनका शरीर हृष्ट-पुष्ट व सबल है। रंग गोरा, चौड़े ललाट पर चन्दन का टीका है। लम्बी नाक-चिबुक व तेजस्वी आँखों वाला चेहरा स्मितमान है। बाँहें भी प्रलम्ब, पर एक पाँव थोडा हल्का है, जिससे वे लँगडाकर चलते हैं और इसीलिए एक हाथ में लाठी है, जो टेक लेने के साथ ‘लाठी में गुन बहुत हैं’ को साकार करती हुई आवश्यकतानुसार दुराग्रही दुष्टों पर पड़ भी जाती है, लेकिन दूसरा हाथ आशीष के लिए सदा उठा है। वे पीताम्बर धारी हैं। फिर इतना रूप दिया, तो उन्हें एकाकी छोडे दे, इतनी भी निर्मम नहीं मेधा लोक-भक्तों की… लिहाजा उनका परिवार भी है। ससुराल को 8 मील पश्चिम सुरहन गाँव में क्यों ठहराया गया, फिर उन्हें सपत्नीक अपने गाँव में क्यों नहीं बसाया गया, का मेरे तर्क व समझ के दायरे को कोई अता-पता नहीं। लेकिन यह निराकरण अवश्य है कि दोनो में कोई झगडा नहीं है। दोनो आपसी सहमति से अपने-अपने क्षेत्र में रहते हैं। लेकिन इसी सोपत के चलते डीह बाबा सप्ताह में पाँच दिन सुरहन रहते हैं ससुराल में। यह बात भी नयी नहीं। देवताओं के ससुराल में रहने की सुदृढ परम्परा है। भगवान विष्णु स्वयं लक्ष्मी के मायके समुद्र में व प्रलयंकारी शंकरजी भी पार्वती के पितृ-साम्राज्य हिमालय में बसते हैं –‘हर: हिमालये शेते, हरि: शेते तु सागरे’। क्या इसी मिथक ने तो डीहबाबा को विवाहित ससुरालवासी नहीं बना दिया? लेकिन इससे हमारे गाँव की रक्षा व जब चाहें, तब पूजा-पाठ की स्वतंत्रता पर फर्क नहीं पड़ता और उनके परिवार-सुख के सामने सम्मौपुर वासियों को कोई ऐतराज़ नहीं, वरन आह्लाद ही है। फिर भी रवि-मंगल के जो दिन उनके यहाँ रहने के नियत हैं, ज्यादा पूजाएं तभी होती हैं।

हमारे गाँव के सभी देवता प्राय: किसी न किसी पेड़ में ही निवास करते हैं- नीम में काली माई, पीपल में शंकर बाबा, आम में मरी माई। चाहे भले सुबुद्ध पर्यावरण-विद इसे वृक्षों की सुरक्षा का उदात्तीकृत रूप मानें, लेकिन हमारे गाँव की एक अनपढ़ पगली तो अपने पागलपन में तालाब के किनारे के सारे पेड़-पौधों में घड़े-घड़े भर के रोज़ पानी देती मिलती। मरी माई का टेढा-सा आम का पेड़ उसी के किनारे था। कब का गिर गया। और एक देवी की हानि पर पूरा गाँव बे-ग़म है। मृतक का घण्ट उसी में बँधता था, नौ दिनों की शामों को आहार-पान उसी में रखा जाता, जिसे मृतक की आत्मा आकर ग्रहण करती। उसे अन्धेरे में टोहना न पडे, इसलिए दिया भी जलाया जाता, लेकिन अब बडी शांति व निर्मममता से हम किसी भी पेड़ में घण्ट बाँध आते हैं। भूत-प्रेत से पीडित हरदेव भाई ने अपने निवारण की मनौती को पूरा करते हुए मुम्बई की कमाई से ‘सत्ती मइया का चौरा’ पक्का न करा दिया होता, तो उस पेड़ के गिरने के बाद मिट्टी का चबूतरा कब का जोतकर खेत मेंमिला लिया गया होता…पता नहीं शादी के बाद कंगन तोड़ने का हवन करने दूल्हे-दूल्हन अब वहाँ जाते हैं या नहीं…!! काली माता की पुरानी नींम की जगह नयी और हरी-भरी नींम ही नहीं तैयार है, उसे निरंतर हरी-भरी रखने वाला मिट्टी का सुघर चबूतरा भी बन गया है, जो पूजा-हवन के खूब लायक है, लेकिन चैत्र के नवरात्र (शुक्ल पक्ष) में नौ दिन चलने वाला दुर्गा सप्तशती का पाठ एवं अंतिम दिन नवमी को होने वाला गाँव-मध्ये के विराट हवन का तो मेरी परवर्ती पीढी को पता भी न होगा…। गाँव के पूर्वी किनारे शंकरजी के निवास वाला पीपल तो साढे पाँच दशक पहले ही आधा गिरा और उनके सच्चे पुजारी रामरूप काका दबकर मरे, तो बाकी काट दिया गया था। उसके बाद बहुत दिनों तक वहाँ मन्दिर के नाम पर ईंटे का घेरा भर था, अब 15 सालों पहले ठीकठाक मन्दिर बन गया है और दो-चार सालों से शिवरात्रि के दिन ग्राम-भोज की नयी परम्परा शुरू हुई है तथा शिव के स्नान-पूजन, दिया-बाती का जिम्मा दो-तीन औरतें मिलकर ठीकठाक निभा रही हैं।

खाँटी किसानी वाले देवता

तीन देवता बिल्कुल गैर पारम्परिक थे– खाँटी किसानी वाले। गाँव के दक्षिण में जिस इनार (कूआं) से उस सिवान की फसलें सींची जाती थीं, उसी के किनारे स्थित पीपल को ‘इनरिया बाबा’ कहा जाता था। उन्हें प्रणाम करके ही उस सिवान में सभी की बुवाई व कटाई शुरू होती। उसी से थोडा पहले गाँव के पासनिजी तौर पर ईंटे पथाकर पकायी जाती थीं– भट्ठे बाद में शुरू हुए। उस स्थान पर पडी राख-मिट्टी के ढेर को ‘पइजावा’ नाम दिया गया था। फिर वहीं से गाँव को करैत (साँप) की ठनक (पुकार) सुनायी पड़ने लगी, जिसे ‘पइजावा बाबा’ माना गया। फिर गाँव के उत्तर की ससना नामक सिवान में भी ऐसी ही ठनक सुनी गयी। ये ठनकें बारिश के पहले सुनी जातीं। जिस साल दक्षिण वाला ठनकता, बारिश होती और जब उत्तर वाला ठनकता, सूखा पड़ता। गाँव की स्त्रियां चैत्र की कटिया के बाद दोनो को लावा-दूध चढातीं। दक्षिण वाले से बोलने व उत्तर वाले से चुप रहने की प्रार्थनायें करतीं। चकबन्दी व नहर ने गाँव की कृषि संस्कृति की सामूहिकता को खत्म किया। सबके खेत एक जगह हो गये तथा अकेले ही सिंचाई कर लेने की सुविधा ने वैयक्तिक संस्कृति पसार दी। और शंकर के वाहन बैलों को ट्रैक्टरों ने उजाह (खत्म कर) दिया। कृषि के सभी औज़ारों के यांत्रिक विकास ने ग्रामीण आस्थाओं को तोड़ डाला। इन यंत्रों के शोरगुलमें करैत की ठनक सुनने के कान ही नहीं रहे। सो, इनरिया बाबा, पइजावा बाबा का कोई पुछंता न रहा और करैत ही नहीं, लावा-दूध चढाने की संवेदनायें भी मर गयीं – किसी को किसी की ज़रूरत न रही– न आदम की, न आदम जाति की।

ऐसे हालात के बावजूद कल्पना न थी कि हमारे रहते डीह बाबा जायेंगे…उनकी उम्र की उतरानी ज़रूर थी, पर अभी अवसान का समय क़तई न था। लेकिन पिछले दिनों जाने कैसे आग लगी कि विशालकायडीह बाबा की एक अलंग (साइड) झुलस गयी। लेकिन ‘सरलिउ हाथी, तौ नौ लाख..’ की मानिन्द हम सब निश्चिंत रहे…या लापरवाह रहे। और उधर शायद ‘कोटरस्थेन वह्निना, दह्यते तद्वनं सर्वम्’ की तरह उसने भीतर ही भीतर डीह बाबा को खोखल कर दिया था। कमर की हड्डी का कैंसर बनकर आग कहीं घर कर गयी। और अपनी यांत्रिक साधन-सम्पन्नता के मद में चूर…वैयक्तिकता में भूले हमें उनकी फिक्र न रही। जिसने सबके योगक्षेम की चिंता की, उसकी सुध किसी ने न ली – घर के बड़े-बूढों की तरह। आख़िर अररा के गिरे, तो लोग चौंके – पहुँचे। पर तब तक चिर काल से चली आ रहीसंस्कृति के एक समृद्ध युग का अनपेक्षित-आकस्मिकअवसान हो चुका था और हाथ मलकर पछताने वाले भी किसी की कोई खबर अब तक नहीं आ रही…। सब अपने में व्यस्त-मस्त!

चवन्ह (खुरदरे पत्थर के बड़े-बड़े टुकडे) का चबूतरा तो पहले ही बन ही गया था।डीह देवता खुले आसमान के निवासी माने जाते हैं, इसलिए शंकरजी की तरह वहाँ मन्दिर बनने का अवकाश ही नहीं है। हाँ, चहाररदीवारी बनती है। अभी तो उनकी लकडियों को लेकर सुनाई पड़ा कि गाँव के दो सरगनाओं के बीच खींच-तान हुई, तो जो उठा रहे थे, उन्होंने घोषणा की है चहारदीवारी बनाने की…, जिसे लेकर फिलहाल ‘दिल में उम्मीद तो काफी है, यकीं कुछ कम है…’ । ऐसे में डीहबाबा का डीहत्त्व कितने दिनों तक अस्तित्त्वमान रह पायेगा…, को लेकर क्या कहा जाये!! वह इनरिया बाबा, पइजावा बाबा की गति को प्राप्त होंगे… या शंकर-काली की तरह किसी रूप में कुछ काल तक कवलित होने से बचे रहेंगे। ऐसी समृद्ध परम्परा, ऐसी भावात्मकता का ऐसा लावारिस लोप! ऐसा संशय! मन बहुत भारी हो रहा और आर्द्र भी। अनायास माथा झुक रहा… अंतिम प्रणाम डीह बाबा!

 

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