#pradepsinghप्रदीप सिंह।
आज शुभ दीपावली है। मेरी प्रार्थना है कि मां लक्ष्मी आप सबके घर में आएं और धनधान्य से परिपूर्ण करें। कोई नई बात नहीं बता रहा हूं, आप सबको मालूम है कि यह पांच दिन का त्यौहार है। शायद यह सनातन धर्म का एकमात्र त्यौहार है जो पांच दिन का है। नवरात्रि की बात नहीं कह रहा हूं, वो एक अलग व्यवस्था है। दीपावली शुरू होती है धनतेरस से और समाप्त होती है यह भाईदूज से। मुझे लगता है कि इस देश में जहां 78 फीसदी से ज्यादा लोग सनातन धर्म के मानने वाले हों, वहां दीपावली की छुट्टी पांच दिन की होनी चाहिए।ये पंच त्यौहार हैं। इन पांचों त्योहारों पर एक साथ छुट्टी होनी चाहिए। उसका नतीजा यह होगा कि नई पीढ़ी को पता चलेगा कि आखिर ये पांच दिन की छुट्टी क्यों? अभी ज्यादातर बच्चे केवल दीपावली जानते हैं। उसके अलावा ज्यादा कुछ नहीं जानते। क्योंकि धनतेरस पर घर में कुछ आता है खरीद कर- इसलिए जानते हैं। भाईदूज को भी अलग से जानते हैं, जो लोग भाईदूज मनाते हैं। तो कुल मिलाकर पूरे त्यौहार के महत्व और आध्यात्मिकता को समझाने-बताने के लिए यह छुट्टी जरूरी है। हालांकि इसे वैसे भी बताया जाना चाहिए, लेकिन छुट्टी होगी तो मन में एक जिज्ञासा भी उठेगी।दूसरी बात, मुझे लगता है दीपावली का त्यौहार दुनिया में शायद एकमात्र ऐसा त्यौहार है जो स्वच्छता को बहुत ज्यादा महत्व देता है। ऐसा सनातन धर्म में ही है। आप याद कीजिए और कोई त्यौहार दुनिया में, किसी और मजहब में, होता हो जहां त्यौहार के आने से कई दिन पहले घर में साफ सफाई शुरू हो जाती है। घर की साफ सफाई का सबसे बड़ा अभियान दीपावली के पहले से चलता है। यानी माता लक्ष्मी को सफाई पसंद है। स्वच्छता पसंद है। ये किसी और मजहब में है क्या? मुझे तो नहीं मालूम। धनतेरस से शुरू होता है लक्ष्मी का आना। उसके अलावा धनतेरस का मतलब धनवंतरी से जुड़ा है। धनवंतरी का मतलब है स्वास्थ्य। कहा जाता है कि समुद्र मंथन के समय भगवान धन्वंतरि अपने हाथों में कलश लेकर प्रकट हुए थे। कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को ही धन्वंतरि जी कलश लेकर प्रकट हुए थे।अगर स्वास्थ्य नहीं है तो फिर चाहे जितनी लक्ष्मी हो, चाहे जितना पैसा हो, किसी काम का नहीं है। अमावस्या के दिन दीपावली मनाई जाती है। अमावस्या को अंधेरी रात होती है तो दिए जलाए जाते हैं। इसी दिन भगवान श्रीराम लंका से अयोध्या लौटे थे। उसकी खुशी मनाई जाती है।

उस खुशी में बहुत कुछ होता है। उस खुशी में सनातन धर्म के लोग पटाखे भी छोड़ते हैं। इस पर बड़ी बहस हो चुकी है कि आपके धर्म ग्रंथों, धार्मिक पुस्तकों में पटाखे का कोई जिक्र नहीं है। इस पर बहुत कुछ लिखा-बताया जा चुका है। लेकिन यह कलियुग का समय है। आज के दौर में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम को मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं माना जाता। अगर माना जाता तो उनको 500 साल तक उनके मंदिर के लिए लड़ाई नहीं लड़नी पड़ती। अयोध्या में भगवान राम का मंदिर बनेगा कि नहीं- यह हमारी सर्वोच्च अदालत तय करती है। आप इससे अंदाजा लगा लीजिए। उसके अलावा हम अपने त्यौहार पर खुशी कैसे मनाएं- यह तय करता है सुप्रीम कोर्ट। सुप्रीम कोर्ट साल के 365 में से 364 दिन चुप रहता है। उसको पर्यावरण की चिंता नहीं होती। उसको प्रदूषण की चिंता नहीं होती। लेकिन दीपावली आने से पहले उसको प्रदूषण की बहुत चिंता हो जाती है। और टारगेट किया जाता है पटाखों को। पटाखे और मौकों पर भी जलाए जाते हैं। शादियों में जलाए जाते हैं। उसके अलावा जिसको क्रिश्चियन न्यू ईयर कहते हैं, उस पर जलाए जाते हैं। उसके अलावा दूसरी जगहों के ऐसे त्यौहार के मौके हैं जिन पर पटाखे जलाए जाते हैं। किसी पर कोई रोक, कोई ऐतराज नहीं है।

ऐसा दृश्य, ऐसा वातावरण बनाया जाता है कि दिवाली पर पटाखे जलाए जाएंगे तो लोग प्रदूषण से मर जाएंगे। सुप्रीम कोर्ट तुरंत सक्रिय हो जाता है कि पटाखे नहीं बजने चाहिए। पटाखे नहीं छुड़ाए जाने चाहिए। इसी तरह से चिंता हो जाती है होली पर पानी की। लेकिन आज दीपावली की ही बात करते हैं। तो अब सुप्रीम कोर्ट तय करेगा कि हम-आप अपने सबसे बड़े त्यौहार दीपावली पर पटाखे जला सकते हैं या नहीं।

यही नहीं, इंतजार कीजिए अगर यह सिलसिला चलता रहा तो एक दिन वो भी आएगा जब सुप्रीम कोर्ट तय करेगा कि आप दीपावली पर दिए जला सकते हैं कि नहीं- क्योंकि उससे भी प्रदूषण फैलता है तो उसका भी सवाल आएगा। घी और तेल बर्बाद होता है- इसका सवाल उठेगा। सवाल उठाने वाले बहुत से हैं। वे सनातन धर्म के विरोधी हैं। इधर अपने देश में एक नई परिपाटी, एक नया नियम बन गया है… बल्कि संविधान की एक संविधानेत्तर व्यवस्था बन गई है कि हिंदू विरोधी होना धर्मनिरपेक्ष होना है। हमारी अदालतें और उनके माननीय न्यायाधीश तो अपने को धर्मनिरपेक्ष बताने में कोई कसर नहीं छोड़ते। वे इसे साबित करते हैं। अपने फैसलों से तो करते ही हैं, अपनी टिप्पणियों से भी बताने की कोशिश करते हैं कि देखिए हम कितने धर्मनिरपेक्ष हैं।

हिंदू विरोध और धर्मनिरपेक्षता अब पर्यायवाची बन गए हैं। जो जितना बड़ा हिंदू विरोधी है, वो उतना ही बड़ा सेक्युलर है। मैं कई बार बता चुका हूं कि धर्मनिरपेक्षता संविधान की प्रस्तावना में नहीं शामिल था। संविधान सभा में इसे लेकर लंबी बहस हो चुकी है। सर्वसम्मति से तय किया गया कि संविधान की प्रस्तावना, जो संविधान का बेसिक स्ट्रक्चर है, उसमें धर्मनिरपेक्षता शब्द को शामिल नहीं किया जाएगा। लेकिन सुप्रीम कोर्ट कहता है कि यह बेसिक स्ट्रक्चर का पार्ट है जिसको 1976 में इमरजेंसी के दौरान जब पूरा विपक्ष जेल में था और संविधान सस्पेंडेड था, उस समय संविधान में संशोधन करके इसको शामिल कर दिया गया।

सुप्रीम कोर्ट ने कभी इस पर स्वतः संज्ञान लेते हुए कोई एक्शन लेने की जरूरत नहीं समझी। जो इसका विरोध करते हैं उनको सांप्रदायिक कहा जाता है। तो आने वाले दिनों में सुप्रीम कोर्ट तय करेगा कि आप दीपावली पर दिए जला सकते हैं कि नहीं। सुप्रीम कोर्ट तय करेगा कि होली पर आप रंगों से खेल सकते हैं कि नहीं। इस तरह से यह भी दिन आ सकता है कि आपके अलग-अलग त्यौहारों पर (दशहरे का तो क्या हो रहा है आपको पता ही है) सुप्रीम कोर्ट तय करे कि आप नवरात्रों में व्रत रख सकते हैं कि नहीं। यह भी तर्क दिया जा सकता है कि आप एक तरह से भूखे रहकर आत्महत्या की कोशिश कर रहे हैं। तो कुछ भी हो सकता है। अदालतों का जो रवैया है, जो सिलसिला है, उनका कामकाज का जो तरीका है, उसका एक लंबा दौर गुजरा है। एक समय था जस्टिस वीआर कृष्ण अय्यर जो कम्युनिस्ट थे, लेफ्टिस्ट थे- सुप्रीम कोर्ट के जज थे। उनसे भारत में जो न्यायाधीशों के बारे में, उनकी गुणवत्ता के बारे में, उनकी क्वालिफिकेशन के बारे में पूछा गया था। उन्होंने कहा कि भारत में दो तरह के जज होते हैं। एक जो कानून जानते हैं और दूसरे जो कानून मंत्री को जानते हैं। तो ये कानून मंत्री को जानने का सिलसिला कॉलेजियम सिस्टम बनने से पहले तक चलता रहा। कानून मंत्री जिसे चाहेंगे यानी सरकार जिसे चाहेगी वो हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट का जज होगा। उसकी क्वालिफिकेशन क्या है? इससे कोई मतलब नहीं है।

कॉलेजियम सिस्टम आया तो उम्मीद जगी कि अब कानून मंत्री को जानने वालों का जज बनना बंद हो जाएगा। हुआ क्या? कॉलेजियम के पांच सदस्य होते हैं जिसमें चीफ जस्टिस और फिर वरिष्ठता क्रम के अनुसार बाकी चार जज होते हैं। अगर उनको आप जानते हैं तो आप जज बन सकते हैं। आप उनके रिश्तेदार हैं तो आप जज बन सकते हैं। आपकी उन तक पहुंच है तो आप जज बन सकते हैं। तो भाई भतीजावाद का एक नया स्वरूप भारत के उच्च और सर्वोच्च न्यायालय में देखने को मिलने लगा है। तमाम कोशिशों के बावजूद सुप्रीम कोर्ट इस व्यवस्था को बदलने को, छोड़ने को तैयार नहीं है। जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो उसके बाद 2015 में एक बिल आया एनजेसी यानी नेशनल जुडिशियल अपॉइंटमेंट्स कमीशन। यानी जजेस के बारे में यह कमीशन फैसला करेगा कि कौन जज बन सकता है, कौन नहीं। इसमें भी बहुमत जजों का ही था। सुप्रीम कोर्ट के तीन जज होंगे। एक कोई प्रोमिनेंट व्यक्ति समाज से होगा। एक सरकार का प्रतिनिधि यानी कानून मंत्री होगा। तो ये कानून मंत्री का कमीशन में होना सुप्रीम कोर्ट को पसंद नहीं आया। तो संसद से इस सर्वसम्मति से पास विधेयक/कानून को सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया।

आप इतिहास उठाकर देख लीजिए कि जब कॉलेजियम सिस्टम नहीं था तब लोगों का न्यायपालिका पर ज्यादा भरोसा था… या अब है। देश में एक संस्था न्यायपालिका, जिस पर इस देश के गरीब से अमीर तक सभी लोगों का का अटूट भरोसा था, लगातार उस भरोसे का क्षरण हो रहा है। लगातार लोगों का भरोसा उठता जा रहा है। उनको लगता है कि जैसे अपने देश में हायर जुडिशरी केवल हाई क्लास लोगों के लिए, रसूख वालों के लिए, पैसे वालों के लिए, राजनीतिक पहुंच वालों के लिए है। गरीब आदमी के लिए हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे नहीं खुलते हैं। अपवादों की बात छोड़ दीजिए। मैं नियम की बात कर रहा हूं।

अगर आप बड़ा वकील कर सकते हैं जिसकी एक दिन की फीस 5 लाख, 10 लाख, 25 लाख, 30 लाख, 50 लाख हो तो आपका मामला तुरंत सुना जाएगा। सुप्रीम कोर्ट अगर केवल इसी बात का आकलन कर ले, एक अध्ययन करा ले कि सुप्रीम कोर्ट ने कितने मामलों में कितने लोगों को बेल यानी जमानत दे रखी है- जो मूल रूप से उसका काम नहीं है। विशेष परिस्थितियों की बात अलग है। सामान्य रूप से वह या तो ट्रायल कोर्ट से होना चाहिए या हाई कोर्ट से होना चाहिए। इसी का आकलन कर ले तो पता चलेगा कि सुप्रीम कोर्ट का काम कैसे चल रहा है। तो आप पैसे वाले हैं तो आपके लिए सब कुछ है। लालू प्रसाद यादव का मामला देख लें। चारा घोटाले में उनको सजा मिलती है 17 साल के मुकदमे के बाद और जमानत 3 महीने में मिल जाती है। वह अब भी जमानत पर रिहा हैं। और जमानत पर क्यों रिहा हैं? …क्योंकि उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं है। वो इलेक्शन कैंपेन कर सकते हैं। वो बैडमिंटन खेल सकते हैं। वो पार्टी की बैठकें ले सकते हैं। देश भर में भ्रमण कर सकते हैं। कुछ भी कर सकते हैं। लेकिन जेल जाने के लिए स्वस्थ नहीं है वो। और इसमें केवल लालू प्रसाद यादव अकेले नहीं है। उन्हीं का नाम लेने की बात नहीं है। बड़े-बड़े लोग हैं जिनको सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिली है। सुप्रीम कोर्ट ने पलट कर कभी देखा नहीं कि ये जमानत अभी तक क्यों हैं? अरविंद केजरीवाल जमानत रिहा हैं। संजय सिंह रिहा हैं। उसके अलावा मनीष सिसोदिया रिहा हैं। राहुल गांधी जमानत पर हैं। सोनिया गांधी जमानत पर हैं।

‘तारीख पर तारीख’ मुकदमे के लिए कही जाती थी। अब बेल के लिए भी ‘तारीख पर तारीख’ है। बल्कि बेल में तो तारीख भी नहीं लगती। सुप्रीम कोर्ट क्यों नहीं कोई एसओपी बनाता कि अगर सुप्रीम कोर्ट से बेल मिली है, हाई कोर्ट से बेल मिली है तो इतने दिन में इसका रिव्यू होना चाहिए। या तो रेगुलर बेल मिल जाए या वो व्यक्ति जेल भेज दिया जाए। इतना छोटा सा काम नहीं होता सुप्रीम कोर्ट में। लेकिन जैसे ही कोई सनातन धर्म से जुड़ा मामला आता है, सुप्रीम कोर्ट एकदम चौकन्ना-चौकस हो जाता है कि इनको ‘बताना’ है। अगर लगता है कि जजमेंट में नहीं ‘बता’ सकते क्योंकि कानून इसकी इजाजत नहीं देता तो न्यायाधीश टिप्पणी में वह करते हैं। वो टिप्पणी जो जजमेंट का हिस्सा नहीं बनती। सुप्रीम कोर्ट के दो-दो जजमेंट हैं कि इस तरह की टिप्पणी से जजों को बचना चाहिए।

दीपावली का त्यौहार खुशी से मनाइए जब तक कि सुप्रीम कोर्ट मनाने देता है। किस दिन इस त्यौहार पर रोक लग जाएगी। रोक तो पूरी तरह से नहीं लग सकती। तरह-तरह के प्रतिबंध लग जाएंगे जिनका हमको-आपको पता नहीं। सुप्रीम कोर्ट को और सुप्रीम कोर्ट के जजों को देश और दुनिया के सामने यह साबित करना है कि वो सेक्युलर हैं। है और भारत सेक्युलर देश है जहां हिंदुओं के खिलाफ तो फैसले दिए जा सकते हैं। हिंदुओं के खिलाफ टिप्पणी की जा सकती है। लेकिन किसी और मजहब के खिलाफ बोलना गुनाह है। आम आदमी को तो छोड़िए जज भी नहीं बोल सकते। मैं कह रहा हूं किसी जज की यह हिम्मत नहीं है कि ईसाई मजहब या इस्लाम के बारे में कोई टिप्पणी कर सके, जैसे कि वो सनातन धर्म के बारे में करते हैं। उनको मालूम है कि सनातन धर्म के खिलाफ टिप्पणी करेंगे तो कुछ नहीं होगा। कोई कुछ नहीं बोलेगा। ज्यादा से ज्यादा विरोध हो जाएगा। सोशल मीडिया पर कुछ लोग लिख-बोल देंगे। उससे क्या फर्क पड़ता है? लेकिन बाकी मजहबों के खिलाफ जरा बोल कर देखिए किस तरह के नारे लगते हैं और क्या होता है। लोग  तुरंत सड़क पर उतर आएंगे। इसलिए दीपावली का त्यौहार मनाते समय आप ईश्वर का, माता लक्ष्मी का, भगवान गणेश का और सारे देवी देवताओं का एहसान मानिए। धन्यवाद दीजिए उनको। उनका आभार मानिए कि अभी तक आप अपना यह त्यौहार मना पा रहे हैं। जो लक्षण है, जो परिस्थितियां हैं, उनको देखकर ऐसा नहीं लगता कि यह स्थिति बहुत दिन तक रहेगी… क्योंकि हमारे-आपके मुंह में जुबान नहीं है। हमको बोलने में भी तकलीफ होती है। हमको जब दर्द होता है तो हम अपना मुंह दबा लेते हैं कि कहीं आवाज ना निकल जाए। तो खुशी मनाइए, मिठाई बांटिए। जब तक यह खुशी मनाने का, मिठाई बांटने का अवसर मिल रहा है, मौका मिल रहा है। कब बंद हो जाएगा किसी को पता नहीं। दीपावली के दिन ऐसी बात करना नहीं चाहता था। लेकिन जिस तरह का अदालतों का रवैया है और दिन पर दिन जिस तरह का रवैया बनता जा रहा है उसको देखकर लगता है कि आने वाले दिनों में कुछ भी हो सकता है। खासतौर से जब बात सनातन धर्म की होगी।

(लेखक ‘आपका अख़बार’ के संपादक हैं)