रामनवमी (10 अप्रैल पर) विशेष
शिवचरण चौहान
राम हमारे, आपके सभी के हैं। जन-जन के मन में रमे राम हमारे आदर्श हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। राम का चरित्र अजर-अमर है। निर्बल के बल राम। भगवान राम के अमरत्व पर कभी सवाल नहीं उठाया गया। क्योंकि सत्य सदा अजर और अमर होता है। राम सत्य के स्वरूप ही थे। फिर भी कलियुग में अक्सर राम की प्रासंगिकता पर बहस चलती चलती रहती है।
बाजारवाद का अंतरराष्ट्रीय करण होने, धन पाने की अंधी दौड़, लोभ, लालच, छल, दंभ, कलह,अहंकार के कारण आज के दौर में त्याग, इंसानियत गौण होते जा रहे हैं। सोने के हिरण पाने के लिए आज हर इंसान व्याकुल है। ऐसे में और राम की प्रासंगिकता पर प्रश्न उठना स्वाभाविक है।
राम का जन्म
इतिहास की दृष्टि से देखें तो बी.पी. राय आज से 9010 साल पहले राम का जन्म हुआ मानते हैं तो अनेक इतिहासकारों के अनुसार राम 5000 वर्ष से अधिक वर्ष पूर्व पैदा हुए थे। प्रो. बी.गो. लाल के अनुसार 800 ई.पू. राम धरती पर मौजूद थे। इतिहासकार एस. बी. राय ताम्रयुग को रामावतार का काल बताते हैं। वामपंथी इतिहासकारों के विपरीत आध्यात्मिक आस्था के अनुसार राम नौ लाख वर्ष पहले पैदा हुए थे। भारतीय ज्योतिष के सूर्य सीमांत काल गणना के अनुसार राम त्रेतायुग के अंत में अवतरित हुए थे। इस सिद्धान्त के अनुसार सतयुग सत्रह लाख अट्ठाइस हजार वर्ष का, त्रेतायुग 12 लाख 96 हजार 300 वर्ष का, द्वापर युग आठ लाख 64 हजार वर्ष का और कलियुग चार लाख 32 हजार साल का होता है। कलयुग का अभी प्रथम चरण है। इस दृष्टि से राम का जन्म करीब नौ लाख वर्ष पूर्व हुआ था। किंतु विज्ञान को खोजों में आदि मानव के कंकाल मात्र एक लाख सात वर्ष पूर्व तक के ही मिले हैं।
परन्तु ये सब बातें प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्सटाइन के कथन के आगे गौण हो जाती हैं। उन्होंने महात्मा गांधी की मृत्यु पर कहा था- ‘शायद कुछ ही सालों में लोग अविश्वास करने लगेंगे कि गांधी जैसे किसी व्यक्ति के चरण इसी भूमि पर चले थे।’ जब मात्र एक सौ साल में लोग बाबा, दादा, परदादा तक का नाम भूल जाते है तो राम का नाम को भूलना स्वाभाविक बात है। तो फिर बीस या चालीस हजार साल पूर्व के सदचित्-आनंद स्वरूप राम के अस्तित्व को कौन स्वीकारेगा? राम को पहचानने और स्वीकारने के लिए सर्वप्रथम स्वच्छ अंतर्मन और निर्मल दष्टि दोनों ही आवश्यक हैं। जैसा कि रामचरित में स्वयं राम मुख से तुलसीदास ने स्पष्ट किया है-
निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल-छिद्र ना भावा ।।
सत्य ही परम तत्व
निर्मल मन आज सच्चे अर्थों में मिल पायेगा इसकी आशा नहीं करनी चाहिए। फिर भी राम के बारे में विचार करें तो हमारे सामने सम्पूर्ण भारतीय दर्शन की आत्मा के सत्य का स्वरूप उपस्थित हो जाता है। हमारी सांस्कृतिक मनीषा और दार्शनिक चिंतन सत्य को ही परम-तत्व मानकर उसी की आराधना और पूजा करता है।
श्रीकृष्ण ने गीता में अर्जुन को उपदेश देते हुए कहा है सत्य ही सार है।
सत्य के अमूर्त रूप की पूजा सतयुग में हुई। द्वापर में श्री कृष्ण सत्य के स्थान पर प्रेम को ईश्वर का रूप मानते हैं।
कलयुग में राम को कैसे पहचानें
अब कलयुग है। अब न तो सत्य है और न ही प्रेम। इस कारण संदेह बहुत बढ़ा है। अब तो परमेश्वर के स्वरूप सत्य और प्रेम दोनों का ही लोप हो चुका है। ऐसे में भगवान राम को कैसे पहचाना जाए? इसी स्थिति को ध्यान में रखकर कलयुग के प्रतिनिधि कवि गोस्वामी तुलसीदास ने राम कथा में ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ कहकर उन्हें (राम को) मानव की सीमा से बाहर कर दिया है। फिर भी आज के युग में राम को पहचानने का सबसे सरल तरीका राम-राज्य के तत्वों को जानना है। राम को प्रारंभ से देखें तो राज्याभिषेक के समय महर्षि वशिष्ठ के आदेशानुसार राज्याभिषेक के पहले राम को स्नान करवाने की बात आई तो उन्होंने गुरुआज्ञा को शिरोधार्य करते हुए कहा, ‘प्रथम छोटे भाइयों का स्नान होगा।
सखा स्नान के बाद अन्हवाए प्रभु तीनिहु भाई- अपने हाथों से छोटे भाइयों को स्नान करवाया। राम राज्स सत्ता का नहीं जन सेवा का प्रेमी है।
राज्याभिषेक के समय अपने नीति सम्बन्धी विचार व्यक्त करते हुए वह कहते हैं-
सोई सेवा प्रियतम मम मोई। मम अनुशासन माने जोई।।… और उनकी अनुशासन की परिभाषा है- जो अनीति का भायो भाई। तो मोहि बरजेव भय बिसराई।। अर्थात् एक सामान्य जन को भी यह अधिकार दिया कि यदि मुझसे कोई गलत काम हो रहा हो तो भय मुक्त होकर मुझे रोक देना। उनका एक और नीति वाक्य था- परहित सरिस धरम नहि भाई। पर पीड़ा सन नहि अधमाई।। जब राम राजा होते है तो वह सब के हित के आदर्श से प्रेरित होते हैं। आज स्वार्थ लोभ मोह के कारण- केवल मात्र मैं और मेरा- के अर्थ में लोग काम कर रहे हैं। इसी से राम सदा प्रासंगिक हैं और प्रासंगिक रहेंगे। राम की प्रासंगिकता पर प्रश्न तो उठते रहेंगे किंतु राम सदैव प्रासंगिक बने रहेंगे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)