रावेल पुष्प।

हमारे देश में दीपावली का त्योहार बड़े उत्साह और हर्षोल्लास से मनाया जाता है और हम अपने घरों में, धार्मिक स्थानों में, व्यवसायिक प्रतिष्ठानों में तथा पूरे गांव, शहर को ही दीयों की रोशनी से तथा बिजली की तरह-तरह की लाइटों से सजाते हैं और खुशियां मनाने के जो भी इंतजाम हम कर सकते हैं, वो करते हैं।

दीपावली यानी प्रकाश पर्व को मनाने के पीछे जो आम कारण हम जानते हैं कि इस दिन भगवान श्री रामचंद्र जी 14 वर्ष के बनवास और लंका पर विजय प्राप्त कर अयोध्या लौटे थे। इसी खुशी में अयोध्या वासियों ने अपने घरों और नगर में दीपमाला की थी और खुशियां मनाईं थीं। इसके अलावा भी कई और धारणाएं, परम्परायें या फिर स्थानीय संस्कृति या सन्दर्भों से जुड़ी घटनाऐं मौजूद है। इनमें से हिंदू धर्म के ग्रंथों में कुछ का उल्लेख तो भले ही है लेकिन सभी का नहीं है। आइये, ऐसे ही कुछ कारणों पर हम एक नजर डालते हैं-

भगवान विष्णु ने राजा महाबली को पाताल लोक का स्वामी बना दिया था, जिससे देवराज इंद्र आश्वस्त हो गए थे कि अब उनके स्वर्ग में राज करने पर कोई खतरा नहीं है। इस खुशी में दीपावली मनाई गई थी ।

इस दिन श्रीकृष्ण ने नरकासुर राक्षस का वध किया था और इस खुशी में भी दीपावली की गई थी।

गौतम बुद्ध के अनुयायियों ने 2500 वर्ष पूर्व गौतम के बुद्ध बनने पर उनके स्वागत में दीपमाला की थी ।

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इस तरह के और भी कई कारण हो सकते हैं लेकिन अमृतसर में और खासतौर से स्वर्ण मंदिर में जो दीपावली मनाई जाती है, उस दीपावली पर वहां की दीपमाला और आतिशबाजी को देखने, देश ही नहीं पूरी दुनिया से श्रद्धालु अमृतसर स्वर्ण मंदिर के दर्शनों को पहुंचते हैं । उस दिन पंजाब के गांव-गांव से लोग मिट्टी के दीये और तेल की शीशियां लेकर आते हैं और अमृत सरोवर के चारों ओर दीये जलाते हैं। हालांकि समय बदलने के साथ अब कुछ लोग मोमबत्तियां भी जलाने लगे हैं। इस मौके पर स्वर्ण मंदिर और पूरे परिसर को ही अलौकिक तरीके से दीपों और लाइटों से सजाया जाता है।

स्वर्ण मन्दिर में मनाई जाने वाली दीपावली के साथ जो घटना जुड़ी हुई है, उसकी चर्चा करने के लिए हमें इतिहास के झरोखे से उस दौर में झांकना पड़ेगा, जब दिल्ली के तख्त पर मुगलिया सल्तनत का शासन था। मुगल शासन- काल बाबर से लेकर औरंगजेब और फिर बहादुर शाह (द्वितीय) तक का रहा है। यह कुल समय 20 अप्रैल, 1526 से लेकर 21 सितंबर, 1857 तक है जो लगभग 300 वर्षों का है । सिख गुरुओं का समय 1469 गुरु नानक देवजी के जन्म से लेकर 1699 गुरु गोबिंद सिंह और फिर बन्दा बहादुर तथा और जनरैलों का समय भी जोड़ लिया जाए तो ये भी लगभग उसी के आसपास ठहरता है।

सिखों के पहले गुरु नानक से लेकर पांचवें गुरु अर्जुन देव तक की पूरी गुरु परंपरा पूर्ण रूप से भक्ति भाव और आध्यात्मिक ही रही है लेकिन छठवें गुरु हरगोबिंद से इस परंपरा में थोड़ी तब्दीली आ गई थी । सिख धर्म के चौथे गुरु रामदास जी ने ही गुरु का चक यानी अमृतसर शहर को बसाया था और अमृत सरोवर को भी बनवाया था। फिर पांचवें गुरु अर्जुन देव ने सरोवर के बीच दरबार साहिब एक पवित्र स्थान बनवाया था, जिसमें चारों तरफ चार दरवाजे रखे गये, जिसमें हर धर्म, जाति के लोग आ सकें और ईश्वरीय आराधना कर सकें। दरबार साहिब जो कालांतर में महाराजा रणजीत सिंह द्वारा उस पर सोने की मोटी परतें चढ़ाए जाने के कारण स्वर्ण मंदिर के नाम से विख्यात हुआ, उसी स्वर्ण मंदिर में गुरु अर्जन देव ने गुरु ग्रंथ साहिब को स्थापित किया। यहां पहले से लेकर पांचवें गुरु की रचनाएं और भक्त कवियों की वाणी का भी संग्रह है। उसका यहां पहली बार प्रकाश किया गया और बुजुर्ग भाई बुड्ढा जी को इसका पहला ग्रंथी यानी पाठ करने वाला बनाया। गुरु अर्जुन देव जी ने ही इसमें रचनाएं संकलित करवाईं और इसे आदि गुरु ग्रंथ साहिब भी कहा जाता है। इसी ग्रंथ में फिर दसवें गुरु गोविंद सिंह ने अपने पिता श्री गुरु तेग बहादुर की रचनाओं को शामिल कर उसे ही वर्तमान स्वरूप प्रदान भी किया और फिर उसे ही गुरु गद्दी पर आसीन कर दिया तथा अपने सिखों को ये आदेश दिया कि- सभ सिक्खन को हुकम है, गुरु मान्यो ग्रंथ! और यहीं से किसी जीवित व्यक्ति को गुरु मानने की जगह केवल और केवल गुरु ग्रंथ साहिब को ही अपना गुरु मानने की परम्परा की शुरुआत हुई।

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गुरु अर्जुन देव जी द्वारा दरबार साहिब तथा गुरु ग्रंथ साहिब की स्थापना के बाद से उनके श्रद्धालुओं की संख्या में काफी इजाफा होने लगा था और उनकी कीर्ति हर तरफ फैल रही थी। ये बात कई लोगों को बर्दाश्त नहीं हो रही थी और उन लोगों ने तत्कालीन मुगल बादशाह जहांगीर के दरबारी चंदू के माध्यम से शहंशाह के कान भरने शुरू कर दिए। परिणाम स्वरूप जहांगीर ने गुरु अर्जुन देव को बुलावा भेजा। पहले तो उन्हें धर्म परिवर्तन के लिए कई किस्म के लालच दिए मसलन शाही पीर का ओहदा तक भी लेकिन राजी न होने पर उन पर तरह-तरह के ज़ुल्म किये गये और फिर गर्म तवे पर बैठाकर शहीद कर दिया गया। उनकी शहादत का उनके शिष्यों पर गंभीर असर पड़ा। खासतौर से उनके सुपुत्र और अगले गुरु हरगोबिंद जी पर। जब गुरु अर्जुन देव शहीद हुए, उस समय हरगोबिंद जी की उम्र महज 11 साल की थी।

गुरु हरगोबिंद जी को जब गुरु गद्दी पर बिठाने के लिए पारंपरिक रूप से सैली टोपी मंगवाई गई, जो उस दौर में आमतौर पर कोई भी धार्मिक अगुआ धारण करता था। गुरु जी ने वो टोपी ये कहते हुए वापस करवा दी कि अब ये सब चीजें सिर्फ तोशेखाने की शोभा ही हो सकती हैं और उन्होंनेे दस्तार (एक किस्म की पगड़ी) और एक साथ दो तलवारें मंगवा कर धारण कीं। जिसमें एक तलवार को उन्होंने मीरी की तथा दूसरी को पीरी की कहा। उन्होंने बताया कि मीरी की यानी राज-काज चलाने की तथा पीरी की यानी आध्यात्म की। मीरी की तलवार से पीरी की तलवार दो इंच लम्बी रखी गई थी, यानी राजकाज का शासन धर्म के अधीन हो। इसका मकसद था कि शासक को ताकतवर होने के बावजूद ईश्वर को नहीं भूलना है और न्याय संगत शासन ही करना है । उसके बाद उन्होंने गुरुघर के शिष्यों/ श्रद्धालुओं को ये आदेश दिया कि अब से जो भी दर्शन करने आये, वो अपने साथ और कोई भेंट लाने की बजाय अस्त्र- शस्त्र, अच्छी नस्ल के घोड़े तथा अपने घर के हृष्ट-पुष्ट पुत्रों को देश-कौम के लिए दान करें।

गुरु हरगोबिंद अपने पिता की शहादत के बाद स्पष्ट रूप से यह समझ चुके थे सिर्फ भक्ति- भावना और धर्म कर्म की बातों से आज आततायियों को रोक पाना मुश्किल है, जिसके लिए जरूरत पड़े तो शस्त्र उठाना जरूरी होता है। गुरु हरगोविंद ने उसके बाद ही सुरक्षा के लिए लौहगढ़ के किले का निर्माण करवाया तथा स्वर्ण मंदिर के सामने उसी परिसर में एक ऊंचे तख़्त का निर्माण करवाया और उसे अकाल तख्त का नाम दिया गया। अकाल तख्त पर बैठकर गुरुजी असहाय, गरीबों और मजलूमों की शिकायतें सुनने और उनका निराकरण करने लगे थे। उनके आह्वान पर दूर-दूर से दर्शनों को आने वाले श्रद्धालु अब तरह-तरह के अस्त्र-शस्त्र लाकर भेंट करने लगे। कई लोगों ने अच्छी नस्ल के घोड़े भी लाकर दिए और एक अच्छा खासा अस्तबल बन गया था। खास बात ये हुई थी कि कई श्रद्धालुओं ने अपने स्वस्थ युवा बच्चों को भी दान कर दिया और कुछ समय में ही उनके पास लगभग 1500 बलिष्ठ युवकों की एक फौज इकट्ठी हो गई। उनके दरबार के सबसे प्रिय और बुजुर्ग जो गहरे आध्यात्मिक होने के साथ ही शस्त्र-विद्या में भी पारंगत थे, वे थे बाबा बुड्ढा जी। उन्होंने ही गुरु हरगोबिंद को तथा और युवकों को बाकायदा शस्त्र-विद्या की ट्रेनिंग देनी शुरू कर दी।

अब धीरे-धीरे ये सारी सूचनाएं मुगल दरबार तक पहुंचने लगी थी और उनके दरबारी चंदू ने जहांगीर को सचेत किया कि ये गुरु हरगोबिंद अपनी सेना और ताकत बढ़ाता जा रहा है। इसके मिजाज़ भी एक राजा की तरह हैं और अब तो वो तख़्त बनाकर फैसले तक देने लगा है। ये आने वाले दिनों में मुगल सल्तनत के लिए खतरे का कारण बन सकता है। जहांगीर ने जब इस तरह की बातें सुनी, तो उसे भी इस बात में दम नजर आने लगा। उन्होंने एक खत सिक्खों के गुरु हरगोबिंद को लिखा कि मैं इस बात के लिए बहुत शर्मिंदा हूं कि मेरे द्वारा आपके पिता को मृत्युदंड दिया गया था लेकिन मैं उसका प्रायश्चित करना चाहता हूं । मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती है और मुझे किसी फ़कीर ने कहा है कि जब तक तुम उनके पुत्र को अपने पास बुला कर माफी न मांग लो और अपने महल में रखकर उनकी सेवा नहीं करोगे तब तक तुम्हारी तबीयत में सुधार नहीं होगा। इसलिए आपसे मेरी खास इल्तिजा है कि आप हमारे महल में पधारें और मुझे खिदमत करने का मौका दें। गुरु जी को जब खत मिला तो उन्होंने अपने बुजुर्ग बाबा बुड्ढा जी से सलाह मशविरा किया और उन्हें यहां की जिम्मेदारी सौंपकर दिल्ली जाने का निर्णय कर लिया। वैसे आशंकाएं जो भी रही हों लेकिन बादशाह का आदेश था।

गुरुजी दिल्ली पहुंच गये और बादशाह जहांगीर ने उनका ख़ास तरीके से स्वागत किया और अपने महल में खास मेहमानों की तरह ही रखा भी और उनकी भरपूर खातिरदारी भी की। एक दिन बादशाह शिकार के लिए गये तो साथ में गुरु हरगोबिंद को भी लेते गये। जंगल में अचानक एक शेर ने पूरी तेजी से बादशाह पर आक्रमण कर दिया। बादशाह के साथ गये हुए सिपाही अभी कुछ समझते तब तक शेर छलांग लगा चुका था लेकिन बिजली की फुर्ती से गुरु हरगोबिंद ने अपनी तलवार निकाली और छलांग लगा चुके शेर पर अपने बलिष्ठ हाथों से वार किया और सभी ने आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता से देखा कि शेर दो टुकड़ों में कट चुका था। वापस आकर जहांगीर गुरुजी का बड़ा शुक्रगुजार हुआ कि उनकी वजह से आज उनकी जान बच गई थी। ये खबर धीरे-धीरे दरबारियों तक पहुंच गई।

उनमें से बादशाह के कुछ खा़स सिपहसालारों ने सचेत किया कि ऐसा बलिष्ठ और फुर्तीला आदमी या तो अपने मज़हब में हो वर्ना वो हमारे लिए ही खतरे का कारण बन सकता है। बादशाह जहांगीर ने काफ़ी सोच-विचार कर एक तरकीब निकाली और कुछ दिनों के बाद ही गुरु जी से कहा कि सल्तनत के काम से उन्हें कुछ दिन मसरुफ़ रहना पड़ेगा, इसलिए आप हमारे ग्वालियर के किले में तशरीफ़ ले जाएं जहां हमारे सारे खास इंतजाम हैं । वहीं मैं कुछ जरूरी काम निपटा कर आपसे मिलता हूं।

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गुरुजी को शाही सवारी में बिठाकर ग्वालियर के किले पहुंचा दिया जाता है। उस किले में जाने के बाद ही उन्हें पता चलता है कि किला पहले सचमुच ही मुगलों की खास आरामगाह रही थी लेकिन अब इसे वीआईपी किस्म की जेल में तब्दील कर दिया गया था और वहां 52 हिंदू राजाओं को कैद करके रखा गया था। वहां का जेलर हरिदास था, जो गुरु- घर का बड़ा मुरीद था ।जेलर हरिदास ने गुरु जी को बताया कि यहां जो भोजन दिया जाता है उसमें बड़े हल्के किस्म का जहर भी होता है जिससे धीरे-धीरे कैद में पड़े राजा मौत के मुंह में समा जाएं। इसी बीच जब ये बात इलाके में फैली कि गुरु जी को किले में कैद किया हुआ है तो कई श्रद्धालु किले के बाहर पहुंचने लगे और उन्हें मिलने की इजाजत तो नहीं मिली लेकिन वे लोग किले की दीवार को ही प्रणाम करने लगे। इसी बीच कुछ शिष्यों ने जेलर हरिदास को इस बात के लिए राजी कर लिया कि वे गुरु जी को भोजन देंगे। बस फिर क्या था, उनलोगों ने पहले गुरु जी के लिए और फिर सभी कैदी राजाओं के लिए भी लंगर पकाकर भेजना शुरू कर दिया। इस तरह गुरु जी के साथ सभी कैदियों के लिए भी भोजन की अच्छी व्यवस्था हो गई थी।

उधर, अमृतसर में जब काफी समय बीत गया और गुरुजी वापस नहीं आए तो शिष्यों को बड़ी चिंता हो गई और बाबा बुड्ढा जी को भी। गुरु गोबिंद जी की माता गंगा जी भी बड़ी बेचैन थी पता नहीं क्या बात है अभी तक हरगोबिंद लौटा नहीं ? वैसे तो अपनी सन्तान के लिए चिंता करना एक मां के लिए स्वाभाविक ही था, पर गौरतलब बात ये भी है कि माता गंगा जी को पुत्र की प्राप्ति भी विवाह के 21 वर्ष बाद हुई थी। इसकी भी एक अलग कथा कुछ यों है कि जब कई वर्षों तक माता गंगा जी मातृत्व- सुख से वंचित थीं तो एक दिन उन्होंने अपने पति गुरु अर्जुन देव जी को ये उलाहना दिया कि आपके आशीर्वाद से कइयों की झोलियां संतान की खुशियों से भर जाती हैं लेकिन मैं अब तक मातृ- सुख से वंचित हूं। गुरुजी ने कहा कि यह तो तभी हो सकता है कि जब कोई दूसरा श्रेष्ठ पुरुष इसके लिए अरदास करे। माता गंगा जी ने जब पूछा कि ऐसा पुरुष कौन हो सकता है? गुरु जी ने बाबा बुड्ढा जी का नाम सुझाया। बाबा बुड्ढा जी, जो पहले गुरु नानक देव जी से लेकर आज तक भी गुरु घर की सेवा में लगे हुए परम पुरुष ही थे। माताजी उनकी सलाह पर प्रसादे यानी रोटियां, लस्सी और गड्ढा यानी कच्चा प्याज लेकर बाबा बुड्ढा जी के पास गईं और उनसे भोजन करने का आग्रह किया। बाबा बुड्ढा जी ने भोजन करना शुरू किया और उस कच्चे प्याज को अपने हाथ के मुक्के से तोड़ने लगे, तभी मौका देखकर माताजी ने अपनी व्यथा का जिक्र किया। बाबा बुड्ढा जी ने कहा कि जा माता, तुम्हें शीघ्र ही एक श्रेष्ठ बलशाली पुत्र की प्राप्ति होगी और जिस तरह मैंने मुक्का मार कर प्याज को तोड़ा है, तुम्हारा पुत्र दुश्मनों के सिर तोड़ेगा। माता गंगा आशीर्वाद लेकर वापस आईं और एक साल के अंदर ही उन्हें पुत्र- रत्न की प्राप्ति हुई, जिसका नामकरण भी बाबा बुड्ढा जी ने ही किया था- हरगोबिन्द!

इस तरह की चिंता के निराकरण के लिए 105 वर्षीय बाबा बुड्ढा जी की अगुवाई में सिखों का एक जत्था ढोलक वगैरह लेकर कीर्तन करते हुए अमृतसर से ग्वालियर के लिए पैदल ही चल पड़ा । वह ग्वालियर के किले के पास पहुंचे और जेलर हरिदास से उन्हें सारी स्थिति का पता चला । बाबा बुड्ढा जी को ही सिर्फ जेल के अंदर जाकर गुरु जी से मिलने की अनुमति मिली। बाबा बुड्ढा जी गुरु जी को देखकर बड़े चिंतित हुए। गुरुजी ने आश्वस्त किया कि आप सब कोई चिंता न करें और आप सब वापस जाएं मैं शीघ्र ही आ जाऊंगा। बाबा बुड्ढा जी ने कहा कि वहां अमृतसर में आपके श्रद्धालु बड़ी चिंता में है और आपकी माता जी भी आपके दर्शनों के लिए लालायित हैं, तो गुरु जी ने कहा कि वहां जाकर आप दरबार साहब परिसर में सरोवर के चारों ओर हर शाम कीर्तन करते हुए परिभ्रमण करें, तो आपको अपने साथ मेरे होने का एहसास होता रहेगा। बाबा बुड्ढा जी सभी शिष्यों को लेकर वापस आ गए और हर शाम अमृत सरोवर के चारों ओर शिष्यों के साथ कीर्तन करने लगे, इसे बाबा बुड्ढा जी की चौकी कहा जाने लगा और खास बात ये है कि वो परंपरा आज भी उसी तरह बरकरार है। हर शाम ये चौकी कीर्तन करते हुए श्रद्धालुओं के साथ सरोवर का चक्कर लगाती है और उसमें शामिल श्रद्धालु महसूस करते हैं कि गुरु हरगोविंदजी उनके साथ चल रहे हैं ।

गुरुजी को ग्वालियर के किले में कैद हुए काफी समय बीत चुका था।इसी बीच बादशाह जहांगीर की तबीयत सचमुच बिगड़ने लगी थी और कोई इलाज काम नहीं आ रहा था। उनका शाही हकीम वजीर खान भी इलाज कर- कर के परेशान था। वह भी गुरु घर की रहमत से वाकिफ था, क्योंकि उसकी अपनी एक जानलेवा बीमारी कभी गुरु अर्जुन देव जी के आशीर्वाद से ठीक हुई थी। गुरु हरगोबिंद जी की कैद की बात तो वो जानता था लेकिन खुलकर कुछ बोलने की स्थिति में नहीं था । बादशाह की जानलेवा बीमारी के दौरान उनकी सबसे चहेती बेगम नूरजहां ने शासन का प्रबंध अपने हाथ में ले लिया था और बादशाह की तीमारदारी भी स्वयं करने लगी थीं। नूरजहां ने जब ये देखा कि अब दवा-दारू से कुछ नहीं हो रहा तो उसने पीरों-फ़कीरों की शरण में जाना ही उचित समझा। गौरतलब है कि नूरजहां का बचपन और जवानी के कुछ दिन भी लाहौर में बीते थे और तभी से पीरों-फ़कीरों के प्रति उसकी श्रद्धा थी। उन दिनों लाहौर के सूफ़ी संत मियां मीर की बड़ी मान्यता थी और उनका मुग़ल दरबार में भी अच्छा ख़ासा अदब-सत्कार था। वो गुरु-घर की रूहानियत का भी बड़ा कायल था। नूरजहां ने अपने ख़ास दूत के माध्यम से खुदा के बंदे माने जाने वाले उन सूफ़ी संत मियां मीर को अदब से महल में आने की गुजारिश की। मियां मीर जब तशरीफ़ लाए तो उन्होंने बेगम नूरजहां और बादशाह सलामत को साफ़- साफ़ लफ़्ज़ों में कहा कि आपने ख़ुदा के बंदे सिक्खों के गुरु हरगोबिंद को अपनी कैद में रखा हुआ है। अगर आप अपनी सलामती चाहते हैं तो बिना और देरी किए उन्हें रिहा कर दें। बेगम नूरजहां ने जब अपने मुरशिद मियां मीर के ये अल्फ़ाज़ सुने तो बेगम और जहांगीर के पास अब और कोई चारा नहीं था। गुरु हरगोबिंद की रिहाई का शाही फ़रमान जारी कर दिया गया और ग्वालियर के किले भिजवाया गया।

उस फ़रमान को पाते ही ग्वालियर किले का जेलर हरिदास बड़ा खुश हुआ और ये खबर गुरु जी को तुरंत जा सुनाई कि आपकी रिहाई का शाही फ़रमान आ गया है और आप को रिहा किया जाता है। गुरुजी ने कहा ये तो अच्छी खबर है लेकिन इस किले में कैद किए गए सभी कैदी राजाओं को भी जब तक रिहा नहीं किया जाता, मैं भी रिहा नहीं होना चाहता। जब ये खबर जहांगीर के पास पहुंची तो उसने टालने की गरज से ये आदेश जारी कर दिया कि ठीक है, हरगोबिंद के साथ उनको पकड़ कर जितने भी कैदी एक बार में बाहर निकल सकेंगे उन्हें रिहा मान लिया जायेगा। दरअसल, जहांगीर ने यही सोचा था कि उनके साथ दो-चार कैदी निकल जायेंगे या फिर पहले मैं के चक्कर में आपस में लड़ लेंगे और कोई भी निकल नहीं पाएगा। लेकिन गुरु हरगोबिंद को जब ये शर्त बताई गई तो उन्होंने बड़ी बुद्धिमानी से काम लिया और जेलर की सहायता से 50 कलियों यानी छोरों वाला बड़ा सा चोला सिलवाया। रिहाई के समय उन्होंने वो चोला पहन लिया और सभी राजाओं को कहा कि जब मैं बाहर निकलूं, तुम लोग मेरा एक-एक हाथ और बाकी चोले की एक- एक कली पकड़ लेना। ऐसा ही हुआ और गुरुजी सभी कैदी 52 राजाओं को लेकर बाहर आ गए। गुरु जी की इस सूझ-बूझ से सभी राजा रिहा हो गये और इसी कारण से वे बाद में बंदी छोड़ गुरुदेव के नाम से प्रसिद्ध भी हुए।

जब इस तरह ग्वालियर के किले से रिहा होकर गुरु हरगोबिंद अमृतसर पहुंचे तो उनके स्वागत में पूरे शहर को तथा दरबार साहिब को तथा सरोवर के चारों तरफ दीपमाला से सजाया गया था। कुछ इतिहासकारों का मत है कि वो समय कोई और था, लेकिन फिर बाद में दीपावली वाले दिन को ही बंदी छोड़ दिवस के रूप में मनाया जाने लगा।

अभी भी हर साल बड़े हर्षोल्लास और श्रद्धा तथा नायाब तरीके से वहां दीपमाला की जाती है कि देश दुनिया से श्रद्धालु पहुंचते हैं और स्वर्ण मंदिर परिसर के अंदर जितने भी रिहायशी कमरे बने हैं तथा शहर के होटल वगैरा, स्कूलों के कमरे सभी श्रद्धालुओं और पर्यटकों के रहने से भर जाते है। अमृतसर की इस नायाब दीपावली को लेकर पंजाब में एक कहावत भी प्रचलित हुई-

दाल रोटी घर दी, दीवाली अमृतसर दी

यानी अपने घर की दाल-रोटी और अमृतसर की दीवाली का कोई जवाब नहीं।

अमृत सरोवर में जब पानी के कंपन में दीपमालिका की प्रतिछाया स्वर्ण मंदिर के साथ पड़ती है तो दर्शक मंत्रमुग्ध होकर देखता ही रह जाता है । ऐसे में सरोवर के अंदर से जब बडी-बडी सुंदर मछलियां किलोलें भरती हुई उपर की और मुंह खोलती हैं, तो दर्शकों के मुंह से बेसाख़ता निकल पडता है – वल्लाह ऐसा ख़ूबसूरत नज़ारा और कहीं नहीं देखा ……

वहां विचरण करते हुए लोगों की जुबान से फिसलते हुए कई जुमले हवा में तैरते हुए कानों से टकराते हैं- लाजवाब, एक्सीलेंट , फैंटास्टिक, दारुन, अतिसुंदर- हाय ओ रब्बा अखां नूं ठांड पै गई वगैरा-वगैरा….

अब भला कौन नहीं चाहेगा अमृतसर के अमृत सरोवर में रुहानी डुबकी लगाने और स्वर्ण मंदिर परिसर में दीपावली की रात का दिलकश नजारा देखने। इसके साथ ही अपने अंदर फैली अज्ञानता का अंधकार और जाति तथा धर्म के नाम पर जुल्म करने जैसी बुराइयों के बंधनों से मुक्त होने की भी रात होगी, तभी तो सही अर्थों में दीपावली यानी बंदी छोड़ दिवस को पालन कर जीवन सार्थक कर लेने की भी यादगार रात होगी और मुंह से बेसाख्ता निकल पड़ेगा- डिट्ठे सभे थांव नहीं तुध जेआ

यानी जगहें तो बहुत सी देखी हैं,पर ऐसी जगह नहीं देखी…

किसी भी जाति धर्म से मुक्त होकर हम अगर सिर्फ एक सैलानी के रूप में भी जाएं तो आनंद में कहीं कोई कमी नहीं। वैसे वहां इंसानियत का जज्बा अपने आप उभरकर सामने आने लगता है और लगता है कि वह शक्ति जो काल से परे है यानी अकाल है वही सत्य है बाकी सब मिथ्या है, इसलिए ऐसा एहसास होता है और हम उद्घोष कर उठते हैं –
जो बोले सो निहाल, सत् श्री अकाल.।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।