वर्ष 1998 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की ओर से जिले की धरती पर किए गए परमाणु परीक्षण से दुनिया के नक्शे पर पहचान पा चुका पोकरण अब एक बार फिर अपनी मिट्टी के दम पर नई पहचान बना रहा है। परमाणु नगरी पोकरण की लाल मिट्टी से निर्मित दीये, कलात्मक व आकर्षक खिलौने, माटी के बर्तनों ने इस कस्बे की हस्तकला को नई पहचान दी है।

पोकरण कस्बे में निवास कर रहे कुम्हार समाज के कलाकारों द्वारा दीपावली पर स्थानीय लाल मिट्टी से निर्मित कलात्मक दीये व विभिन्न अवसरों पर काम आने वाले बर्तनों व आकर्षक खिलौने, अन्य वस्तुओं का निर्माण किया जाता है। इसे देखकर देशी विदेशी पर्यटक आकर्षित होते है। जिस तरह पर्यटन नगरी जैसलमेर में पीले पत्थर से निर्मित आकर्षक खिलौने व वस्तुएं, चमड़े से बने कलात्मक पर्स, बैग, प्राचीन शैली के मिट्टी व पत्थर से बने आकर्षक आईटम पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करते है उसी तरह स्थानीय हस्त कलाकारों द्वारा लाल मिट्टी से निर्मित खिलौने, हाथी, घोड़े, ऊंट, मगरमच्छ, गमले, मैजिक लैम्प, घंटिया, गुल्लक आदि आकृतियों का निर्माण किया जाता है। इन आकृतियों व बर्तनों की पोकरण कस्बे व प्रसिद्ध धार्मिक स्थल रामदेवरा में दुकानें लगी हुई है जहां से स्थानीय लोग व पर्यटक सुविधानुसार इसे खरीद कर ले जाते हैं। देश के विभिन्न हिस्सों और शहरों में लगने वाली प्रदर्शनियों व हाट बाजारों में भी पोकरण की लाल मिट्टी से निर्मित खिलौनों व बर्तनों की दुकानें लगती है। स्थानीय कुंभकारों व हस्तकला समिति के मुख्य सदस्यों की ओर से लगाई जाने वाली दुकानों में यहां के लाल मिट्टी से बने खिलौने व बर्तन पर्यटकों के लिए आकर्षण का केन्द्र बनते है।

पोकरण की लाल मिट्टी की विशेषता यह हैं कि लाल व कत्थई रंग की इस माटी से निर्मित विभिन्न पात्रों को जब लकड़ी की सहायता से पारम्परिक तरीके से अवाड़ा में पकाया जाता है तब पकने के बाद इन मिट्टी के पात्रों का रंग हल्के गुलाबी रंगत जैसा हो जाता हैं। जो पोकरण की लाल मिट्टी की विशेषता कही जाती हैं। पोकरण की लाल मिट्टी के शिल्पकार बड़बेड़ा, खरज, परात, पारोटी, चाडा, पारा, मटकी, कुलडी आदि के साथ ही विभिन्न पशु-पक्षियों की छोटी-बड़ी आकृतियां व कई प्रकार के गुल्लक बनाए जाते हैं। मिट्टी के इन शिल्पकारों द्वारा चॉक, हाथरी, धागा, पिण्डी, थापा, टुलकिया, कंद, खुरपा व मंडाई जैसे औजारों का प्रयोग कर मिट्टी पर नक्काशी का कार्य पिछले कई वर्षों से किया जा रहा हैं।

महिलाएं भी देती है योगदान

माटी कला की एक खासियत यह भी हैं कि पुरुष कुंभकारों के साथ साथ महिलाएं भी न केवल निर्माण की रचना करती हैं बल्कि रंगाकन तथा अलंकरण में भी इनका विशेष योगदान रहता हैं। केलडी व परात के साथ गुल्लक तथा विभिन्न तरह के खिलौनों को बनाने में भी कुम्हार जाति की महिलाएं सिद्धहस्त हैं। इन माटी के पात्रों को लकड़ी के अवाड़े में पारम्परिक तरीके से पकाने से पूर्व खडिया, गेरू, पीला व काले रंग से पारम्परिक शैली में अंलकरण व बैल-बूंटों का रूपांकन करते हैं।

सरकार नहीं दे रही ध्यान

देश के विभिन्न राज्यों में अपनी पहचान बना चुका पोकरण की माटीकला टेराकोटा पॉट्स के रूप में भी जानी जाती है। यह विदेशों में भी आकर्षण हासिल कर रही हैं। विभिन्न डिजायनों में बनाए गए इन लाल मिट्टी के उत्पादों को स्थानीय लोगों के साथ सरकार द्वारा कोई खास महत्व नहीं मिल रहा हैं। स्थानीय स्तर पर लाल पोटरी के प्रति रुझान कम होने से कुम्हार जाति के लोगों के लोगों के रोजगार पर काले बादल छाए हुए हैं।आवश्यकता इस बात की है कि अब स्थानीय और यहां आने वाले पर्यटकों का रूझान बढ़े तो मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हारों की जिंदगी में खुशी लौटे। कुम्हारों का कहना है कि सरकार सबके लिए राहत योजना लाई है ऐसे में उनके लिए भी कुछ सोचना चाहिए। सरकारों को ऐसे कारीगरों के लिये विशेष पैकेज की व्यवस्था करनी चाहिए, ताकि कला और संस्कृति के इन संरक्षकों को दो वक्त का निवाला नसीब हो सके। दुनियाभर में अपनी मिट्टी की कला के लिए प्रसिद्ध पोकरण के कुम्हार दिवाली के त्योहार की तरफ टकटकी लगाए हुए हैं। पर्व पर इनके बनाए दीयों और सजावटी सामानों को लोग खरीदेंगे तो तभी इनके घर भी दिवाली पर खुशियों के दीये जलेंगे। ग्रामीण भारत अब प्रधानमंत्री की वोकल फ़ॉर लोकल योजना व नई तकनीक और नई सुविधाओं से लैस हो रहा है।

मिल-जुलकर पूरा परिवार करता है काम

कुम्हारों के घरों में यह अभी तक देखने को मिलता है कि परिवार के बड़े-बुजुर्गों से लेकर बच्चे तक सभी इस परम्परागत कार्य में लगे रहते हैं। मिट्टी ढोने, उसे गीला करने, आकार देने, सुखाने और पकाने तक का सारा काम घर के सभी सदस्य मिल कर करते हैं, ऐसे में अगर इनका कारोबार ठप हो जाए तो खाने तक के लाले पड़ जाते है। माटी के इंजीनियर कहे जाने वाले कुम्हारों की हालत तो चाइनीज सामानों की बिक्री और कोरोना ने पहले ही बिगाड़ रखी थी। फिर भी गुजारा हो रहा था लेकिन लॉकडाउन के बाद काम नहीं मिलने से उनके सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया। ऐसे में दिवाली के करीब आते ही कुम्हारों में फिर से आस जगी है।दिवाली के लिए मिट्टी के दीये, घरौंदे और सजावटी सामान बनाने में कुम्हार जुट गए हैं और लंबे समय से थमे इनके चाक ने फिर से रफ्तार पकड़नी शुरू कर दी है। मिट्टी के दीयों, घरौंदे से लेकर अन्य सभी तरह के सजावटी सामान बनाने का काम तेजी से किया जा रहा है। इन्हें उम्मीद है कि दिवाली का ये सीजन इनके घरों में रोशनी लाएगा।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की आत्मनिर्भर भारत की कल्पना को मूर्त रूप देने में जुटे मिट्टी के दिये और अन्य साजोसामान बनाने वाले पोखरण निवासी युवा कारीगर अशोक प्रजापत ने बताया कि इस काम में मेहनत बहुत अधिक है तथा लागत के मुकाबले मुनाफा कम है, जिससे इस कार्य के प्रति रुझान कम हो रहा हैं। अगर सरकारी मदद तथा मार्केटिंग के लिए बाजार मिले तो इस लुप्तप्राय हो रही हस्तकला को जीवित रखा जा सकता हैं।

हाथ से चाक चलाने वाले एक अन्य बुजुर्ग कारीगर अचला राम ने बताया कि इस हस्तकला के कारीगरों को अलग से जमीन आवंटित की जानी चाहिए, जहां ये भट्टी लगाकर माल पका सके और तैयार माल का भंडारण कर सकें।