डॉ. संतोष कुमार तिवारी ।
धन अपनी मेहनत और मशक्कत की कमाई हो सकता है। धन सही तरीके से कमाया हुआ भी हो सकता है। परन्तु धन घूस, झूठ और अधर्म से कमाया हुआ भी हो सकता है।
आजकल दान लेने वालों और देने वालों दोनों की भीड़ लगी हुई है। कुछ लोगों का कहना है कि दान देने से धन शुद्ध होता है, लेकिन यह बात गलत है। इस लेख में यह बताया गया है सही तरीकों से कमाए गए धन का दान ही पुण्यदायक होता है। अधर्म से अर्जित धन का दान नहीं लेना चाहिए।
‘स्कन्दपुराण‘ में कहा गया है-
न्यायोपार्जितवित्तस्य दशमांशेन धीमता।
कर्तव्यो विनियोगश्च ईशप्रीत्यर्थमेव च॥
इसमें न्यायपूर्वक, ईमानदारी से अर्जित धन का कम-से-कम दसवाँ अंश दान करने की प्रेरणा दी गई है। हमारे धर्मशास्त्रों में स्पष्ट कहा गया है कि अन्याय और बेईमानी से अर्जित धन के दान से न तो इस लोक में और न परलोक में कोई पुण्य फल मिलता है-
अन्यायोपार्जितेनैव द्रव्येषण सुकृतं कृतम्।
न कीर्तिरिहलोके च परलोके न तत्फलम्॥
(देवीभागवत 3/12/8)
दान लेने वाले को यह पता कर लेना चाहिए कि दान में दिया जाने वाला धन कहीं चोरी, बेईमानी, मांस, मदिरा आदि से अर्जित तो नहीं है। ऐसे अशुद्ध धन का दान न लेने में ही भलाई है। दान ग्रहण करने वालेको भी यह जाँच लेना चाहिये कि दान में दिया जाने वाला धन कहीं चोरी, बेईमानी, अखाद्य पदार्थों मांस, मंदिराके विक्रय आदिसे अर्जित तो नहीं है। ऐसे अशुद्ध दान-द्रव्यको न लेने में ही भलाई है।
स्वामी करपात्रीजी (1907–1982) एक बहुत बड़े सन्त हुए। इनके बारे में चर्चा ‘कल्याण’ गोरखपुर के दान महिमा अंक (जनवरी 2011) में गोलोकवासी श्री रामशरणदासजी ने अपने लेख में की है। स्वामी श्रीकरपात्रीजी ने स्वामी श्रीकृष्णबोधाश्रमजी के सान्निध्य में दिल्ली के यमुना तट पर एक ऐतिहासिक यज्ञ का आयोजन किया था। लेख में श्री रामशरणदासजी ने लिखा: “मुझे पूरे समय उस महान् सतयुगी दृश्य को देखने, यज्ञ भगवान् के दर्शन करने का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ था। स्वामीजी को बताया गया कि एक धनाढ्य सेठ अच्छी बड़ी रकम यज्ञ के लिए दान करने के आकांक्षी हैं। जब पूज्य स्वामीजी को पता लगा कि सेठ के कपड़े के कारखाने के साथ-साथ एक डिस्टलरी (शराब बनाने का उद्यम) भी है, तो उन्होंने तुरन्त उस धन को यह कह कर स्वीकार करने से मना कर दिया था कि अधर्म की कमाई के धन से यज्ञ की सार्थकता ही समाप्त हो जाएगी। स्वामी श्रीकृष्णबोधाश्रमजी महाराज तो अपने सदुपदेशमें स्पष्ट कहा करते थे पाप की कमाई का मामूली अंश भी यदि भोजन के रूप में ग्रहण कर लिया जाता है तो वह मन, मस्तिष्क, बुद्धि तथा शरीर को विकृत कर डालता है।“
धर्म-कार्यों में तो परिश्रम एवं ईमानदारी से अर्जित पवित्र धन का ही उपयोग कल्याणकारी होता है।
दूषित धन का दूषित प्रभाव
उसी लेख में महात्मा हंसराजजी (1864-1938) का भी जिक्र है। महात्मा हंसराजजी बड़े आर्यसमाजी नेता थे। उन्होंने लाहौर में डीएवी कालेज की स्थापना की थी। यह बहुत बड़ा कालेज लाहौर में आज भी है, परन्तु पाकिस्तान सरकार ने इसका नाम बदल कर इस्लामिया कालेज रख दिया है।
महात्मा हंसराजजी एक बार लाहौर से हरिद्वार आगे हुए थे। वे एक आश्रम में ठहरे हुए थे। वहां एक वानप्रस्थीजी भी वहां ठहरे हुए थे। वानप्रस्थी का मतलब होता है विरक्त, सर्वत्यागी महात्मा। वे अनेक वर्षों से उसी आश्रम में रह कर प्रातः तीन बजे जग कर ईश्वर के ध्यान में मग्न हो जाया करते थे।
एक दिन में अचानक वह महात्मा हंसराजजी के पास पहुँचे। और जोर से रोकर कहने लगे कि महाराज आज तो मैं लुट गया। मेरे वर्षों से अर्जित पुण्य नष्ट हो गए। महात्मा हंसराजजी ने पूछा – ‘बताओ तो सही कि कैसे लुट गए? क्या हो गया?’ तब उन वानप्रस्थीजी ने बताया कि मैं वर्षों से ध्यान करता आ रहा हूँ। बड़ा अनूठा आनन्द मिलता था। आज सबेरे पहली बार ध्यान में व्यवधान पड़ गया। ध्यान में जो आनन्दरूपी ज्योति दिखाई देती थी, उसकी जगह एक युवती दिखाई दी। कई बार पुनः ध्यानावस्थित होने का प्रयास किया, किंतु हर बार लाल वस्त्र पहने युवती दिखाई देती। ऐसी स्थितिमें मैं आज अपने को लुटा-पिटा मानकर दुःखित हूँ।
महात्मा हंसराजजी ने पूछा- ‘वानप्रस्थीजी क्या दिन में कोई उपन्यास तो नहीं पढ़ा? क्या कोई फिल्म देखने तो नहीं चले गए?’ वानप्रस्थीजी ने कहा- ‘महाराज! न तो मैं उपन्यास पढ़ता हूँ, न कभी फिल्म ही देखता हूँ।‘
महात्मा हंसराजजी ने पूछा- ‘क्या कल आश्रम से बाहर तो नहीं गए थे?’ वानप्रस्थीजी ने बताया कि एक साधु मुझे आग्रह करके एक आश्रम में होने वाले भण्डारे में ले गए थे। वहाँ भण्डारे में भोजन किया और लौट आया।
महात्माजी हंसराजजी ने कहा- ‘उस आश्रम में भण्डारा किसके धन से हुआ-यह पता लगानेका प्रयास करो। गलत धन से किए गए भण्डारे का भी यह प्रभाव हो सकता है।‘
वानप्रस्थीजी फिर उसी खोज में लग गए। तब उन्हें पता चला कि बाहर से आए एक ऐसे दुष्टात्मा ने दो हजार रूपए देकर यह भण्डारा कराया था।
महात्मा हंसराजजी ने कहा – घोर अधर्म एवं पाप की कमाई के पैसे से किए गए भण्डारे का दूषित अन्न ग्रहण करने से ही तुम्हारे ध्यान में विघ्न पड़ा तथा युवती दिखाई दी।
उपर्युक्त घटना से यह सिद्ध होता है कि धर्मशास्त्रों का यह कथन सत्य है कि अधर्म एवं पाप के धन के दान से किए जाने वाले यज्ञ, भण्डारे आदि शुभ कार्य भी निष्फल होते हैं।
गीता प्रेस, गोरखपुर की हिन्दी मासिक पत्रिका ‘कल्याण’ में प्रकाशित अपने लेख में श्री रामशरणदासजी ने कहा – मुझे भली भांति स्मरण है कि कुछ दशक पूर्व श्रीमद्भागवत् के एक परम वीतराग व्याख्याता संत ने एक ऐसे आयोजन में उपस्थित होने से इनकार कर दिया था, जिसका पूरा खर्च तम्बाकू एवं बीड़ी-सिगरेट का उत्पादन करने वाले उद्योगपति ने वहन किया था।
‘कल्याण’ के लिए गोलोकवासी श्री रामशरणदास जी के उक्त लेख के प्रेषक थे श्रीशिवकुमारजी गोयल।
‘कल्याण’ शतायु होने को है
वर्ष 1926 से लगातार प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका ‘कल्याण’ हिन्दी की सबसे पुरानी मासिक पत्रिका है। अगले वर्ष 2026 में ‘कल्याण’ शतायु हो जाएगी। इसके बाद नम्बर आता है इंदौर से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका ‘वीणा’ का, जो कि सन् 1927 से प्रकाशित हो रही है।
(लेखक सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं)