एक पहचान के अवशेष।
मंगलेश डबराल।
उत्तराखंड में मेरे एक मित्र के बेटे ने पिछले दिनों गाँव में विवाह करने से इसलिए इनकार कर दिया कि वहां डीजे और जेनेरेटर आदि मंगवाना संभव नहीं था, उसकी धुनों पर झूमने-मटकने, उसे देखनेवाली युवा पीढ़ी नहीं थी और गाँव में बची-खुची बुज़ुर्ग पीढी की इस शहरी गाजे-बाजे में कोई रूचि नहीं थी। अंततः यह विवाह काफी रौनक के साथ उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में संपन्न हुआ। इसी देहरादून में मुझे लोक कवि और गायक नरेन्द्र सिंह नेगी का एक गीत खूब बजता हुआ दिखा: ‘मुझको पहाड़ी-पहाड़ी मत बोलो, मैं देहरादूनवाला हूँ।’ वह एक बदली हुई मानसिकता की ओर संकेत करता था जो कुछ वर्षों में उत्तराखंड के समाज में उभर कर आई है।
अपनी पहाड़ी या गढ़वाली अस्मिता को त्याग कर ‘देहरादूनवाला’ बन जाने की यह तमन्ना आज शायद उस हर नौजवान में नज़र आती है जिसने शहर का स्वाद ले लिया है। वह अपने गाँव को पुराने कपडे की मानिंद उतार फेंकना चाहता है, भले ही इस प्रक्रिया में उसकी बोली-भाषा विस्मृत हो जाये, उसका मिठास-भरा पानी उससे दूर चला जाये और उसका तारों-भरा आसमान गायब हो जाये।
हमेशा विस्थापित रहते हैं विस्थापित
यह एक नया ‘गढ़वाली’ है, जो शहरों में घरेलू नौकरी या गाड़ियों में ड्राइवरी- कन्डक्टरी की पारंपरिक छवि को छोड़कर विकास के भूमंडल का हिस्सा बनने की कश्मकश में है और उसे पता है कि यह तभी हो सकता है जब वह अतीत छोड़कर ऋषिकेश, हरिद्वार, देहरादून जैसे शहरों की रोशनियों के नीचे स्वप्न देखना शुरू करे। इन शहरों के आपपास एक लाख से ज्यादा गढ़वाली पहले से ही मौजूद हैं, जो टिहरी बाँध के कारण विस्थापित हुए थे और जिन्हें नयी शरणगाहों में ज़्यादा उर्वर ज़मीनें ज़रूर मिलीं, लेकिन उनकी जातीय स्मृति, भाषा, उनके पेड़, पानी और लोकगीत उन्हीं गाँवों में छूट गए थे और अथाह पानी में बिला गए थे। जो लोग विस्थापित होते हैं, वे हमेशा विस्थापित रहते हैं और भले ही वे भौतिक लिहाज से बेहतर जीवन की और चले जाएँ, उनका पुनर्वास संभव नहीं होता क्योंकि वे उस बुनियाद को खो चुके होते हैं जिस पर इतिहास और स्मृति का स्थापत्य तामीर होता है। इन इलाकों में बसाये गए लोग धीरे-धीरे अपना ‘गढ़वालीपन’ खोने और ‘देस्वाली’ यानी ‘देसवाले’ बनने लगे जिन्हें कभी-कभी उपहास में ‘कठमाली’ भी कहा जाता है।
‘मैदानीकरण’ तेज हुआ
जब भी पहाड़ की और रुख करता हूँ, मुझे कवि विनोद कुमार शुक्ल की छत्तीसगढ़ के बारे में एक पंक्ति याद आती है: ’पृथक राज्य अइल, पण छत्तीसगढ़ गेल.’ उत्तराखंड भी चौदह वर्ष पहले पृथक राज्य बनने के साथ चला गया था। सन 2000 में इस पर्वतीय राज्य के बनते ही विस्थापन, पलायन और प्रवास को पंख लग गए, गाँव खाली होकर ऋषिकेश, देहरादून, श्रीनगर, हरिद्वार जैसे शहरों की तरफ बढे और दोनों गढ़वालों- टिहरी और पौड़ी- के नागरिकों का ‘मैदानीकरण’ तेज हुआ। उत्तराखंड के कुमायूं क्षेत्र में यह प्रक्रिया उतनी विकराल नहीं हुई क्योंकि वहां नगरीकृत जगहें अपेक्षाकृत ज्यादा हैं जिनमें प्रवासियों को थामने की क्षमता कुछ बची हुई है। मेरे कुछ परिचितों ने जब हाल ही में गढ़वाल जाकर ज़मीनें खरीदीं तो एक बार फिर याद आया कि यह कैसी विचित्र और दोहरी विडम्बना है कि पहाड़ के लोग मैदानी हो रहे हैं और मैदानों के लोग प्रकृति, कम प्रदूषण, सुरक्षा और एकांत की तलाश में पहाड़ जाकर अपने नीड़ और कुटीर बना रहे हैं।
सिमटे हुए गाँव
गढ़वाल के शहर इन दिनों फूले हुए और गुलज़ार दिखते हैं जबकि गाँव सिमटे हुए और अँधेरे के गहराते घेरे बन गए हैं। वहां बूढों-अधेड़ों, औरतों और उन बच्चों के अलावा, जिनकी उम्र अभी मैदान जाने लायक नहीं हुई है, कोई नहीं बचा है। खेती करना लोग लगभग छोड़ चुके हैं और खेतो में पेड़ उग रहे हैं जिनकी जड़ें मिट्टी में नीचे तक चली गयी हैं और जिन्हें उखाड़कर कृषि के लायक बनाना बहुत मेहनत और खर्च का काम होगा। इस ‘वनीकरण’ से रीछ-भालू, मूस-साही, बन्दर-लंगूर इतनी बड़ी तादाद में पैदा हो गए हैं कि कोई फसल उगाता भी है तो उसे जानवर पकने से पहले ही तहस-नहस कर डालते हैं। हेंवल घाटी में विजय जडधारी का बीज बचाओ आन्दोलन देसी बीजों के जरिये जैसे गढ़वाल को बचाने की कोशिश में है, लेकिन उसकी नौजवान पीढ़ी अपने भविष्य की फसल ‘देहरादूनवाला’ बनकर काटना चाहती है।
चूल्हों का जलना और धुएं का उठना पहाड़ के मिटटी-पत्थर के मकानों को मजबूती देता है। पिछली दो बारिशों में मेरा गाँव का घर इसीलिए लगभग पूरी तरह ढह गया कि वहां आग जलानेवला कोई नहीं था। मलबे के नीचे वह हारमोनियम भी कहीं दब गया जिसे मेरे पिता मनोयोग से बजाते थे और जिसकी वजह से वह एक संगीतमय घर था। मेरी बहनों ने वहां जाकर कुछ दरवाज़ों- खिडकियों को निकालकर अलग रख दिया। लेकिन क्या मेरे जीवन की यह घटना गढवाल की अस्मिता का एक रूपक है- एक सभ्यता का समाप्त होना, उसके स्वरों का रुंधना, धीरे-धीरे उसका अवशेष में बदलना? शायद मेरी और मेरे जैसे बहुत से लोगों की वह ‘गढ़वाली’ पहचान अब मेरे घर के खंडहर की तरह है जहाँ हम कभी देखने या भूला-बिसरा कुछ याद करने जा सकते हैं, लेकिन लौट नहीं सकते। जाना लौटना नहीं होता। (साभार)
(मंगलेश जी (16 मई 1948 – 9 दिसंबर 2020) साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित प्रतिष्ठित साहित्यकार एवं पत्रकार थे)