प्रदीप सिंह।
तमाम दलों के बड़े नेता सुरक्षित सीटों से चुनाव लड़ते रहे हैं मगर यह जीत की सौ फीसदी गारंटी नहीं है, कई बार उन्हें भी हार का सामना करना पड़ा है।
समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव मैनपुरी जिले की करहल विधानसभा सीट से चुनाव लड़ेंगे। पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव रामगोपाल यादव की इस घोषणा के साथ ही यह तय हो गया कि अखिलेश यादव विधानसभा का चुनाव लड़ रहे हैं। करहल जसवंत नगर के बिल्कुल बगल वाली सीट है। जसवंत नगर में ही मुलायम सिंह यादव का पैतृक घर है। जसवंतनगर, इटावा, मैनपुरी ये सारे इलाके एक दूसरे से सटे हुए हैं। इन्हें मुलायम परिवार का गढ़ माना जाता है। अखिलेश यादव ने इस सीट को क्यों चुना यह बताने की जरूरत नहीं है। करहल विधानसभा क्षेत्र में लगभग 39% यादव मतदाता हैं। समाजवादी पार्टी का इस क्षेत्र पर लंबे समय से कब्जा रहा है। इसलिए अखिलेश यादव को लगा कि यह सबसे सुरक्षित सीट है।
यादवों पर ही भरोसा
सुरक्षित सीट की तलाश में वह फिर से यादवों की शरण में आए हैं।मौजूदा विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी पिछड़ों की व्यापक एकता की बात कर रही है, एमवाई समीकरण को मुस्लिम-यादव की जगह महिला और यूथ बताया बताया जा रहा है। लेकिन जैसे ही अपनी सीट चुनने का समय आया अखिलेश यह सब भूल गए।उन्होंने मुसलमानों पर भी भरोसा नहीं किया।उत्तर प्रदेश में ऐसी बहुत सारी सीटें हैं जहां मुस्लिम-यादव जो उनका मुख्य वोट बैंक है उसकी संख्या 50-60 प्रतिशततक है। फिर भी उन्होंने ऐसी सीट को नहीं चुना।फिलहाल वे आजमगढ़ से सांसद हैं जहां से मुलायम सिंह यादव भी 2014 से 2019 तक सांसद रहे।यहां की कोई सीट भी उन्होंने नहीं चुनी। लखनऊ जहां वे रहते हैं वहां की कोई सीट भी नहीं चुनी। इससे पता चलता है कि सुरक्षित सीट की तलाश में अखिलेश यादव यादवों की शरण में गए क्योंकि यादवों के अलावा उन्हें किसी और पर भरोसा नहीं है। अब जरा नजर डालें करहल सीट पर।1992में समाजवादी पार्टी बनी और 1993 में पार्टी ने पहली बार विधानसभा चुनाव लड़ा।वर्ष 1993, 1996 और 2002 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी की मुख्य प्रतिद्वंद्वी भारतीय जनता पार्टी थी।2002 में भारतीय जनता पार्टी के रमा शाक्य ने करहल से जीत दर्ज की थी। हालांकि जीत का अंतर बहुत कम था। सिर्फ 925 वोटों से उनकी जीत हुई थी। लेकिन यादव बहुल इस सीट को समाजवादी पार्टी से छीनने में भाजपा कामयाब रही थी। 2007 और 2012 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी की मुख्य प्रतिद्वंद्वी बहुजन समाज पार्टी रही।2017 में फिर से भारतीय जनता पार्टी मुख्य प्रतिद्वंद्वी रही। इसलिए करहल भाजपा के लिए कोई नई सीट नहीं है। यह कोई ऐसी सीट नहीं है जहां भाजपा का जनाधार न हो, उसका कोई आधार न हो, उसका कोई समर्थक न हो। अखिलेश यादव जिस सीट को सुरक्षित मान रहे हैं वह सीट आखिर तक सुरक्षित रहेगी या नहीं यह कहना मुश्किल है।
सुरक्षित सीटों से दिग्गज भी हारे हैं
सुरक्षित सीट की तलाश में तमाम दलों के नेता हमेशा से जाते रहे हैं। अतीत की बात करेंतो वर्ष1991 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के दिग्गज नेता नारायण दत्त तिवारी नैनीताल को सुरक्षित मानकर वहां से चुनाव लड़ने गए थे। तब उत्तर प्रदेश का विभाजन नहीं हुआ था। वे लोकसभा का चुनाव हार गए। यह ऐसा चुनाव था जिसको जीतने के बाद शायद वेनरसिम्हा राव की जगह प्रधानमंत्री बन सकते थे क्योंकि राजीव गांधी की चुनाव के बीच में ही हत्या हो गई थी। वे सुरक्षित सीट की तलाश में ही नैनीताल गए थे और हार गए। थोड़ा और पीछे जाएं तो1984 में भाजपा के कद्दावर नेता अटल बिहारी वाजपेई सुरक्षित सीट की तलाश में अपने गृह प्रदेश मध्य प्रदेश के ग्वालियर जहां उनका जन्म हुआ था वहां से चुनाव लड़ने गए और चुनाव हार गए।इसी तरह हेमवती नंदन बहुगुणा सुरक्षित सीट की तलाश में गढ़वाल छोड़कर इलाहाबाद गए और हार गए। जबकि गढ़वाल उनकी कर्मभूमि थी जहां उन्होंने विकास के बहुत सारे काम किए थे जिन्हेंलोग आज तक याद करते हैं। यह जो सुरक्षित सीट की तलाश होती है यह कई बार बड़ा धोखा देती है। यह मरीचिका साबित होती है। यहां से तो जीत पक्की ही है, यहां से हमें कौन हराएगा, जैसे ही यह बात दिमाग में आती है वैसे ही संकट शुरू हो जाता है।किसी सीट को लेकर नेता का, उसकी पार्टी और उसके समर्थकों का अति आत्मविश्वास हमेशा पार्टी और नेता पर भारी पड़ता है।
पांच साल में काफी बदला है यूपी
करहल सीट इतनी आसान नहीं है जितना अखिलेश यादव समझ रहे हैं। लेकिन करहल को चुनने के उनके फैसले ने कई सवाल खड़े किए हैं। उनका जो सामाजिक न्याय का नारा है, सामाजिक न्याय की जो बात वे करते हैं, लोहिया की जो बात करते हैं, समाजवादी विचारधारा की बात करते हैं और इसके अलावा व्यापक सामाजिक जुड़ाव की बात करते हैं, सामाजिक सद्भाव की बात करते हैं,सब बेमानी हैं क्योंकि उनकीपूरी राजनीति यादवों तक सिमटी हुई है। जब से पार्टी बनी है तब से लेकर आज तक पार्टी की विचारधारा में कोई अंतर नहीं आया है कि यादव ही सर्वोच्च है। केवल यादव ही हैं जिस पर अखिलेश यादव और मुलायम सिंह यादव को पूरी तरह से भरोसा है। वे चुनाव लड़ने के लिए ऐसी सीट की तलाश करते हैं जहां यादवों की संख्या सबसे ज्यादा हो लेकिन शायद अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी के लोग यह भूल रहे हैं कि पिछले पांच साल में क्या हुआ है। पिछले पांचसाल में उत्तर प्रदेश के हर जिले में बदलाव हुआ है। मैनपुरी उससे अछूतानहीं है। मैनपुरी में भी जो यादवों की गुंडागर्दी थी वह खत्म हो गई है। मैनपुरी के आम लोगों से जाकर पूछिए तो आपको पता चलेगा कि क्या बदलाव हुआ है।उनकीदादागिरी थी कि गाड़ी पर समाजवादी पार्टी का झंडा लगाकर चलते थे तो किसी पुलिस वाले की उन्हें रोकने या पूछने की हिम्मत नहीं होती थी। आम आदमी की तो बात ही छोड़िए। लोगों के लिए सुरक्षित जीवन मुश्किल हो गया था। यह केवल मैनपुरी की बात नहीं कर रहा हूं। उन सभी जगहों पर जहां यादवों की और मुसलमानों की संख्या ज्यादा थी हर जगह ऐसा ही था।
उत्तर प्रदेश के एक पूर्व डीजीपी ने कहा था कि यूपी पुलिस को यह मौखिक आदेश था कि किसी यादव या मुसलमान के खिलाफ एफआईआर दर्ज नहीं होगी। अगर किसी अपराध की वजह से मजबूरी में एफआइआर दर्ज करनी भी पड़े तो उनकी गिरफ्तारी नहीं होगी।थानों में अगर आप इन दोनों समुदायों के खिलाफ रिपोर्ट लिखाने जाते तो इस बात की आशंका ज्यादा रहती थी कि आपके खिलाफ ही मुकदमा दर्ज हो जाए। मगर अब ऐसा नहीं है। यह जो बदलाव है इसके बारे में समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव शायद नहीं सोच रहे हैं। पिछले पांचसाल में योगी आदित्यनाथ पर विरोधियों ने, खासकर समाजवादी पार्टी ने क्या आरोप लगाया है- जातिवाद का। उन पर आरोप लगाने के लिए कोई मुद्दा मिला नहीं, उनकी ईमानदारी, उनके शासन, उन्होंने जिस तरह से माफिया के खिलाफ काम किया, जिस तरह से भ्रष्टाचार पर नकेल कसी और परिवारवाद का कहीं दूर-दूर तक नामोनिशान नहीं है, इन सब को देखते हुए उनके पास कोई और मुद्दा नहीं था तो उनकी जाति को मुद्दा बनाया। संत की कोई जाति नहीं होती है।जो संत बनते हैं तो वे अपना पूरा परिवार छोड़ कर आते हैं। खुद अपना श्राद्ध करके आते हैं और इसे नया जीवन मानते हैं। इसलिए कहा गया है- जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।
जातिवादी कौन- अखिलेश या योगी
अब आप देखिए कि जातिवादी कौन है? अखिलेश यादव ने जब चुनाव लड़ने का फैसला किया तो ऐसी सीट चुनी जहां यादवों की संख्या सबसे ज्यादा है। इसके बरक्स आप योगी आदित्यनाथ को देखिए। गोरखपुर शहर जहां से वे चुनाव लड़ रहे हैं वहां सिर्फ साढ़े पांच प्रतिशतठाकुर मतदाता है। उन्होंने जाति देख कर इस सीट का चुनाव नहीं किया, इस तलाश में नहीं गए कि कहां ठाकुर मतदाता ज्यादा हैं क्योंकि वे जाति में यकीन नहीं करते। वह जाति के बंधन को तोड़ चुके हैं और ऐसे व्यक्ति पर पांचसाल तक विपक्ष जातिवाद का आरोप लगाता रहा है। इसका इससे बड़ा प्रमाण कुछ और नहीं हो सकता कि योगी आदित्यनाथ जाति के आधार पर काम नहीं करते, जाति के आधार पर फैसले नहीं लेते।जबकि उन पर जातिवाद का आरोप लगाने वाले खुद जाति के आधार पर फैसले लेते हैं और उसी आधार पर काम करते हैं। अखिलेश यादव ने करहल को चुनकर यह बता दिया कि उनकी सोच में, उनके पिता और उनकी पार्टी की सोच में कोई अंतर नहीं आया है। वह जो पिछड़ों की एकता की बात करते हैं उन पिछड़ों की एकता का उनके लिए मतलब है यादवों की सर्वोच्च सत्ता। यानी यादवोंको सर्वशक्तिमान बनाना। यानी यादवों पर और सिर्फ यादवों पर भरोसा। एक जाति पर भरोसे के आधार पर अखिलेश यादव चुनाव मैदान में उतरे हैं। मैनपुरी और करहल के लोग क्या फैसला करेंगे यह न तो मुझे मालूम है और न आपको। लेकिन मैं इतना कह सकता हूं कि अखिलेश यादव करहल की सीट को जितना सुरक्षित मानकर चल रहे हैं शायद उतनी सुरक्षित न रहे।