प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारतीय भाषाएँ-1
बालेन्दु शर्मा दाधीच।
कुछ महीने पहले जब ई-कॉमर्स क्षेत्र की वैश्विक वेबसाइट अमेजॉन.कॉम के हिंदी संस्करण का लांच हुआ तो इसके पीछे का संदेश यह था कि प्रौद्योगिकी से किसी न किसी तरह जुड़े संस्थानों और सेवाओं के लिए हिंदी से दूर रहना अब एक जोखिम का काम बनता जा रहा है।
अमेजॉन इंडिया के वरिष्ठ अधिकारियों ने कहा कि उनकी कंपनी ने इंटरनेट पर उपभोक्ताओं की पसंद-नापसंद का सर्वेक्षण करवाया था जिससे यह स्पष्ट हुआ कि हर दस में से आठ लोग इंटरनेट पर खरीददारी के लिए अपनी भाषा का प्रयोग करना पसंद करते हैं। ऐसे में अमेजॉन तो क्या कोई भी ई-कॉमर्स कंपनी भारतीय भाषा-भाषियों के अथाह बाजार की उपेक्षा करने का जोखिम नहीं ले सकती। यह बात कमोबेश समूचे प्रौद्योगिकीय वातावरण पर लागू होती है। ई-कॉमर्स ही क्यों, सॉफ़्टवेयर, हार्डवेयर, क्लाउड, इंटरनेट-सेवाओं, ई-शिक्षा, ई-प्रशासन, वर्चुअल असिस्टेंट, इंटरनेट ऑफ़ थिंग्स, डेटा विश्लेषण, कृत्रिम मेधा आदि सभी अहम क्षेत्रों में भारतीय भाषाओं, विशेषकर हिंदी को अधिक समय तक अनदेखा करना किसी भी संस्थान के हित में नहीं है। प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हिंदी और भारतीय भाषाओं ने मजबूत जड़ें बनानी शुरू कर दी हैं। आने वाले वर्षों में यही भाषाएँ ऑनलाइन और ऑफलाइन, दोनों ही स्तरों पर दबदबा बनाएंगी।
90 फीसदी लोगों की उपेक्षा हुई
भारत में दस फीसदी लोग भी अंग्रेजी बोलते-समझते नहीं हैं। लेकिन प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में लंबे समय तक बाकी बचे हुए 90 फीसदी लोगों की उपेक्षा हुई है। तकनीक को शक्ति, विशेषकर आर्थिक शक्ति से जोड़कर देखा जाता रहा है और शायद इसीलिए ज्यादातर काम सिर्फ दस फीसदी लोगों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर किया जाता रहा। यह भी सही है कि हमारी भाषाओं का बाजार पहले इसके लिए पूरी तरह तैयार नहीं था। लेकिन अब हालात बदल रहे हैं। अंग्रेजी में कारोबार अपने शीर्ष पर पहुँच चुका है, बल्कि ठहराव की स्थिति में है। अमेजॉन का उदाहरण लें तो उसे अपने 15 करोड़ पंजीकृत ग्राहकों से आगे बढ़ने के लिए हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं की शरण में जाना ही होगा। अमेजॉन का लक्ष्य 50 करोड़ भारतीयों तक पहुँचने का है। अंग्रेजी भाषियों के जरिए तो यह संभव नहीं है। उनकी सीमित संख्या पिछली जनगणना से स्पष्ट हो चुकी है।
भारत संभावनाओं का नया स्रोत
हकीकतन हिंदी में तकनीकी विकास अवश्वयंभावी है। और यह बदलाव तकनीकी कारणों की तुलना में आर्थिक-सामाजिक-राजनैतिक परिस्थितियों से अधिक प्रेरित है। वैश्विक स्तर पर भारत का आर्थिक तथा भू-राजनैतिक दृष्टि से मजबूत होकर उभरना और उसके साथ-साथ हमारे यहाँ पर उपभोक्ता का समृद्ध, सशक्त व जागरूक होना इसका अहम कारण है। आज जो देश आर्थिक दृष्टि से मजबूत है और जहाँ पर बाजार है, वैश्विक परिदृश्य में उसका उतना ही महत्व है। विश्व बैंक के अनुसार इस वर्ष भारतीय अर्थव्यवस्था 7.3 की वार्षिक वृद्धि दर हासिल करने जा रही है जो बड़े देशों में सर्वाधिक है। भारत फ्रांस को पीछे छोड़कर इसी साल दुनिया की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। आर्थिक ठहराव से चिंतित वैश्विक कंपनियों के लिए भारत संभावनाओं का नया स्रोत बनकर उभरा है। उन्हें बाजार की तलाश है और हम बाजार उपलब्ध करा रहे हैं। ऐसे में हर क्षेत्र की बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ भारत की ओर आकर्षित हो रही हैं और तकनीकी कंपनियाँ इसका अपवाद नहीं है।
ज़रूरतें, महत्वाकांक्षाएँ बढ़ी
सीधे शब्दों में कहें तो भारत के पास अब संख्याबल भी है और खर्च करने के लिए पैसा भी। आम भारतीय की प्रति व्यक्ति वार्षिक आय बढ़ते-बढ़ते एक लाख 30 हजार रुपए के करीब जा पहुँची है। सन 2000-2001 में यह महज 16,173 रुपए हुआ करती थी। यानी आम भारतीय की आय औसतन हर छह साल में दोगुनी हो रही है। इधर शिक्षा का स्तर भी बेहतर हुआ है तथा तकनीकी जागरूकता भी बढ़ी है। आर्थिक क्षमता बढ़ने के साथ-साथ भारतीय नागरिकों की ज़रूरतें भी बढ़ी हैं और महत्वाकांक्षाएँ भी। बेहतर जीवनशैली की ओर उनकी यात्रा बाजार में मांग पैदा कर रही है। यह मांग तमाम क्षेत्रों में है, जिनमें तकनीकी उत्पाद और सेवाएँ भी शामिल हैं। बाजार मांग और सप्लाई के नियम के आधार पर चलता है। मांग पैदा हो रही है तो नए उत्पाद भी आएँगे और चूँकि बाजार में ग्राहक ही राजा है इसलिए सप्लायर को ग्राहक की ज़रूरतों के लिहाज से ढलना पड़ेगा। इस लिहाज से मैं हिंदी में तकनीकी विकास को लेकर आश्वस्त हूँ।किंतु इसका एक दूसरा पहलू भी है।
उपभोक्ता का समर्थन जरूरी
प्रश्न उठता है कि कंपनियों के स्तर पर तो ठीक है लेकिन अपने स्तर पर हम, यानी उपभोक्ता, इस स्थिति का कितना लाभ उठा रहे हैं। क्या हमारी आवश्यकताएँ मोबाइल फोन, कंप्यूटर आदि को खरीदने और संचार तथा ई-कॉमर्स जैसी सेवाओं के प्रयोग तक सीमित रहेंगी? सब कुछ बाजार के रहमोकरम पर नहीं छोड़ा जा सकता। तकनीकी कंपनियाँ अपनी ओर से उन तमाम क्षेत्रों में विकास करेंगी जो उनकी दृष्टि में आवश्यक हैं या प्रयोक्ता की बुनियादी ज़रूरत हैं। लेकिन इससे आगे वे तभी बढ़ेंगी जब हम उत्पादों को खरीदेंगे और इस्तेमाल करेंगे। मोबाइल और कंप्यूटर को खरीदना तो एक बुनियादी ज़रूरत है लेकिन हम उनका कितना और कैसे उपभोग करते हैं, आगे का तकनीकी विकास इस पर निर्भर करेगा। अगर हम अपने आपको सिर्फ कन्टेन्ट के उपभोग तक सीमित रखते हैं, अर्थात् वीडियो आदि देखना, खबरें पढ़ना और संगीत सुनना, तो उसकी बदौलत आप भविष्य में तकनीकी लिहाज से बहुत अधिक आगे जाने की उम्मीद नहीं लगा सकते। ज़रूरत इस बात की है कि आप इन संसाधनों का कितना उत्पादकतापूर्ण प्रयोग करते हैं। आप कितने तथा किस किस्म के सॉफ्टवेयर खरीदते हैं, अपने प्रधान कामकाज में भारतीय भाषाओं में तकनीक का किस तरह प्रयोग करते हैं, आपकी उत्पादकता में इनसे किस तरह वृद्धि होती है, शिक्षण तथा सरकारी-गैर-सरकारी सेवाओं से जुड़े तकनीकी अनुप्रयोगों में आप कितनी दिलचस्पी रखते हैं आदि आदि। मैं यहाँ पर भाषा तकनीकों के गुणवत्तापूर्ण तथा उत्पादकतापूर्ण प्रयोग की बात कर रहा हूँ। चाहे जितना तकनीकी विकास हो जाए, यदि उपभोक्ता उसे समर्थन नहीं देंगे तो भारतीय भाषाएँ उस किस्म की तकनीकी सक्षमता प्राप्त नहीं कर सकेंगी जैसी हमारी आकांक्षा है।
बहुत कुछ होना बाकी
आज हमारी भाषाओं में जो तकनीकी जागरूकता दिखाई दे रही है उसके पीछे नई पीढ़ी का सर्वाधिक योगदान है जिसके लिए तकनीक कोई हौवा नहीं है। लेकिन सब कुछ घटित नहीं हो चुका है। बहुत कुछ होना बाकी है।
भारत को तकनीकी दृष्टि से बड़ी शक्ति बनाने के लिए जिस तरह का उत्साह और दीवानगी होनी चाहिए थी,उस हद तक हम अभी नहीं पहुँचे हैं। भारतीय भाषाओं में हमारा ज्यादा ध्यान कन्टेन्ट के उपभोग, संचार और सोशल नेटवर्किंग पर है। जैसे भारत में यू-ट्यूब पर देखे जाने वाले कुल वीडियो में से 90 प्रतिशत से ज्यादा भारतीय भाषाओं में होते हैं। फेसबुक के उपभोक्ताओं की दृष्टि से भारत का पहला स्थान है जहाँ पर उसके 27 करोड़ प्रयोक्ता हैं।व्हाट्सऐप के बीस करोड़ सक्रिय मासिक प्रयोक्ता भारत से आते हैं।भारतीय भाषाओं के स्मार्टफोन एप्प डेली हंट के नौ करोड़ से अधिक प्रयोक्ता हैं। इस तरह के प्लेटफॉर्मों के अपने लाभ हैं, जैसे यू-ट्यूब जैसे माध्यम न सिर्फ मनोरंजन के प्रधान माध्यम बन रहे हैं बल्कि शिक्षण, कौशल विकास और जागरूकता बढ़ाने में भी उनकी भूमिका है। व्हाट्सऐप, फेसबुक,ट्विटर, शेयरचैट और डेली हंट आदि आम उपभोक्ता को निरंतर सूचनाओं से लैस करने तथा उन्हें जोड़ने में जुटे हैं। अब ज़रूरत है कि भारतीय भाषाओं के प्रयोक्ता तकनीक का उत्पादकता के लिए भी जमकर इस्तेमाल करें- यानी अपने दफ्तर के कामकाज में, बेहतर शिक्षा पाने के लिए, सरकारी-गैर-सरकारी सेवाओं के प्रयोग के लिए। एक और सवाल जो मुझे कचोटता है वह यह कि हिंदी का उपभोक्ता भला टेबल के दूसरी तरफ ही क्यों रहे, यानी उपभोक्ता के रूप में ही? वह खुद सप्लायर या प्रदाता क्यों न बने? वह खुद तकनीकें निर्मित क्यों न करे, खुद ई-शिक्षा प्रदान क्यों न करे, खुद सेवाओं का निर्माता क्यों न बने? संक्षेप में कहें तो टिकाऊ तकनीकी विकास और डिजिटल अर्थव्यवस्था बनाने के लिए ज़रूरी है कि हम भारतीय नई तकनीकों में निहित संभावनाओं का लाभ समग्रता से उठाएँ। हमारे पास मेक इन इंडिया और डिजिटल इंडिया जैसे प्लेटफॉर्म मौजूद हैं ही।
(लेखक माइक्रोसॉफ्ट में भारतीय भाषाओँ के निदेशक-स्थानीयकरण और अभिगम्यता के पद पर कार्यरत हैं/ साभार: समन्वय हिंची)