दहेज हत्या मामले में ज़मानत देने से किया मना।
सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार, 28 नवंबर को ऐसे आदमी की ज़मानत रद्द की, जिस पर शादी के सिर्फ़ चार महीने बाद दहेज के लिए अपनी पत्नी को ज़हर देने का आरोप है। ऐसा करते हुए कोर्ट ने दहेज की बुराई की आलोचना की, जो समाज में अभी भी मौजूद है और शादी के पवित्र बंधन को सिर्फ़ एक कमर्शियल लेन-देन बना देती है।
लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार, जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस आर महादेवन की बेंच ने मृतक के पिता की अपील मंज़ूरी देते हुए और इलाहाबाद हाईकोर्ट का आदेश रद्द करते हुए कहा, “यह कोर्ट इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता कि शादी असल में आपसी भरोसे, साथ और सम्मान पर बनी एक पवित्र और नेक संस्था है। हालांकि, हाल के दिनों में यह पवित्र बंधन दुख की बात है कि सिर्फ़ एक कमर्शियल लेन-देन बनकर रह गया है। दहेज की बुराई, जिसे अक्सर तोहफ़े या अपनी मर्ज़ी से दिए जाने वाले चढ़ावे के तौर पर छिपाने की कोशिश की जाती है, असल में यह सोशल स्टेटस दिखाने और पैसे के लालच को पूरा करने का एक ज़रिया बन गई।”
उल्लेखनीय है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपनी उक्त फैसले में आरोपी पति को ज़मानत दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “दहेज के लिए हत्या की घटना इस सामाजिक बुराई का सबसे बुरा रूप है, जहां एक जवान औरत की ज़िंदगी उसके ससुराल में खत्म कर दी जाती है- उसकी अपनी कोई गलती नहीं होती, बल्कि सिर्फ़ दूसरों के कभी न मिटने वाले लालच को पूरा करने के लिए। ऐसे घिनौने अपराध इंसानी इज़्ज़त की जड़ पर हमला करते हैं और भारत के संविधान के आर्टिकल 14 और 21 के तहत बराबरी और इज़्ज़त से जीने की संवैधानिक गारंटी का उल्लंघन करते हैं। वे समुदाय के नैतिक मूल्यों को कमज़ोर करते हैं, औरतों के खिलाफ़ हिंसा को आम बात बनाते हैं और एक सभ्य समाज की नींव को कमज़ोर करते हैं।”

कोर्ट ने अपराध की गंभीरता, मरने से पहले दिए गए बयानों और दहेज के लिए हत्या की कानूनी धारणा को नज़रअंदाज़ करने के लिए हाई कोर्ट के ज़मानत आदेश को “उल्टा और टिकने लायक नहीं” पाया। अपील करने वाले का केस यह था कि उसकी बेटी की शादी 22 फरवरी, 2023 को रेस्पोंडेंट नंबर 1 से हुई थी। आरोप था कि शादी के तुरंत बाद उसे एक्स्ट्रा दहेज, खासकर एक फॉर्च्यूनर कार के लिए बेरहमी से मारा गया और परेशान किया गया। 5 जून, 2023 को कथित तौर पर ज़हर खाने के बाद बहुत ही संदिग्ध हालात में उसकी मौत हो गई।
प्रॉसिक्यूशन का केस काफी हद तक मृतका के अपनी बड़ी बहन को उसकी मौत की रात करीब 1:30 AM बजे किए गए डिस्ट्रेस कॉल पर निर्भर है, जिसमें उसने कहा था कि उसके पति और रिश्तेदारों ने उसे “ज़बरदस्ती कोई बदबूदार चीज़” दी है। फोरेंसिक साइंस लेबोरेटरी (FSL) रिपोर्ट ने बाद में एल्युमिनियम फॉस्फाइड ज़हर होने की पुष्टि की। हाईकोर्ट का आदेश गलत बताते हुए जस्टिस महादेवन के लिखे फैसले में कहा गया, “ऐसे जघन्य अपराधों के मुख्य आरोपियों को ज़मानत पर आज़ाद रहने देना, जब सबूतों से पता चलता है कि उन्होंने शारीरिक और मानसिक क्रूरता की, न सिर्फ़ ट्रायल की निष्पक्षता को खतरे में डाल सकता है, बल्कि क्रिमिनल जस्टिस के प्रशासन में लोगों का भरोसा भी कम कर सकता है।” कोर्ट ने कहा, “यह अच्छी तरह से साबित हो चुका है कि ज़रूरी बातों- जैसे अपराध की गंभीरता, पहली नज़र में सबूत, या आरोपी के पिछले रिकॉर्ड – पर ठीक से ध्यान दिए बिना दी गई ज़मानत रद्द की जा सकती है। कोर्ट को सभी हालात पर विचार करना चाहिए और अपराध की गंभीरता, समाज के हित और आज़ादी के गलत इस्तेमाल के जोखिम के साथ बेगुनाही की सोच को बैलेंस करना चाहिए।” कोर्ट ने आगे कहा, “हाईकोर्ट का अपराध की गंभीरता, मरने से पहले दिए गए बयानों और पोस्टमॉर्टम सबूतों पर विचार न करना, इस आदेश को गलत और टिकने लायक नहीं बनाता है।” इसलिए अपील मंज़ूर कर ली गई।



