थिएटर के मरजीवा अरुण पाण्डेय-1।
सत्यदेव त्रिपाठी।
अरुण पांडेय अपने थिएटर-कर्म के 50 साल पूरे कर रहे हैं, सुनकर कैसा लग रहा है, के अपने जज़्बात को यदि मै शब्दों में उतारूँ, तो वह नग़्मात (कविता) की मदद के बिना सम्भव न होगा –‘हूँ आज प्रवाहित मैं ऐसे, जैसे कवि के हृदयोदगार। मै रोक नहीं सकता इसको, कर नहीं सकूँगा इसे पार’।
लेकिन पार करने की कोशिश अब अटाल्य है। यह संस्मरण वर्षों से अपने मन का खुद से वादा था, अरुण व उसके रंगकर्म से अपने इश्क़ का तक़ाज़ा था, लेकिन वह तीसरा घटक अब आ गया है कि मिसरा पूरा हो जाये–‘रस्म-ए-उल्फ़त भी है, वादा भी है, मौक़ा भी है।
इतना विपुल रंगकर्म
आज 19 अगस्त, 2021 है, जब यह लिखना शुरू कर रहा हूँ। और वो 11 अगस्त, 1999 था, जब अरुण पाण्डेय से पहली बार हमारी भेंट हुई थी। 22 साल हो गये। और उनके सक्रिय रंगकर्म के 50 साल आगामी अक्तूबर में पूरे हो चुके हैं। याने उनके रंगजीवन के 28 सालों बाद हम मिले थे। तब भारतीय रंग जगत में जबलपुर शहर को जिस रंग-संस्था ‘विवेचना’ के नाम से जाना जाता था, उसी के बैनर तले अरुण पांडेय काम करते थे। अब वही रंग जगत जबलपुर को अरुण पाण्डेय के नाम से जानता है, जो ‘विवेचना रंग मंडल’ चलाते हैं। ‘विवेचना’में से ‘विवेचना रंग-मंडल’ बनने की चर्चा शायद आगे आये… लेकिन यहाँ अभी यह कि मै इन पचास सालों के लिए भगवान को हाज़िर-नाज़िर करके कह सकता हूँ कि उनके रंगकर्म ने यह सिद्ध किया है कि प्रतिभा और व्यक्तित्त्व किसी रंग समूह के मोहताज नहीं होते, बल्कि अरुण पांडेय जैसे व्यक्तित्त्वों से चलते हैं रंग मंडल, सरनाम होता है कोई शहर… गर्वोन्नत होता है उस कला का मस्तक। शंभू मित्र व हबीब तनवीर जैसे तमाम रंगकर्मी तथा उनके समूह इसके प्रमाण हैं, लेकिन किसी सरकारी अनुदान, सम्मान व तमग़े आदि के बिना सिर्फ़ अपनी कर्मठता के बल पर पूरे जीवन इतना विपुल रंगकर्म करने वाले अरुण पांडेय जैसे बहुत कम (प्राय: नहीं के बराबर) लोग होंगे, जिसमें शामिल हो- लगभग चार दशकों से रंगमंडल का कुशल संचालन, पूर्ण से लेकर एक-अंकी, एकल एवं नुक्कड़… आदि सभी प्रदर्शन-रूपों (फ़ॉर्म्स) में शताधिक नाटकों के निर्देशन, दर्जनाधिकि नाटकों के लेखन-रूपांतरण, शुरुआत में काफ़ी और बाद में कभी-कभार अभिनय भी और हज़ारों शोज़। और ये सब जीवंत हों- एक से एक अनूठी प्रयोगधर्मिता से एवं ज्वलंत हों गहन वैचारिकता से सम्पन्न सामाजिक सरोकारों से।
स्वागत होता यहाँ सभी का…
ऐसे अरुण पाण्डेय आज अपने आप में एक रंग संस्था हैं। इसका प्रमाण उनको मिले सम्मान-पुरस्कार, उन पर लिखे लेख व उनके साक्षात्कार आदि नहीं देंगे, बल्कि जबलपुर की सड़कें, गलियाँ व चौराहे-चौबारे देंगे, वहाँ की मिट्टी देगी… उस मिट्टी से निकले वे सैकड़ों-सैकड़ों रंग-रत्न देंगे, जो पूरे देश में अपनी आभा बिखेर रहे हैं –मंच से लेकर छोटे-बड़े पर्दों तक। और वे जब कभी लौटकर अपने घर जबलपुर आते हैं, अरुण के स्नेहाशीष व हार्दिक शुभकामनाएँ पाके निहाल होते हैं, लेकिन अरुण का जबलपुर उनके ‘हरि हारिल की लकरी’है। उनके रंगपट पर लिखा सनातन सूत्र है -‘स्वागत होता यहाँ सभी का, नहीं किसी की यहाँ प्रतीक्षा’। इसका प्रमाण यह है कि संस्थापकों एवं रंगमंडल के कुछ स्थायी रंगकर्मियों के अलावा इनके साथ 30-35 युवा हमेशा सक्रिय रहते हैं। ऐसी नाट्यकर्मी चेतना वाले अरुण पांडेय अपने जबलपर से यह संदेश दे रहे हैं कि अपना ‘लोकल ही ग्लोबल है’। और कह दूँ कि अपनी कर्मभूमि (जी, उनकी जन्मभूमि बनारस है) जबलपुर के प्रति ऐसी एकनिष्ठता के साथ रंगकर्म का ऐसा अलख जगाने वाले अरुण जैसे ‘वर पुरुष बहुत जग नाहीं’, वरना तो सारे के सारे अपने अंचलों को छोड़-छोड़ कर यूँ गये कि कबीर के शब्दों में ‘जो जो गये, बहुरि नहिं आये। पूरे देश में यदि ऐसे अरुण पांडेय दस-बीस भी होते, तो अपने देश का तमाम लोक ‘रंग’ विहीन मही मैं जानी’ न होता!
रंगकर्म और सिर्फ़ रंगकर्म
अरुण पांडेय ने रंगकर्म और सिर्फ़ रंगकर्म किया है… बल्कि कहें कि उन्होंने रंगकर्म को जीया है। नाटक ही उनका जीवन रहा है– हाँ, जीवन बिलकुल भी नाटक नहीं रहा, बल्कि एक अदद-खाँटी जीवन रहा है। ऐसा कुछ, जो रंगकर्म से रत्ती भर भी हट के हो, रंगेतर हो, उनकी ज़ेहन में आया नहीं। शुरुआत फ़ुल टाइम पत्रकारिता से की थी, जो फिर कभी गाहे-बगाहे करते भी रहे –विद्युत् माध्यम वाली भी किया- इसीलिए कि वह सब करके रंगकर्म कर सकें।
नाटक से अरुण ने कुछ चाहा नहीं। चाहा भी हो, तो कभी कहा नहीं। और नाटक से उन्हें बहुत कुछ मिला अकूत…, पर नाटक के लिए वैसा कुछ नहीं मिला– न कोई बड़ा पुरस्कार-सम्मान, न कोई बड़ा ओहदा, जो कि अमूमन सबको मिलता है। उनके काम के दसवें हिस्से जितना भी करनेवाले बहुतों को वह सब मिला है। नाटक का एक बड़ा संभार उनके मन-मस्तिष्क में समाया रहा, जो निरंतर बढ़ता जा रहा है, जिसे वे मंच पर नाट्य रूप में तो उँड़ेलते रहे, लेकिन प्रचारित करना उन्हें आया नहीं। ‘अपने मुँह तुम्ह आपनि करनी, बार अनेक भाँति बहु बरनी’ की कला में वे बेहद फिसड्डी सिद्ध हुए हैं और दुनिया आज इसी की है। फिर अपने रंगकर्म के ज़रिए अभिजनों से सम्पर्क बनाने-बढ़ाने का काम तो कैसे होता उनसे! यह उनको आया नहीं। आता भी रहा हो, तो करना भाया नहीं। सो, किया नहीं। गरज ये कि अपने किये का विज्ञापन-प्रदर्शन उनसे हुआ नहीं। उनका किया हुआ गुलदस्ता बनके नाट्य-मेलों, नुमाइशों में सजा नहीं… हाँ, रंगकर्म से उन्हें एक भरापूरा जीवन मिला है– ईमानदार व कर्मनिष्ठ जीवन। हम उनके लिए फ़ख़्र से और वे खुद के लिए शान से कह सकते हैं–
बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे, खुले मेरे ख़्वाबों के पर धीरे-धीरे/ किसी को गिराया, न खुद को उठाया, कटा ज़िंदगी का सफ़र धीरे-धीरे/ कहीं जब गिरा, तो अकेले ही रोया, यूँ ही गया घाव भर धीरे-धीरे/ पहाड़ों की कोई चुनौती नहीं थी, उठाता गया यूँ ही सर धीरे-धीरे…
रँग-समुद्र के गोताखोर
और यह सर न कहीं झुका, न कभी लटका। उठा है– गर्वोन्नत, शान से। इसीलिए मै अपने मन में अरुण पांडेय को नाटक का ‘मरजीवा’ कहता हूँ। मरजीवा का सामान्य व शाब्दिक अर्थ मर के जीने वाला ही है और अरुण नाम का बंदा यही तो करता है- नाटक के लिए मर-मर के नाटक में ही जीता है। ‘मरजीवा’ को लक्ष्यार्थ बनाकर दुनियावी भाषा में सुविधा के लिए ‘पनडुब्बा’ याने ‘गोताखोर’ कहते हैं और अरुण रँग-समुद्र के गोताखोर ही तो हैं। लेकिन अरुण के लिए जिस अर्थ-प्रक्रिया में यह शब्द मेरे मन में उठा और समाया है, वह कबीर के नाम पर प्रचलित एक दोहे में मिलता है–
‘मोती उपजे सीप में, सीप समुंदर मांहि। कोइ मरजीवा काढ़ेसि जीवन को ग़म नाहिं’।।
हालाँकि मानक ग्रंथावलियों में दोहा ऐसे ही नहीं, पर प्रच्छन्न मिलता है। लेकिन नाटक में यही करते मैंने अरुण को देखा है- दुनिया के समुद्र में पड़ी सीपी में छिपे नाटक के मोती को ‘जीवन (मरने) को ग़म नाहिं’ की क़ीमत पर रंगजीवन में आकंठ डूबकर ‘काढ़ता’ है। और किसे शक होगा कि ऐसा करने वाला ‘मरजीवा’ शब्द के एक व्यंज्यार्थ में ‘अमर’ न बनेगा?
(लेखक कला एवं संस्कृति से जुड़े विषयों के विशेषज्ञ हैं)