पृथ्वी को बचाने के लिए प्रकृति के साथ सद्भाव बनाए रखते हुए उसे सुरक्षित एवं संरक्षित रखना होगा। प्राकृतिक संसाधनों का दोहन एवं शोषण नहीं, बल्कि उनका भरण-पोषण करना होगा। तभी हम पृथ्वी को बचा पायेंगे। यह कहना है पर्यावरणविद डा. गणेश पाठक का।

अमरनाथ मिश्र पीजी कालेज दूबेछपरा के पूर्व प्राचार्य व जननायक चन्द्रशेखर विश्वविद्यालय के पूर्व शैक्षणिक निदेशक डा. गणेश पाठक ने प्रकृति को लेकर गंभीरता से अपनी बातें रखी हैं। उन्होंने कहा कि पर्यावरण प्रदूषण की भयावहता से प्रभावित होकर अमेरिकी सीनेटर जेराल्ड नेल्सन ने सर्वप्रथम 22 अप्रैल 1970 को पृथ्वी दिवस मनाने का निर्णय लिया था। तब से प्रतिवर्ष 22 अप्रैल को एक नए थीम को लेकर पृथ्वी दिवस मनाया जाता है। इस वर्ष का मुख्य थीम है ”हमारे ग्रह में निवेश करें।” यहां प्रश्न यह है कि आखिर हम अपने ग्रह अर्थात पृथ्वी में क्या निवेश करें ?

डा. पाठक ने बताया कि मानव एवं पर्यावरण एक दूसरे के पूरक हैं। परस्पर समायोजन द्वारा ही पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी तंत्र को बचाकर पृथ्वी को विनष्ट होने से बचाया जा सकता है। इसके लिए सबसे आवश्यक है पृथ्वी को हरा-भरा बनाना एवं जल का संरक्षण कर जल को बचाना तथा वर्षा जल संचयन द्वारा जल की सम्पूर्ति करना। साथ ही साथ पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी के प्रत्येक कारकों को सुरक्षित एवं संरक्षित करना तथा उनकी अभिवृद्धि करना। डा. पाठक ने बताया कि प्रारम्भ से ही मानव प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग करता आ रहा है, लेकिन जब तक मानव एवं प्रकृति का संबंध सकारात्मक रहा, तब तक पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी असंतुलन संबंधी कोई भी समस्या नहीं उत्पन्न हुई। जैसे-जैसे मानव की भोगवादी प्रवृत्ति एवं विलासितापूर्ण जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अनियोजित एवं अनियंत्रित विकास के लिए प्राकृतिक संसाधनों का अतिशय दोहन एवं शोषण बढ़ता गया,पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी तंत्र का असंतुलन बढ़ता गया। जिससे पर्यावरण प्रदूषण, ग्रीन हाउस प्रभाव में वृद्धि, ओजोन परत का क्षरण, ग्लोबल वार्मिंग एवं जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप प्राकृतिक आपदाओं में भी निरन्तर वृद्धि होती जा रही है। मानव पर पर्यावरण के प्रभाव एवं पर्यावरण पर मानव के प्रभाव दोनों में बदलाव आता गया। जिसके परिणामस्वरूप अनेक तरह के बढ़ते घातक प्रदूषण तथा ग्लोबल वार्मिंग एवं जलवायु परिवर्तन के चलते मानव एवं पर्यावरण के अंतरसंबंधों में भी बदलाव आता गया। मानव के कारनामों के चलते हरितगृह प्रभाव एवं ओजोन परत के क्षयीकरण ने इसमें अहम भूमिका निभाई, जिससे पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी तंत्र में तीव्रता के साथ बदलाव आता गया। कारण कि पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी के विभिन्न कारक तेजी से समाप्त होते गये। जिससे पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी तंत्र में असंतुलन बढ़ता गया और मानव वातावरण के अंतरसंबंधों में भी बदलाव आता गया।

मानव व पर्यावरण के मध्य करना होगा समायोजन

डा. गणेश पाठक ने कहा कि आज आवश्यकता इस बात की है कि यदि हमें पृथ्वी को बचाना है तो पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी तंत्र के समाप्त हुए घटकों की पुनर्बहाली करनी होगी। इसके लिए मानव एवं पर्यावरण के मध्य समायोजन करना होगा। पर्यावरण के साथ सतत सद्भाव बनाकर जीवनयापन करना होगा। तभी पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी तंत्र को सुरक्षित एवं संरक्षित रखा जा सकेगा। साथ ही पृथ्वी को जीवन जीने योग्य बनाया जा सकेगा। इसके लिए सबसे आवश्यक है पृथ्वी को हरा-भरा बनाना।

बलिया में प्राकृतिक वनस्पति न के बराबर

पर्यावरणविद डा. गणेश पाठक ने कहा कि बलिया की स्थिति तो इस संदर्भ में अति दयनीय है। जहां प्राकृतिक वनस्पति एक प्रतिशत से भी कम है। यानी न के बराबर है। मानवरोपित वनस्पतियां भी दो प्रतिशत से कम ही हैं। जबकि सम्पूर्ण धरातल के कम से कम 33 प्रतिशत भाग पर वनाच्छादन का होना आवश्यक है। यही नहीं पृथ्वी के गर्भ में जल का अधिक से अधिक संभरण करना भी आवश्यक है। इस प्रकार यदि हमें इस धरा को बचाना है तो वन एवं जल दोनों तत्वों का दोहन एवं शोषण रोककर धरती पर इसकी समृद्धि के लिए अधिक से अधिक वनाच्छादन करना होगा। वर्षा जल का संचयन कर धरती को जल से संतृप्त करना होगा।(एएमएपी)