आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक 10 हजार हिंदुओं का कत्ल, एक लाख का पलायन।
प्रदीप सिंह।
देश में सरकार किसकी हो यह हम आप यानी मतदाता तय करते हैं, लेकिन सिस्टम किसका हो यह हम आप तय नहीं कर सकते। 75 साल से यह सिलसिला चल रहा है। सरकार कोई तय करता है, सिस्टम कोई और बनाता है। इस बात से ज्यादा अंतर नहीं पड़ता है कि सरकार किसकी है। अगर अंतर पड़ता है या उसका महत्व है तो इस बात का कि सिस्टम किसका है। इस सिस्टम के सामने सरकार भी बेबस नजर आती है। इस सिस्टम को जब तक तोड़ा नहीं जाएगा- बदला नहीं जाएगा- तब तक सरकार बदलने का जो लक्ष्य है वह हासिल नहीं होने वाला। सरकार बदलने के साथ-साथ सिस्टम भी बदलना चाहिए।
सरकार किसकी है इससे नहीं, सिस्टम किसका है इससे फर्क पड़ता है
फिर, सिस्टम कैसे बदलेगा? इसे सरकार बदल सकती है- और सरकार पर जन दबाव से इसमें बदलाव लाया जा सकता है। जो लोग इस सिस्टम को चला रहे हैं उनको एक्सपोज करने से, उनके बारे में जो बातें हैं उनको सामने लाने से कि वे किस तरह से देश और समाज का नुकसान कर रहे हैं- सिस्टम में बदलाब लाया जा सकता है। यहाँ यह बात करने का एक संदर्भ है। यह संदर्भ है केरल के मालाबार का मोपला नरसंहार- जो 25 सितंबर,1921 को हुआ था। ऐसा नहीं है नरसंहार सिर्फ इसी दिन हुआ था, यह अगस्त से सितंबर तक चलता रहा। इस दिन तो नरसंहार की सबसे लोमहर्षक घटना हुई थी। इस दौरान हिंदुओं का कत्लेआम होता रहा। आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक,10 हजार हिंदुओं का कत्ल हुआ और एक लाख हिंदू वहां से पलायन कर गए। इसके अलावा कई हजार हिंदुओं का धर्म परिवर्तन कराया गया, उनको प्रताड़ित किया गया और गौ हत्या की गई। आने वाले 25 सितंबर को इस घटना को 101 साल हो जाएंगे। आप अंदाजा लगाइए कि इस इतिहास से कैसे वंचित रखा गया, तथ्यों को कैसे छुपा कर रखा गया। इसका एक संदर्भ और है। मोपला विद्रोह क्यों हुआ उसमें बहुत सी बातें हैं लेकिन इसकी पृष्ठभूमि बनी खिलाफत आंदोलन से। यह खलीफा की स्थापना के लिए था। प्रथम विश्व युद्ध के बाद तुर्की में खिलाफत आंदोलन खत्म हुआ। उसको स्थापित करने के लिए भारत में भी आंदोलन हुआ और उस आंदोलन का समर्थन महात्मा गांधी ने कर दिया।
खिलाफत आंदोलन और गाँधी जी
डॉ. भीम राव अंबेडकर ने लिखा है कि महात्मा गांधी ने जिस विश्वास और जिस दृढ़ता के साथ इस आंदोलन का समर्थन किया उसको देखते हुए मुसलमान भी भौंचक्का रह गए कि वह ऐसा कैसे कर सकते हैं। खिलाफत आंदोलन पर डॉ. अंबेडकर ने ही नहीं, बल्कि देश के तमाम बड़े लोगों ने बोला-लिखा है। एनीबिसेंट ने कहा कि हमने खिलाफत का राज देख लिया। मोपला विद्रोह के बाद उन्होंने कहा था कि हम भारत में ऐसा राज फिर कभी देखना नहीं चाहेंगे। इसके अलावा बहुत से लोगों ने उस समय गांधीजी को समझाने की कोशिश की लेकिन गांधीजी को लगता था कि इसका समर्थन करके भारतीय मुसलमानों को ब्रिटिश राज के खिलाफ एकजुट कर सकते हैं। लेकिन हुआ यह कि वे एकजुट तो हुए लेकिन काफिरों के खिलाफ। अलाउद्दीन खिलजी और औरंगजेब के बाद हिंदुओं के खिलाफ जो घृणा मुसलमानों के मन में दबी हुई थी वह बाहर आ गई। हिंदुओं के खिलाफ मुसलमानों की जो एकजुटता है उसमें खिलाफत आंदोलन ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई और उसी का नतीजा था मोपला का नरसंहार। जब मुसलमानों को लगा कि हम लड़कर ब्रिटिश साम्राज्य को हरा सकते हैं, अंग्रेजों को यहां से भगा सकते हैं तो इस्लामी राज्य की स्थापना भी कर सकते हैं। इसलिए काफिरों की यहां जरूरत नहीं है। इस्लाम तो यही कहता है कि मूर्ति पूजा करने वालों को जीने का अधिकार है ही नहीं। तो वे अपने धर्म के मुताबिक कर रहे थे। यही बात गांधीजी ने भी कही। गांधीजी ने नरसंहार की आलोचना तो की और कहा कि उन्होंने अहिंसा का पालन नहीं किया लेकिन इसके साथ उन्होंने खिलाफत आंदोलन के लिए जो बात कही उस पर भी गौर कीजिए। इन नर-पिशाचों के लिए उनहोंने कहा कि ये देश में सबसे बहादुर लोग हैं और हिंदुओं को इसे बर्दाश्त करना चाहिए क्योंकि खिलाफत आंदोलन के लोग जो कुछ कर रहे हैं वह अपने धर्म के मुताबिक कर रहे हैं। यहीं से गांधीजी के प्रति हिंदुओं के मन में एक विद्वेष पैदा हुआ। हिंदुओं में उनसे जो नाराजगी पैदा हुई उसकी शुरुआत यहीं से हुई। इसके अलावा अन्य बहुत से कारण थे, अलग-अलग लोगों के अलग-अलग कारण हैं- लेकिन मोपला नरसंहार पर उनके बयान से बहुत लोग चकित हुए।
इतिहास को दबाने, तोड़ने-मरोड़ने तोड़ने की कोशिश
डॉ. अंबेडकर ने कहा कि गाँधी जी का यह बयान समझ से परे है। गांधीजी इस नरसंहार का समर्थन कैसे कर सकते हैं। इसके अलावा उन्होंने कहा कि बहुत से लोगों ने खिलाफत आंदोलन के दौरान भी गाँधी जी को समझाने की कोशिश की थी लेकिन वे नहीं माने। हालांकि, बाद में गांधीजी ने यह स्वीकार किया कि खिलाफत आंदोलन का समर्थन करके उन्होंने भूल की, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। तब तक मामला हाथ से निकल चुका था। मोपला विद्रोह के बारे में किसी को पता न चले, पहले तो इस इतिहास को दबाने की कोशिश की गई, जो कुछ सामने आया उसको दूसरे रूप में सामने आने दिया गया। कहा गया कि यह जमींदारों के खिलाफ किसानों और खेतिहर मजदूरों का विद्रोह था। वामपंथी इतिहासकारों ने इसे जमींदारों के खिलाफ विद्रोह के रूप में पेश किया और कांग्रेस पार्टी आज तक उसी को जस्टिफाई करती है। शशि थरूर ने अभी हाल ही में एक कार्यक्रम में कहा कि वह इसलिए हुआ क्योंकि ज्यादातर जमींदार हिंदू थे और खेतिहर मजदूर और किसान ज्यादातर मुसलमान थे। इसलिए आपको लगता है कि यह हिंदू-मुसलमानों के बीच में हुआ लेकिन असल में यह खेतिहर मजदूरों और जमींदारों के बीच में हुआ था। यह बिल्कुल गलत बात है और सफेद झूठ है। इतिहास को दबाने, बदलने, तोड़ने-मरोड़ने तोड़ने की कोशिश है। इस इतिहास को बताने की अलग-अलग तरीके से लोगों ने कोशिशें की हैं।
उस समय कालीकट जिला के जो कलेक्टर थे उन्होंने एक किताब लिखी। उसमें उन्होंने 25 सितंबर,1921 की घटना का जिक्र किया है। उस दिन की घटना सबसे लोमहर्षक थी। 40 हिंदुओं के हाथ-पैर बांधकर घसीटते हुए लाया गया। उनमें से तीन को गोली मार दी गई और बाकी जो 37 बचे थे उनके सिर काटकर पास के कुएं में फेंक दिया गया। उनमें से एक व्यक्ति का सिर दो टुकड़ों में काटा गया। इतनी बड़ी घटना हो, इस तरह का नरसंहार हो, उसका इतिहास में जिक्र किस रूप में हो- यह सिस्टम ने तय किया। वह सिस्टम आज भी काम कर रहा है।
नरसंहार पर फिल्म का हश्र
मैं ये बातें सिर्फ इसलिए नहीं कह रहा हूं कि 25 सितंबर आने वाला है। वह तो है ही- उसके अलावा एक और संदर्भ है। केरल के एक निर्माता ने मोपला नरसंहार पर एक फिल्म बनाने की हिम्मत की। उनका नाम है रामसिम्हन अबू बकर। यह उनका हिंदू नाम है। पहले मुसलमान थे अब हिंदू बन गए हैं। उनका मुस्लिम नाम अली अकबर है। उन्होंने इतिहास के पन्नों से निकालकर इस नरसंहार पर एक फीचर फिल्म बनाई। फिल्म बनाकर वह केरल के सेंसर बोर्ड के पास गए। स्टेट बोर्ड के डायरेक्टर ने पहले तो फिल्म का रजिस्ट्रेशन करने से मना कर दिया। इस पर रामसिम्हन ने कहा कि आप रजिस्ट्रेशन नहीं करेंगे तो मैं हाईकोर्ट जाऊंगा। तब उन्होंने रजिस्ट्रेशन किया। उसके बाद बोर्ड ने फिल्म को पास करने से मना कर दिया और उसे रेफर कर दिया राष्ट्रीय सेंसर बोर्ड को। राष्ट्रीय सेंसर बोर्ड ने कुछ छोटे-मोटे दृश्य को काटकर इसे पास कर दिया और निर्माता से कहा कि इसे ए सर्टिफिकेट देंगे क्योंकि इसमें काफी हिंसा है। निर्माता-निर्देशक को इससे कोई ऐतराज नहीं था। वे मान गए लेकिन फिर उनको रिवीजन के लिए बुलाया गया।
रिवीजन में इतने सारे कट लगाए गए कि उसके बाद यह फिल्म हिंदुओं के नरसंहार की बजाय जमींदारों के खिलाफ विद्रोह की फिल्म बन गई। उनसे कहा गया कि इसमें से अल्लाह हू अकबर और नारा ए तदबीर के जो नारे हैं उनको कम कर दीजिए। हिंसा के, धर्म परिवर्तन के, गौ हत्या के, हिंदुओं की हत्या के, 25 सितंबर,1921 की घटना के जो दृश्य हैं, एक इलाके को इस्लामी राज्य घोषित करने का जो दृश्य है- उन सबको हटा दीजिए। मालाबार के मोपला मुसलमानों ने हिंदुओं का जो कत्ले-आम किया उसकी बात, उसकी चर्चा, उस पर फिल्म आज भी नहीं दिखा सकते,ऐसे काम करता है सिस्टम। इतना ही नहीं, रामसिम्हन से कहा जा रहा है कि आप इस फिल्म में अपना मुस्लिम नाम रखिए। अब आप इससे अंदाजा लगाइए कि किस तरह से सिस्टम काम करता है।रामसिम्हन का कहना है कि जितने कट्स लगाए गए हैं उसके बाद उनकी यह फिल्म ही नहीं रहेगी। जो ऐतिहासिक तथ्य बताने के लिए वे यह फिल्म बना रहे थे वह तो पीछे चला गया। वह तो कहीं रह ही नहीं गया। यह कहानी वह बन गई जो वामपंथी इतिहासकार बताते हैं। ये है सिस्टम की ताकत। अब उनको समझ में नहीं आ रहा है कि करें तो क्या करें। अब वह हाई कोर्ट जाने की सोच रहे हैं। हाई कोर्ट से क्या फैसला आएगा, उनके पक्ष में होगा या नहीं होगा पता नहीं लेकिन इस बात को आप समझ जाइए कि आज भी सिस्टम उतना ही ताकतवर है। आठ साल से इसे बदलने की कोशिश हो रही है लेकिन इसकी जकड़न, इसकी ताकत, इसका हौसला, उसमें जो जीवट है अपने को बनाए रखने का, टस से मस नहीं होने का- उसका उदाहरण है यह मोपला नरसंहार का इतिहास बताने की कोशिश।
सिस्टम हावी, सरकार बेबस
सरकार किसकी है यह बताने की जरूरत नहीं है। यह सरकार तो इस इतिहास को जरूर बताना चाहेगी लेकिन सिस्टम हावी है। इसलिए मैं बार-बार कहता हूं कि जो सरकार की नाकामी दिखती है वह सिस्टम की वजह से है। सरकार भी एक सीमा के बाद बेबस नजर आती है क्योंकि सब कुछ खत्म नहीं किया जा सकता है। यह तानाशाही नहीं है, हम लोग डेमोक्रेसी में हैं। बहुत सी चीजें आप चाहकर भी नहीं बदल सकते। आप कानून बना लीजिए, सुप्रीम कोर्ट से रद्द हो जाएगा। समस्या एक नहीं है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि लड़ना छोड़ देना चाहिए, कोशिश बंद कर देनी चाहिए। कोशिश करते रहना चाहिए। आप देखिए कि आठ साल में कितना परिवर्तन आया है, हालांकि यह धीमा है। जितना अपेक्षित था उतना नहीं है। लेकिन इस परिवर्तन की गति आने वाले समय में बढ़ने वाली है। जैसे-जैसे यह साफ हो जाएगा कि हम इस सिस्टम को हरा सकते हैं, इसको तोड़ सकते हैं तो इसके खिलाफ रहने वालों की हिम्मत बढ़ेगी, उनका आत्मविश्वास बढ़ेगा। जो इस सिस्टम को बनाए हुए हैं वे हतोत्साहित होंगे। हमारा सारा प्रयास यह होना चाहिए कि इस तरह का सिस्टम चलाने वाले हतोत्साहित हों- कमजोर हों- बाहर हों। इस देश को और समाज को अगर बचाना है तो यह करना पड़ेगा। सरकार और सिस्टम दोनों जब एक हो जाएंगे तब आपको बड़ा बदलाव दिखेगा।