औरंगजेब के अंधभक्तों से एक निवेदन।
डॉ. मयंक चतुर्वेदी।
भारत में अब औरंगजेब की संतानें भले ही दफन हो गई हों, किंतु उस जिहादी सोच से संचालित नफरती इतने अधिक पैदा हो गए हैं कि वे सच को स्वीकारना तो दूर, उसके कहे जाने पर पत्थर बरसाने और भयंकर हिंसा करने पर उतारू हो जाते हैं।
महाराष्ट्र में क्रूर आक्रांता औरंगजेब की कब्र हटाने का विवाद तो एक बहाना है, जैसे कि हिंसा करने के लिए समय-समय पर अन्य बहानों का सहारा लिया गया, असल में उन्हें तो हिन्दू घर और दुकानों में आग लगाना है। हिन्दुओं की संपत्ति को अधिक से अधिक नष्ट करना है, हिन्दुओं को मारना है, यहां तक कि सुरक्षा में लगी पुलिस को भी अपनी हिंसा का शिकार बनाना है। वस्तुत: आज इन हिंसक गतिविधियों को देखकर यही लगता है कि ये सभी वे लोग हैं जोकि इस्लाम के नाम पर औरंगजेब की तरह ही सिर्फ मजहबी आधार पर नफरत के बीज बो रहे हैं। इनकी नजर में गैर मुसलमान होना ही अपराध है, जैसे कभी औरंगजेब समेत मुगलों और उसके पहले भारत आए इस्लामिक आक्रान्ताओं का इतिहास रहा है।
नागपुर महाराष्ट्र में जो हुआ, उसके एक के बाद एक साक्ष्य ठीक वैसे ही सामने आ रहे हैं, जैसे कि मध्य प्रदेश के महू में हुई इस्लामिक हिंसा हो आ अन्य स्थानों पर अचानक से भीड़ की शक्ल में आकर धावा बोलनेवाले इस्लामिक लोगों का आतंक सामने आता रहा है। पत्थरबाजी करने वाली भीड़ ने चुन-चुनकर हिंदुओं की संपत्तियों को निशाना बनाया। तलवारों से दरवाजों को काटने की कोशिश की। जिन्हें नहीं काट पाए, वहां तेल डालकर आग लगा दी । गाड़ियों को फूँक दिया। पहचान करते हुए एक भी मुस्लिमों के घर, दुकान, गाड़ियों को छुआ तक नहीं गया। इन जिहादियों ने पहले सारे कैमरे तोड़े, फिर हथियारों के साथ प्लानिंग से हिंसा को अंजाम दिया।
इस पर भी आरोप लगानेवाले नागपुर हिंसा पर उल्टे हिन्दू समाज को खासकर को ही दोषी ठहरा रहे हैं कि क्यों वे औरंगजेब की कब्र को हटाने की मांग कर रहे हैं। इससे मुसलमानों की भावनाएं आहत हुईं। कहा जा रहा है कि विश्व हिंदू परिषद ने औरंगजेब की कब्र हटाने की माँग को लेकर प्रदर्शन किया और औरंगजेब का पुतला जलाया, जिसमें यह अफवाह फैली कि कुरान जला दी गई है। उसमें हरा कपड़ा जैसी आपत्तिजनक सामग्री थी। पुलिस ने इसे झूठ बताया, पर मुस्लिम भीड़ ने इसे बहाना बनाकर हिंसा शुरू कर दी। सोचनेवाली बात है कि हरा कपड़ा कैसे आपत्तिजनक सामग्री हो गई? लेकिन नहीं; उन्हें तो हिंसा करनी है और वह कर दी! नागपुर के इलाके महाल, कोतवाली, गणेशपेठ और चितनवीस पार्क से इस्लामिक जिहादी नकाबपोश सड़कों पर उतरे और लाठियों, पत्थरों, बोतलों और पेट्रोल बम से एक-एक को चिन्हित कर हिन्दू घर, दुकान, उनकी गाड़ियों पर हमला करने लगे! समझ नहीं आता; जब औरंगजेब तुम्हारे बाप-दादा नहीं फिर उनके लिए इतनी हमदर्दी क्यों? क्या इसलिए कि वह गैर मुसलमानों को बर्दाश्त नहीं करता था ?
इतिहास औरंगजेब के अत्याचारों से भरा पड़ा है, जिस पिता ने पैदा किया, उसे ही इतने बुरे हाल में रखा गया था कि आखिर उस पिता शाहजहां को अपनी आत्मकथा ‘शाहजहांनामा’ में कहना ही पड़ा, ‘‘खुदा करे कि ऐसी औलाद किसी के यहां पैदा ना हो। औरंगजेब से अच्छे तो हिंदू हैं, जो अपने माता-पिता की सेवा करते हैं और उनकी मृत्यु के बाद तर्पण करते हैं।” औरंगजेब ने शाहजहां को आगरा के किले में कैद करके रखा था और उन्हें पानी तक के लिए तरसाया था। केवल पिता ने ही उसके बारे में बुरा नहीं लिखा, बल्कि जो औरंगजेब के साथ रहते थे, उनके लिखे एवं अन्य लोगों के कई वर्णन मौजूद हैं।
जजिया दो या इस्लाम कबूल करो
सोच सकते हैं! औरंगजेब ने छत्रपति शिवाजी के बेटे संभाजी महाराज के साथ जो किया, वह न जाने कितने हिन्दुओं के साथ उसने किया था, भयंकर प्रताड़ना देकर इस्लाम में धर्मांतरित करने के लिए यहां तक गया कि उसने गरीबों तक को नहीं बख्शा। 2 अप्रैल 1679 को फरमान जारी किया कि जिम्मी (गैर मुसलमान) लोगों को जजिया कर देना होगा। जब इसके विरोध में दिल्ली में भीड़ सड़कों पर आई तो इसने हाथियों से उन्हें कुचलवानें में तनिक भी देरी नहीं की। कई हिन्दुओं को मार देने के बाद भी इसकी जजिया कर वसूली जारी रही। औरंगजेब जजिया को कितना जरूरी मानता था , इसका पता उसके दिए इस आदेश से मिलता है, अपने वजीरों से उसने कहा, ‘‘तुम्हें बाकी करों में छूट की आजादी है, लेकिन काफिरों पर जजिया लगाने में मुझे मुश्किल से कामयाबी मिली है, इसलिए अगर कहीं तुम लोगों ने जजिया में छूट दी तो यह इस्लाम के खिलाफ होगा।” इतिहासकार जदुनाथ सरकार एतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर बताते हैं कि हिंदुओं को मुस्लिमों की तुलना में राज्य के अन्य करों के साथ ही अतिरिक्त रूप से उसकी एक तिहाई राशि का जजिया के तौर पर भुगतान करना अनिवार्य था।
प्रयाग में गंगा स्नान तभी जब हिन्दू दे देता था सवा छह रुपए
इतना ही नहीं, प्रयाग में गंगा स्नान के लिए जाने वालों पर उसने सवा छह रुपए का यात्री कर लगा दिया था, यानी गंगा में एक हिन्दू तभी डुबकी लगा सकता था, जब वह पहले इतना रुपया जमा करवा दे, अन्यथा उसे अपने पूर्वजों का तर्पण और अस्थी विसर्जन करने तक की अनुमति नहीं थी। दूसरी ओर मुस्लिम व्यापारियों तक के लिए उसने चुंगी खत्म कर दी थी। वहीं, हिन्दू व्यापारियों पर पांच फीसद चुंगी लगा कर कर के नाम पर वसूली की जा रही थी। इतिहासकार जदुनाथ सरकार के अनुसार कानूनगो बनने के लिए इस्लाम कुबूल करना जरूरी था। औरंगजेब के समकालीन इतिहासकार मनुची लिखता है कि कमजोर वर्ग के हिन्दू जो जजिया या अन्य कर का भुगतान नहीं कर पाते थे, वे अपमान और उत्पीड़न से छुटकारा पाने इस्लाम कुबूल कर लेते। जैसा कि इन दिनों बांग्लादेश और पाकिस्तान में देखने में आ रहा है।
वर्ष 1665 में उसने यह कहकर कि हिंदू अंधविश्वास में दीपोत्सव (दीपावली) पर दिए जलाते हैं। इसलिए यह बंद हो और उसने बाजारों को रोशन करने पर पाबंदी लगा दी। होलिका दहन और रंग उत्सव खेलने पर भी उसने पाबंदी लगाना चाही। यहां तक कि उसने कुंभ जैसे हिन्दू मेलों को भी बंद करने के लिए कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी। 1666 में हरिद्वार में लगा कुंभ इस जिहादी औरंगजेब की बर्बरता की याद दिलाता है। औरंगजेब ने कुंभ मेले पर हमला कर हजारों हिंदुओं का नरसंहार किया था। इतिहास में इससे जुड़े अनेकों प्रमाण मौजूद हैं। अकेले इतिहासकार जदुनाथ सरकार ने हिस्ट्री ऑफ औरंगजेब में नहीं बल्कि तत्कालीन समय की अन्य पुस्तकों में भी यह जिक्र आया है।
एहसान फरामोशी की इंतेहा
औरंगजेब को हिंदुओं के प्रति उदार बताने की कोशिशें ऐतिहासिक सच्चाइयों से उलट हैं। साम्राज्य के विस्तार या फिर रणनीतिक जरूरतों के लिहाज से भले उसने कुछ हिन्दू राजाओं से संधियां कीं या मुगल दरबार में उन्हें जगह दी , पर आम हिंदू उसके लिए काफिर थे, जिनके लिए कुरान और हदीस जो कहती हैं, उसी के अनुसार इन सभी (काफिरों) के लिए उसके शासन में किसी उदारता की गुंजाइश नहीं थी। राजा जयसिंह के बाद उसने किसी हिंदू को गवर्नर नहीं बनाया। लेकिन वह उनके प्रति भी कभी कृतज्ञ नहीं रहा, उल्टा उनकी मौत की खबर सुनकर दरबार में खुशी का इजहार करने लगा था, वास्तव में औरंगजेब कितना एहसान फरामोश बादशाह था, वह उसके इस व्यवहार से पता चलता है, एक प्रसिद्ध इतालवी यात्री, निकोलाओ मनुची, जिन्होंने अपना अधिकांश जीवन भारत में बिताया, ने अपने उद्धरण में लिखा, ‘‘एक राजा से छुटकारा पाकर, जिसका प्रभाव उसके राज्य के लिए खतरनाक हो सकता था, उसने उसी क्षण हिंदू धर्म के विरुद्ध खुले युद्ध की घोषणा कर दी। उसने तुरंत ही दिल्ली के पड़ोस में स्थित लालता नामक सुंदर मंदिर को नष्ट करने का आदेश भेजा। उसने प्रत्येक वायसराय और गर्वनर को अपने अधिकार क्षेत्र में आने वाले सभी मंदिरों को नष्ट करने का आदेश दिया। अन्य मंदिरों में मटोरा (मथुरा) का महान मंदिर भी नष्ट कर दिया गया, जो इतना ऊंचा था कि उसका सोने का पानी चढ़ा हुआ शिखर अठारह मील दूर आगरा से देखा जा सकता था। इसके स्थान पर एक मस्जिद बनाई जानी थी, जिसे उसने एस्सलामाबाद (इस्लामाबाद) नाम दिया, जिसका अर्थ है, ‘विश्वासियों द्वारा निर्मित। उसने यहां से हिंदुओं के तपस्वी और संत योगियों एवं संन्यासियों को निष्कासित कर दिया। उसने निर्देश दिया कि दरबार के उच्च अधिकारी जो हिंदू थे, अब अपने प्रभार नहीं संभालेंगे, बल्कि उनके स्थान पर मुसलमानों को रखा जाना चाहिए। उसने हिंदुओं को उनके मौज-मस्ती एवं उत्सव मनाने से रोक दिया’’ ( स्टोरिया डू मोगोर , खंड II, पृष्ठ 154)
साक्षात् राक्षस
औरंगजेब ने मौत का भय एवं प्रताड़ना की हर सीमा पार कर न जानें कितनों को इस्लाम में धर्मांतरित होने के लिए मजबूर किया । वो तो संभाजी थे, छत्रपति शिवाजी महाराज के पुत्र, जिन्होंने मृत्यु का आलिंगन स्वीकार किया, किंतु मुसलमान होना नहीं। संभाजी महाराज के दुखद अंत की कहानी ब्रिटिश भारत में सिविल सेवक और इतिहासकार रहे डेनिश किनकेड ने अपनी किताब “शिवाजी: द ग्रैंड रिबेल” में विस्तार से लिखी है। इस्लाम के इस मजहबी मतान्ध औरंगजेब ने संभाजी महाराज की अत्यंत क्रूर तरीके से हत्या करवाई थी। औरंगजेब के कहने पर जब छत्रपति संभाजी महाराज और उनके कवि दोस्त कवि कलश इस्लाम कबूलने से इनकार किया तो उन दोनों को कई दिनों तक भयंकर अमानवीय यातनाएं दी गईं। सबसे पहले संभाजी महाराज की जीभ काट कर रात भर तड़पने के लिए उन्हें छोड़ दिया गया। फिर लोहे की गर्म सलाखें घोपकर उनकी आंखें निकाली गईं, लेकिन वे फिर भी इस्लाम स्वीकार नहीं करते हैं। औरंगज़ेब ने अपना डर कायम रखने के लिए और हिन्दुओं की रूह कँपाने के लिए संभाजी के सिर को कई शहरों में घुमाया। इतना ही नहीं संभाजी महाराज का हिन्दू रीति से दाह संस्कार न हो सके, इसके लिए उनके शरीर के कई टुकड़े कर नदी में बहा दिए ।
बनारस
जीन-बैप्टिस्ट टैवर्नियर (1605-1689), फ्रांसीसी व्यापारी और यात्री थे, उन्होंने भारत में व्यापार के साथ अपनी यात्रा का विवरण प्रकाशित किया। उनकी दो खण्डो में आई पुस्तक Travels in India: Volume 1 and 2 (Cambridge Library Collection) पुस्तक के भाग एक के पृष्ठ संख्या 118-119 में वे बनारस को एक अच्छे शहर के रूप में वर्णित करते हैं। अपने यात्रा वृत्तान्त में इन दो फ्रांसीसी यात्रियों बर्नियर और तावेर्निए ने लिखा कि बनारस एक बड़ा और बहुत अच्छी तरह से बना हुआ शहर है, ज्यादातर घर ईंट और कटे हुए पत्थर के बने हैं…इसमें कई सराय हैं।…प्रांगण के बीच में दो गैलरी हैं जहाँ वे सूती कपड़े, रेशमी सामान और अन्य प्रकार के माल बेचते हैं। माल बेचने वालों में से अधिकांश वे कारीगर हैं जिन्होंने इसे बनाया है, और इस तरह विदेशी इसे सीधे प्राप्त करते हैं।…मूर्तिपूजकों का एक प्रमुख शिवालय बनारस में है, और मैं इसका वर्णन पुस्तक II में करूँगा, जहाँ मैं… धर्म के बारे में बात करूँगा। …शहर से लगभग 500 कदम की दूरी पर, उत्तर-पश्चिमी दिशा में, एक मस्जिद है जहाँ आपको कई मुस्लिम कब्रें दिखाई देंगी। …यहां नाव में चढ़ने से पहले सभी यात्रियों के सामान की जाँच होती है, व्यक्तिगत संपत्ति पर कोई शुल्क नहीं देना पड़ता है, और केवल माल पर ही शुल्क देना पड़ता है।
और तोड़ दिया गया काशी विश्वनाथ मंदिर …
इस यात्रा का जिक्र कर इतिहासकार मोती चंद्र ने अपनी पुस्तक ‘काशी का इतिहास’ में इस बात का उल्लेख किया है कि जब ये दोनों 1660 ई. और 1665 ई. के बीच बनारस आए थे तब के समय औरंगजेब की धार्मिक असहिष्णुता का शिकार बनारस नहीं हुआ था, इसलिए इन दोनों ही विदेशी यात्रियों ने शिवालय के रूप में बाबा विश्वनाथ मंदिर का जिक्र किया है, यह तब तक तोड़ा नहीं गया था। इसके साथ यह भी ध्यान में आता है कि मस्जिद का जो जिक्र इनके यात्रा वृत्तान्त में आया है, वह शहर से 500 कदम की दूरी पर स्थित थी, न कि बीच शहर में। यानी काशी में सिर्फ शिवमंदिर एवं अन्य हिन्दू देवी-देवताओं के मंदिर ही मौजूद थे। लेकिन जैसे ही औरंगजेब ने बादशाह का ताज पहना वैसे ही सबसे पहले काशी की ओऱ वह चल पड़ा। उसने पूरे देश में फैले अपने सूबेदारों को फरमान जारी किया कि सभी सूबेदार अपनी इच्छा से हिन्दुओं के सभी मंदिरों और पाठशालाओं को गिरा दें। मूर्ति पूजा पूरी तरह से बंद होना चाहिए, वह उसे करवा दें। 18 अप्रैल 1669 को दिए गए उसके इस आदेश के बाद उसे इसी वर्ष 2 सितंबर 1669 को खबर दी गई कि काशी के प्रसिद्ध विश्वनाथ मंदिर को गिरा दिया गया है। इतिहासकार मोती चंद्र अपनी इस पुस्तक “काशी का इतिहास” में यह भी लिखते हैं कि औरंगजेब ने यह तर्क दिया था कि ‘मंदिरों में गैर इस्लामिक चीजें पढ़ाई और सिखाई जाती हैं। उसने अपने हतोत्साहित सैनिकों को भी यही कह कर हौसला दिया था कि यह ऊपर वाले की इच्छा है कि यह मंदिर ध्वस्त किए जाएं।’
वस्तुत: इस घटना के संदर्भ में यहां बताना है कि औरंगजेब की सबसे प्रमाणिक जीवनी ‘मासिर-ए-आलमगीरी’ को माना जाता है, इस किताब में औरंगजेब के द्वारा काशी विश्वनाथ मंदिर को तोड़े जाने की घटना का पूरा जिक्र मौजूद है। मंदिर तोड़कर ज्ञानव्यापी मस्जिद का निर्माण हुआ था। मुहम्मद ताहिर (1628-671) जिन्हें उनके नाम इनायत खान के नाम से जाना जाता है ने शाहजहाँनामा में औरंगजेब के अब्बा शाहजहाँ का जीवन वृत्तांत लिखा है, उनके मुंशी मोहम्मद साफी मुस्तइद खां ने ही यह मआसिर-ए-आलमगीरी लिखी है।
हिन्दुओं से इतनी नफरत
मासिर-ए-आलमगीरी के मुताबिक 9 अप्रैल 1669 को औरंगजेब ने अपने सभी प्रांतों के गवर्नर को आदेश जारी किए कि हिंदुओं के सभी स्कूलों और मंदिरों को ध्वस्त कर दिया जाए। मासिर-ए-आलमगीरी के ही एक और प्रमाण के मुताबिक एक बार जब औरंगजेब चित्तोड़ पहुंचा तो उसने वहां कई मन्दिरों में हिन्दुओं को पूजा करते हुए देखा, जिसके बाद उसने चित्तौड़ के मन्दिरों को ध्वस्त करा दिया। “… शनिवार, 24 जनवरी 1680 दूसरे मुहर्रम को बादशाह राणा द्वारा निर्मित उदयसागर झील देखने गए और उसके किनारे पर स्थित तीनों मंदिरों (जिसमें कि अन्य 189 मंदिर थे) को ध्वस्त करने का आदेश दिया।…और उदयपुर के आसपास के बहत्तर अन्य मंदिर नष्ट कर दिए गए थे…सोमवार, 22 फरवरी/माह के पहले सफ़र को सम्राट चित्तौड़ देखने गए, उनके आदेश से उस स्थान के 63 मंदिर नष्ट कर दिए गए…” (मासिर-ए-आलमगिरी, पृष्ठ 116-117) उसने उज्जैन के मंदिरों को ध्वस्त करने सेना भेजी। वह दक्कन के जिन गाँवों में गया, वहाँ के मंदिरों को नष्ट किया और उन ज़मीनों पर मस्जिदें बनवाईं। महाराष्ट्र के कई किलों पर बने मंदिरों को औरंगजेब द्वारा ध्वस्त करने के प्रमाण मौजूद हैं, जैसे वसंतगढ़ और पन्हाला के मंदिर। वसंतगढ़ की मस्जिद की नींव औरंगजेब ने अपने हाथों से रखी थी । अहमदाबाद के पास सरसपुर शहर में काफी मशहूर चिंतामण मंदिर था। भगवान गणेश के इस मंदिर में पूरे इलाके के लोग पूजा करने के लिए आते थे। इस मंदिर को औरंगजेब के आदेश पर कुव्वत-इल-इस्लाम नाम की एक मस्जिद में बदल दिया गया। आज से 350 साल पहले जयपुर शहर अजमेर प्रांत का हिस्सा था। यहां एक भव्य मलरीना मंदिर था, जिसे औरंगजेब ने सेना भेजकर गिरवाया था। मंदिर गिराने के 22 साल बाद 23 जून 1694 को दोबारा से औरंगजेब ने अजमेर के गवर्नर को मूर्ति पूजा पर रोक लगाने के आदेश दिए थे। ‘मुगल सम्राटों की धार्मिक नीति’ किताब के पेज नंबर-149 में इतिहासकार श्रीराम शर्मा ने इस घटना का जिक्र किया है। ये संदर्भ मुगल दरबार के समाचारपत्रों में आए हैं।
इलियट, हेनरी एम.,और जॉन डाउसन, संपादक। भारत का इतिहास, जैसा कि इसके अपने इतिहासकारों द्वारा बताया गया । 5 खंड। लंदन: ट्रबनर, 1873-1877 से प्रकाशित में पाँच खंडों का उद्देश्य भारत में मुस्लिम शासन के इतिहास को पूरी तरह से फ़ारसी इतिहास के अंशों के अनुवाद के माध्यम से बताना है। मुगल शासन की निरंकुश प्रकृति और मुगलों के अधीन उत्पीड़ित बहुसंख्यकों के रूप में हिंदुओं की कहानी को पढ़कर कोई भी यह सहज अंदाजा लगा सकता है कि हिन्दुओं ने अपने ही देश भारत में कितना भयंकर उत्पीढ़न सहा है!
बृज संस्कृति समाप्त करने के कई जतन
इस सिरफिरे और जिहादी औरंगजेब के मन में हिन्दू नफरत किस तरह से रही, वह इसकी इस करतूत से भी पता चलता है- वर्ष 1670 में मथुरा में केशव राय के देहरा को नष्ट करने के बाद, उसने मूर्तियों को आगरा लाकर “बेगम साहब की मस्जिद” की सीढ़ियों के नीचे दफना दिया, ताकि उन पर लगातार पैर रखे जा सकें ( मासीर-ए-आलमगीरी , पृष्ठ 60)। औरंगज़ेब ने ब्रज संस्कृति को खत्म करने के लिए ब्रज के नाम तक बदल डाले थे। उसने मथुरा को इस्लामाबाद, वृन्दावन को मेमिनाबाद और गोवर्धन को मुहम्मदपुर का बना दिया था। यह अलग बात है कि श्रीकृष्ण और राधारानी की भक्ति भारत के रोम-रोम में बसी थी, इसलिए उसके मंसूबे विफल हो गए और उसके दिए नाम प्रचिलत नहीं हो सके, उल्टा जो औरंगजेब श्री कृष्ण की संस्कृति को वह खत्म करने चला था, उन्हीं की भक्ति में उसकी बेटी ‘जेबुन्निसा’ डूब गई और श्री कृष्ण भक्त बनकर उसके सामने खड़ी हो गई थी। वे किले में कैद होकर भी श्रीकृष्ण की भक्ति में डूब कर गजलें, शेर और रुबाइयां लिखती रहीं। 20 सालों की कैद के दौरान उन्होंने लगभग 5000 रचनाएं कीं, जिसका संकलन उनकी मौत के बाद दीवान-ए-मख्फी के नाम से छपा।
भारत की प्राचीन भव्यता से भयंकर चिढ़
विलियम जेम्स ड्यूरेंट एक सुप्रसिद्ध अमेरिकी इतिहासकार और दार्शनिक थे, जो अपने ग्यारह-खंड में किए गए एतिहासिक कार्य ‘‘द स्टोरी ऑफ़ सिविलाइज़ेशन’’ के लिए जाने जाते हैं, इसमें इन्होंने पूर्वी और पश्चिमी सभ्यताओं के इतिहास का अध्ययन किया है और इसका सविस्तार विवरण प्रस्तुत किया है। वे अपनी इस पुस्तक ‘स्टोरी ऑफ सिविलाइजेशन’ में औरंगजेब की धर्मान्धता का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि उसने अपनी नजर में आने वाली ‘हर मूर्ति को तोड़ डाला’।
उन्होंने लिखा, “औरंगजेब को कला की कोई परवाह नहीं थी, उसने घोर कट्टरता के साथ (इस्लाम को छोड़) उसकी नजर में आए सभी अन्य पंथों के धार्मिक स्मारकों, मंदिरों को नष्ट कर दिया, और आधी सदी के शासनकाल में, भारत से अपने धर्म (इस्लाम) को छोड़कर लगभग सभी धर्मों को मिटाने के लिए संघर्ष किया। उसने प्रमुख शासकों और अपने अन्य अधीनस्थों को आदेश जारी किया कि वे हिंदुओं या ईसाइयों के सभी मंदिरों को जमींदोज कर दें, हर मूर्ति को तोड़ दें और हर हिंदू स्कूल को बंद कर दें। एक साल (1679-80) में अकेले आमेर में 66 मंदिर, चित्तौड़ में 63 मंदिर, उदयपुर में 123 मंदिर तोड़ दिए गए; और बनारस के एक मंदिर की जगह पर, जो हिंदुओं के लिए विशेष रूप से पवित्र था, उसने जानबूझकर अपमान करते हुए एक मुस्लिम मस्जिद बनवाई। उसने हिंदू धर्म की सभी सार्वजनिक पूजा पर रोक लगा दी और हर अपरिवर्तित हिंदू पर भारी कैपिटेशन टैक्स लगा दिया। उसकी कट्टरता के परिणामस्वरूप, हजारों मंदिर जो एक सहस्राब्दी से भारत की कला का प्रतिनिधित्व करते थे, खंडहर में तब्दील हो गए। आज के भारत को देखकर हम कभी नहीं जान सकते कि एक समय में इसमें कितनी भव्यता और सुंदरता थी।”
वाराणसी गजेटियर में अत्याचारों के सबूत
औरंगजेब का खुद का इकबाली बयान कलीमत-ई-तय्यीबत में दर्ज है, जिसमें वो अपने पोते बिदार बख्त से कहता है- ‘औरंगाबाद के पास सतारा गांव मेरे शिकार की जगह था हां पहाड़ पर खांडेराय की छवि वाला एक मंदिर था। अल्लाह के फजल से मैंने उसे ढहा दिया।’ साकी मुस्तैद खान की पुस्तक ‘मासिर-ए-आलमगीरी’ के अध्याय 12 में मुताबिक नौ अप्रैल 1669 को औरंगजेब ने अपने सभी प्रांतों के गवर्नर को आदेश जारी किए कि हिंदुओं के सभी स्कूलों और मंदिरों को ध्वस्त कर दिया जाए। ये आदेश उसके शासन वाले सभी 21 सूबों में लागू हुए। यहां हिंदुओं की धार्मिक प्रथाओं और त्योहारों को मनाने पर भी रोक लगा दी गई। इस आदेश का जिक्र 1965 में प्रकाशित वाराणसी गजेटियर के पेज नंबर- 56-57 पर भी देखा जा सकता है।
इन पृष्ठों पर साफ लिखा है, “औरंगज़ेब को कीर्तती विश्वेश्वर का पुराना मंदिर मिला, जो उस साइट पर नष्ट कर दिया गया, इसकी कुछ सामग्री के साथ, आलमगिरी मस्जिद जो रत्नेश्वर के मंदिर के पास खड़ी है…से पुराने मंदिर के अवशेषों की वास्तुकला की शैली से संकेत मिलता है कि मंदिर उसके विनाश के समय लगभग छह या सात शताब्दियों पुराना रहा होगा- हिंदू आज भी इस स्थान पर आते हैं क्योंकि वे इसे पवित्रता का स्थान मानते हैं और प्रांगण के एक हिस्से (संभवतः पुराने मंदिर का अवशेष) की पूजा करते हैं, खासकर शिवरात्रि के अवसर पर जब कम से कम पिछली सदी के मध्य तक भीड़ इस स्थान पर उमड़ती थी और अपनी भेंट चढ़ाती थी जिसे मस्जिद के मुल्ला हड़प लेते थे।’ 9 अप्रैल, 1669 को औरंगजेब ने प्रांतीय गवर्नर को हिंदू मंदिरों और स्कूलों को ध्वस्त करने का आदेश जारी किया जिसे वाराणसी के फौजदार ने शहर में विश्वनाथ और बिंदुमाधव सहित कई मंदिरों को गिराकर पूरा किया। प्रत्येक दो ऊंची मीनारों के स्थान पर एक मस्जिद बनाई गई। औरंगजेब ने शहर का नाम बदलकर मुहम्मदाबाद भी कर दिया और यहां की टकसाल से जारी सिक्कों ने भी इस नाम को पीछे छोड़ दिया। हालाँकि, नया नाम प्रचलन में नहीं आया बल्कि इसका इस्तेमाल केवल आधिकारिक तौर पर किया गया, जो कि बादशाह की मृत्यु के बाद से ही चलन में है।’’
विध्वंस ही विध्वंस
इस आदेश के बाद तो जैसे भारत भर में जहां तक भी औरंगजेब की सत्ता थी, मंदिर गिराने का सिलसिला ही शुरू हो गया था, जिसे लेकर सभी बड़े इतिहासकार एकमत हैं और यह मानते हैं कि इसी आदेश के बाद सोमनाथ, काशी विश्वनाथ समेत सेकड़ों मंदिरों का विध्वंस किया गया। केवल मंदिरों को ही नहीं, इतिहास को भी तोड़-मरोड़कर उसे नष्ट करने का काम औरंगजेब ने अपने शासनकाल में शुरू करवा दिया था। जैसे ही उसके शासन का दूसरा दशक आरंभ हुआ, उसने सभी काल क्रम के अभिलेख मिटा दिए और आगे से निरंतर लिखे जानेवाले किसी भी लेखन को बंद कर देने का आदेश दिया। यही कारण है कि उस दौरान के औरंगजेब के कृत्यों का ब्योरा शाही दस्तावेजों में नाममात्र का सिर्फ सूचना के स्तर पर मिलता है। इसका जिक्र इतिहासकार स्टेनली लेनपूल ने “औरंगजेब एंड द डिके आफ द मुगल एंपायर” में किया है।
अब्राहम एराली के अनुसार, “1670 में औरंगज़ेब ने, उज्जैन के आसपास के सभी मंदिरों को नष्ट कर दिया था” और बाद में “300 मंदिरों को चित्तौड़, उदयपुर और जयपुर के आसपास नष्ट कर दिया गया” अन्य हिंदू मंदिरों में से 1705 के अभियानों में कहीं और नष्ट कर दिया गया; और “औरंगज़ेब की धार्मिक नीति ने उनके और नौवें सिख गुरु, तेग बहादुर के बीच घर्षण पैदा कर दिया, जिसे जब्त कर लिया गया और दिल्ली ले जाया गया, उन्हें औरंगज़ेब ने इस्लाम अपनाने के लिए बुलाया और मना करने पर, उन्हें यातना दी गई और नवंबर 1675 में उनका सिर कलम कर दिया गया। Eraly, Abraham (2000), “Emperors of the Peacock Throne: The Saga of the Great Mughals”
तत्कालीन अंग्रेज अधिकारियों के आपसी पत्रों से भी सामने आया, कैसा धर्मांध था औरंगजेब
1685 में, औरंगजेब ने पंढरपुर में विठोबा के मंदिर को ध्वस्त कर दिया था (Mogal Darbarchi Batmipatre, Setu Madhavrao Pagadi, Volume III, page 472)। औरंगजेब को लेकर 1670 में दो अंग्रेजों गैरी से लॉर्ड अर्लिंगटन के बीच हुए पत्राचार को देखा जा सकता है, तो तत्कालीन समय की स्थितियों को एक-दूसरे के बीच साझा कर रहे थे, उसमें वे लिखते हैं , ‘‘एक कट्टर विद्रोही सेवगी (शिवाजी) फिर से ओरंगशा (औरंगजेब) के खिलाफ युद्ध में लगे हुए हैं, दूसरी ओर एक अंधे उत्साह से औरंगजेब ने कई गैर-यहूदी, (हिन्दू) मंदिरों को ध्वस्त कर दिया और कई लोगों को मुसलमान बनने के लिए मजबूर किया है, उसने सेवगी (शिवाजी) के कई महलों पर कब्ज़ा कर लिया है…दक्कन युद्ध क्षेत्र बनने वाला है; (Letter from Gary to Lord Arlington, 23rd January 1670, English Records on Shivaji, Volume I, page 140)
आज जो भी औरंगजेब के समर्थन में खड़े हो रहे हैं, उन्हें यह समझना ही होगा कि इतिहास इस बादशाह की गैर मुसलमानों खासकर हिन्दुओं के प्रति किए गए उसके गुनाहों के लिए कभी माफ नहीं करेगा। वह कितना असहिष्णु शासक था। वह उसके आरंभ से लेकर अंत तक के जीवन के कई उदाहरणों से समझा जा सकता है, जब वह 1644 में (वह एक राजकुमार था और गुजरात में वायसराय के रूप में तैनात था), तभी उसने चिंतामन के एक नए बने मंदिर को मस्जिद में बदल दिया था (मिरत-ए-अहमदी , पृष्ठ 222)। जैसा बताया जाता है, उसने मंदिर में एक गाय का वध करके उसे अपवित्र भी किया (स्रोत: बॉम्बे प्रेसीडेंसी का गजेटियर (खंड I, भाग I, पृष्ठ 280)।
बुढ़ापे में भी चेन नहीं
इसके बाद आप उसके अंतिम समय को भी देखें, मरने के पहले भी वह चेन से नहीं बैठा था, उसके ह्दय में हिन्दुओं के प्रति घोर अपमान और उन्हें लगातार यातनाएं देने की सूझ रही थी। ये 80 साल का बुड्डा बादशाह 1698 में हामिद-उद-दीन खान बहादुर को बीजापुर के मंदिर को नष्ट करने और एक मस्जिद बनाने के लिए नियुक्त करता है। (औरंगजेब का इतिहास, खंड III, पृष्ठ 285, यदुनाथ सरकार)।
औरंगजेब ने अपने शासनकाल में गुजरात के सोमनाथ मंदिर को भी दो बार तोड़ने के आदेश जारी किए थे। पहली बार 1659 में और दूसरी बार 1706 में सोमनाथ मंदिर को जमींदोज करने का फरमान सुनाया गया। अपनी मौत के पहले औरंगजेब की उम्र जब 88 साल हो चुकी थी तब भी वह हिन्दू नफरत नहीं छोड़ पाया, उसे जैसे ही पता चलता है कि कुछ हिंदुओं ने सोमनाथ के खंडित मंदिर में भी पूजा-अर्चना शुरू कर दी है, तो उसे शेष बचे हिस्से को भी फरमान सुनाकर और अपनी शाही सेना भेजकर ध्वस्त करा दिया था। मुराक़त ए अबुल हसन के प्रस्तुत साक्ष्य कहते हैं कि अपने शासनकाल के 10-12 सालों में ही औरंगजेब ने हर उस मंदिर को तुड़वा दिया जिसे ईट, मिट्टी या पत्थर से बनाया गया था।
वास्तव में उनकी धार्मिक ज्यादतियों की सूची इतनी लंबी है कि एक लेख कभी भी संपूर्ण वर्णन नहीं कर सकता। कुछ इतिहासकार हैं जो औरंगजेब के नाम पर कसीदे गढ़ने का काम करते हैं और तर्क देते हैं कि अगर औरंगजेब इतना ही निष्ठुर और हिंदू द्रोही था तो फिर उसने अपने राज्य के संपूर्ण मंदिरों को नष्ट क्यों नहीं कर दिया? यह हिंदू राजाओं को अपने साथ क्यों मिलाकर रखता था ? किंतु उन लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि तत्कालीन समय में हिंदू राजाओं की आपसी फूट का लाभ मुगल सल्तनत उठाती रही। छत्रपति शिवाजी की एक इच्छा अधुरी रह गई है, वे चाहते थे कि भारत में मराठा, सिख और राजपूत यह तीनों शक्तियां मिलकर एक हो जाएं तो भारत का प्राचीन वैभव वर्तमान में जीवंत हो उठेगा। वह कामना करते थे कि ऐसा होने पर ही भारत के जितने शत्रु हैं, उनका नाश आसानी से संभव है।
काश; स्वतंत्र भारत में ही सही छत्रपति शिवाजी जी की यह इच्छा हिन्दू समाज एकता का मंत्र गुनगुनाकर पूरा कर दे! तब फिर शायद किसी की हिम्मत न हो कि वह झुंड में आकर के हिन्दू आस्था, उनके घर, दुकान, मंदिर, संपत्ति को किसी भी तरह से चोट पहुंचा सकें। आखिर संगठन में शक्ति है, यह मंत्र समझना ही होगा, सिर्फ शासन, सरकार के भरोसे नहीं रहा जा सकता। अन्यथा नागपुर, मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, जयपुर, भोपाल जैसे तमाम दंगे होते रहेंगे! हां, इतना तय है कि औरंगजेब से मुहब्बत करनेवाले भारत के हिमायती बिल्कुल नहीं हैं और इनसे निपटना अकेले शासन का काम नहीं है, यह समाज का सामूहिक कार्य है।
(लेखक, पत्रकार और केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड एडवाइजरी कमेटी में सदस्य हैं)