डॉ. कुमार विश्वास से अजय विद्युत की बातचीत के प्रमुख अंश।
विलक्षण प्रतिभाओं के धनी और व्यवहार में अत्यंत विनम्र डॉ. कुमार विश्वास मौजूदा पीढ़ी में हिंदी के सबसे लोकप्रिय हताक्षरों में एक हैं। ‘कोई दीवाना कहता है…’ ये पंक्ति ही दुनियाभर में फैले हिंदी जानने वाले लोगों में -जाहिर है युवा उनमें सबसे बड़ी संख्या में हैं- एक प्रेम और आनंद की तरंग पैदा कर देती है। इधर कवि के इत्तर हमें उनका भारतीय संस्कृति और सरोकारों को लेकर मोटिवेशनल और आध्यात्मिक स्पीकर का रूप भी देखने को मिला है। श्रीराम के चरित्र पर आधारित आपके कई कार्यक्रम बहुत सफल और चर्चित रहे हैं। अगर आज के दौर में हिंदी की स्थिति पर बात करनी हो तो उनसे बेहतर और कौन हो सकता है।
देश-दुनिया में आज हिन्दी भाषा और साहित्य कहां-कितना पहुंचा है?
हिन्दी इस समय दो-ढाई सौ करोड़ लोगों की जबान है। एक सौ तीस करोड़ हिन्दुस्तानी। पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका में लोग हिन्दी बोलते हैं। फिर आप्रवासियों की संख्या बहुत बड़ी है। जिस मां की रसोई में ढाई सौ करोड़ बेटे-बेटियां खाते हों, उसे इंतजाम कितना करना है?
इंतजाम हुआ नहीं। उसके बेटे-बेटियों ने सबके लिए खाना बनाया नहीं। तो उसके भूखे बच्चों को क्या पढ़ना पड़ रहा है- चेतन भगत, शोभा डे। उनको हिन्दी में अनुवाद करके छापो तो हमारे यहां जो अश्लील चीजें छपती हैं, उनमें वे जब्त हो जाएं। खुद को ठीकठाक बुद्धिजीवी कहलाने और मानसिक खुराक के लिए उसके बच्चों को क्या पढ़ना पड़ा- खुशवंत सिंह। मैंने उनका सारा साहित्य पढ़ा है। ‘आई शैल नॉट हियर द नाइटिंगेल’के अलावा कोई दूसरी पुस्तक उनकी ला दीजिए जिसमें कोई बहुत बड़ा साहित्य बोध हो।
मैंने शोभा जी का भी ‘स्टडी डेज’से लेकर ‘सिस्टर्स’तक पूरा साहित्य पढ़ा है, लेकिन मुझे नहीं लगता कि वहां कोई ऐसी बड़ी उत्कृष्ट बात है जो मेरे प्रेमचंद के पासंग भी बैठती है। जो हमारे उदय प्रकाश के आसपास भी बैठती हो जो हमारे नए लेखकों में शुमार हैं।
यह हिन्दी के बेटे-बेटियों की खुद की कमी है… उनकी क्षमताओं, प्रयासों, मेहनत, तपस्या, प्रेरणा में कमी है… कि वे हिन्दी को सही भोजन- यानी सही निबन्ध, कविता, लेख, पत्रकारिता- नहीं दे पा रहे हैं। यही कारण है कि हिन्दी की जो सबसे ज्यादा बिकनेवाली सामयिक पत्रिका है, वह अंग्रेजी का अनुवाद है।
हिन्दी वालों को शर्म आनी चाहिए कि जिस देश में दिनमान, धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान और कादम्बिनी जैसी पत्रिकाओं का स्थान था, वे छोटे-छोटे कस्बों में पाठकों तक पहुंचती थीं और उनके अंक (जैसे होली व अन्य विशेषांक) रखे जाते थे… अगर वे सारे पाठक मारे हैं तो उनकी हत्या हिन्दी पत्रकारिता से जुड़े उन संस्थानों और लोगों ने की है जो पत्रिका के नाम पर फरेब बेचते रहे। हिन्दी तो पूरा विश्व बोलना चाहता है लेकिन हिन्दी के बेटे-बेटियों की रसोई कम है। यह पहली बात है।
…और दूसरी बात क्या है?
दूसरी बात, ज्ञान की भाषा ही सम्मान की भाषा बनती है। जिसमें ज्ञान आता है, उसमें सम्मान है। चीनी क्यों है इतनी फैली, चीनी उससे ज्ञान आ रहा है। इसी तरह जर्मन और फ्रांसीसी अपनी भाषा छोड़ने को तैयार नहीं हैं। आपका बच्चा आपसे सवाल ही नहीं पूछेगा, अगर ज्ञान से पहले उसको भाषा में अटकना पड़े। और यहां, अंग्रेजी के पक्षधर भरे पड़े हैं।
अंग्रेज चले गए, देश आजाद हो गया। तुम्हारी चीजें स्वतंत्र हो गर्इं और तुम अंग्रेजी से ही चिपके रहे, उसमें पढ़ना जारी रखा। विज्ञान अंग्रेजी में पढ़ा। उसके बाद तुम्हें कभी नोबल मिला? तुमने कोई बड़ा वैज्ञानिक आविष्कार किया? ऐसा नहीं कि भारतीयों ने आविष्कार नहीं किए! डॉ. हरगोविन्द खुराना ने किया… पर कब? अमेरिकी नागरिक बनने के बाद!
सत्येन्द्र नाथ बोस ने ‘ओजोन’आर्इंस्टीन के साथ मिलकर किया। आर्इंस्टीन-बोस थ्योरी अलग है… पर कब? आजादी से पहले, क्योंकि बोस ने अपने गुरु से ज्ञान बचपन में बांग्ला में लिया। उन्होंने विज्ञान के प्रारंभिक सिद्धांत बांग्ला में सम झे इसलिए उनकी आत्मा में बैठ गए और बाद में उन्होंने प्रस्तुत किया।
आज क्या है? आप इंजीनियर पैदा कर रहे हैं वैज्ञानिक नहीं। आप फेसबुक पर हिन्दी के एक लाख कवि पैदा कर रहे हैं, पर एक कवि ऐसा नहीं है जिसके बारे में वियतनाम या स्पेन का कवि सोचे कि इसे पढ़ना चाहिए।
क्या हिन्दी में कुछ भी सकारात्मक नहीं हो रहा और दुनिया की इसमें कोई दिलचस्पी नहीं है?
सकारात्मक काम भी निश्चित रूप से हो रहा है। अगर मुझ जैसे अकिंचन कवि को गूगल हेडक्वार्टर्स बुलाकर भाषण कराता है, स्टेनफोर्ड बुलाता है। या मैं विक्टोरिया यूनिवर्सिटी तथा और भी विदेशी संस्थानों में गया तो उनमें हिन्दी के बारे में जानने की बड़ी उत्कट उत्सुकता थी कि इसका शब्द संसार क्या है, साहित्य संसार क्या है?
ये फेसबुक जैसे अत्याधुनिक परिवार की बात करें तो विश्व के किसी भी कवि के मुकाबले सबसे बड़ा परिवार मेरा है तीस लाख लोगों का। न्यूजीलैंड की तो आबादी ही इतनी है। ट्विटर पर एक लाख से ज्यादा लोग मेरे साथ कवि होने के नाते ही हैं। यूट्यूब पर भी लाखों-करोड़ों देखते हैं।
हिन्दी का कारवां बढ़ रहा है और नए लोग भी बहुत अच्छा लिख रहे हैं। मुख्यधारा की कविता डिजिटलाइज हो रही है। कविताकोश जैसे साइटें देखी जा रही हैं। यह सब काफी सकारात्मक प्रभाव है।
लेकिन मैं फिर आपसे कह दूं कि हिन्दी जब तक आमोद-विनोद-मनोरंजन की भाषा रहेगी तब तक अंग्रेजी या दुनिया की बाकी भाषाओं जितनी तरक्की नहीं कर पाएगी। यह दुनिया में तीसरे नंबर पर सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। पहले पर अंग्रेजी और दूसरे पर चीनी हैं।
संस्कृत में वांग्मय अच्छा लिखा जाता था। कविता, कहानी चलती थी संस्कृत में, लेकिन वह ज्ञान की भाषा से अलग हो गई। ज्ञान क्या था उस समय! मिसाइल तो बन नहीं रही थी। उस समय ज्ञान था धर्म-अध्यात्म। पाली और प्राकृत का उपयोग करके महात्मा बुद्ध ने वह मिथक तोड़ दिया। और संस्कृत छिटककर खड़ी हो गई।
अगर संस्कृत ने पाली और प्राकृत की चुनौतियों को स्वीकार करते हुए खुद को तत्पर किया होता तो आज वह वहां नहीं होती, जहां है। हिन्दी को भी खुद को समृद्ध करके आज की चुनौतियों को स्वीकार करना होगा।
क्या हिन्दी को संवारने में सरकारें भी कुछ कर सकती हैं? वैसे करती तो रही हैं कुछ न कुछ?
सरकारों के भरोसे मत रहिए। उन्होंने कभी कुछ नहीं किया। हिन्दी को खुद ही बड़े बेटे-बेटियां पैदा करने पड़ेंगे अन्यथा सरकारें और सत्ता सदा ही आपकी बौद्धिक चेतना के बधियाकर्म की चेष्टा करेंगे। 1977 के बाद से यह भारत की प्रवृत्ति बन गई है।
श्रीमती इंदिरा गांधी हारीं… और फिर लौटकर सत्ता में आर्इं तो उनको यह समझ में आ गया कि उनकी हार के पीछे तटस्थ, निष्पक्ष, मौलिक, प्रतिभावान, स्वतंत्र और उद्दाम चेतना वाले कवि, लेखक, मंचीय लोग, कलाकारों की हिस्सेदारी थी। उनकी हार के पीछे धर्मवीर भारती थे, दुष्यंत थे। नागार्जुन थे- ‘इन्दु जी, इन्दु जी क्या हुआ आपको/ सत्ता की मस्ती में भूल गयीं बाप को/ …अब तो बंद करो हे देवि, यह चुनाव का भीषण प्रहसन…।’ उनकी हार के पीछे रामनाथ गोयनका थे। तो इंदिरा जी ने सोचा कि इनको सबसे पहले कैसे खत्म किया जाए।
उन्हें बताया गया कि चीजें दो तरीकों से काबू में आ जाएंगी। एक दंड और दूसरा पुरस्कार। दंड की व्यवस्था रखो। प्रच्छन्न नीचे दंड दे दो। लाइट काट दो, कागज का कोटा काट दो… परेशान करो, दरवाजे तक लाओ। और दूसरा- पुरस्कार दो। पदमश्री बांटो, अकादमी अवार्ड बांटो, एक विश्वविद्यालय बनाकर उसमें बैठा दो। जेएनयू में बहुत से लोग लाकर प्रतिष्ठित किए गए। हालांकि प्रतिभासम्पन्न लोग थे, पर कांग्रेस के पास बेपढ़ों की जमात थी। कांग्रेस में लिखने-पढ़ने की परंपरा लालबहादुर शास्त्री के बाद समाप्त हो गई। तब तक तो उसमें बढ़िया पढ़ने-लिखने वाले लोग, बुद्धिजीवी लोग थे।
श्रीमती इंदिरा गांधी के आने के बाद व्यक्तिवाद और वंशवाद आ गया। संजय गांधी तक को सहन किया। सबने देखा बड़े-बड़े मुख्यमंत्रियों को उनकी जूतियां लेकर भागते। पार्टी के भीतर उनकी अराजक युवता को किसी ने चुनौती नहीं दी। जिन्होंने दी, वे नष्ट कर दिए गए। फिर यही चीजें सारी पार्टियों ने स्वीकार कर लीं कि जब-जब सत्ता में आओ संस्कृति, कला और साहित्य के केंद्रों पर अपने लोगों को कब्जा करवा दो। अब कांग्रेस के पास तो अपने थे नहीं, तो उन्होंने वामपंथियों से कब्जा कराया। उन्हें वामपंथी चाहिए थे दक्षिणपंथ से लड़ने के लिए। भाजपा से, आरएसएस से लड़ने के लिए। उनमें बहुत सारे लोग कुपढ़ थे जिन्होंने चीजें खराब तरीके से पढ़ी थीं। जिन्हें वेद में और कुछ समझ में नहीं आया था, सिवा दो-चार फालतू बातों के।
जब-जब भाजपा आई तो उसके पास अनपढ़ों की फौज थी। वह उन्हें प्रमोट करने लगी। इसीलिए वह खाली रह जाती है।
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