अभी भी विश्वास नहीं होता एवरेस्ट का पाँव छूकर लौटा हूँ।

अशोक झा।
पहाड़ की ऊँचाइयाँ मुझे डराती हैं। मुझे घाटियों में मोटरवाहनों से जाने में बेहद डर लगता है। पैदल मैंपहाड़ पर चलकर कहीं भी जा सकता हूँ। इसलिए ईबीसी ट्रेकिंग में मुझे बहुत ही आनंद आया।

हमारा ट्रेकिंग प्लान इस तरह से था :

पहला दिन : काठमांडू में आगमन और उसी रात दो बजे सड़क मार्ग से रामेछाप के लिए रवाना।

दूसरा दिन : रामेछाप से लुकला और वहाँ से ट्रेकिंग कर फाकडिंग (9 किमी) में रात का विश्राम।

तीसरा दिन : फाकडिंग से नामचे बाज़ार (10 किमी)

चौथा दिन : नामचे बाज़ार (यह 11290 फीट/3445 मीटर की ऊँचाई पर है) में एक और रात एक्लिमेटाइज़ेशन के लिए रुकना। यहाँ से हम एवरेस्ट व्यू प्वाइंट होटल तक ट्रेक किया जहाँ हमने पहली बार एवरेस्ट और दूसरी चोटियों को देखा। यह जगह 13000 फीट (3962 मीटर) की ऊँचाई पर है। यहाँ से प्रसिद्ध खुंबु घाटी भी दिखता है।

पाँचवाँ दिन : छह घंटे की ट्रेकिंग के बाद हम नामचे बाज़ार से तेंगबोचे/देबूचे पहुँचे जो कि 12687 फीट/3860 मीटर पर स्थित है। नामचे बाज़ार से यह 8 किलोमीटर दूर है। यहाँ से एवरेस्ट तो दिखना बंद हो जाता है पर नुप्तसे, लहोत्से, और अमा डब्लम और दूसरी चोटियाँ दिखने लगती हैं।

छठा दिन : तेंगबोचे से 9 किमी ट्रेक करने के बाद हम दिंगबोचे पहुँचे जो 14470 फीट/4410 मीटर की ऊँचाई पर है और यहाँ पहुँचने में हमें सात घंटे लगे।

सातवाँ दिन : यह दिंगबोचे में एक्लिमेटाइज़ेशन का दिन था और हमें यहाँ एक रात और रुकना था। यहाँ हमने एक छोटी छोटी पर हाइकिंग के लिए गए और इस तरह पहली बार 15500 फीट की ऊँचाई पार की। इस जगह से लहोत्से और अमा डब्लम की चोटियाँ का दृश्य बहुत ही मनोहर लगता है।

आठवाँ दिन : दिंगबोचे से लोबुचे के बीच की 7 किमी की दूरी हमने 6 घंटे में तय की। इस क्रम में हमने हरी-भरी घाटी पार करके खुंबू ग्लेशियर पार करके लोबुचे पहुँचे। लोबुचे 16200 फीट/4940 मीटर की ऊँचाई पर है।

नौवाँ दिन : लोबुचे से हम गोरकशेप पहुँचे जो 16942 फीट/5164 मीटर की ऊँचाई पर है। 12 किलोमीटर की इस दूरी को हमने 10 घंटे में तय किया।

एवरेस्ट बेस कैम्प से पहले यह हमारा अंतिम पड़ाव था। यहाँ पहुँचने के कुछ देर बाद हम बेस कैम्प के लिए रवाना हो गए। बेस कैम्प से वापस आकर हमने रात यहाँ गुज़ारी। हमें सबेरे तीन बजे यहाँ से काला पत्थर के लिए जाना था ताकि हम एवरेस्ट पर सूर्योदय देख सकें। पर लगातार बर्फ़बारी की वजह से हम वहाँ नहीं जा पाए।

बेस कैम्प पहुँचकर हमारे समूह के लोगों ने शंखनाद किया।

हिमालय में यायावरी के आनंद की बात ही कुछ और है। इस अनुभव को जीना मेरे जीवन का सबसे सुखद क्षण है। अभी भी विश्वास नहीं होता कि मैं एवरेस्ट का पाँव छूकर लौटा हूँ।

अनुमानों के विपरीत, ईबीसी जानेवालों की तादाद बहुत ही बड़ी है। दुनिया भर से लोग यहाँ पहुँचते हैं क्योंकि ईबीसी दुनिया के कठिनतम ट्रेकिंग में एक है। अपने देश में महाराष्ट्र एकमात्र ऐसा राज्य है जहाँ से सबसे ज़्यादा लोग नेपाल में ट्रेकिंग के लिए आते हैं। इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि गोरकशेप जो कि बेस कैम्प के पहले हमारा अंतिम पड़ाव था, वहाँ हम जिस टी हाउस में रुके थे उसके परिसर में शिवाजी महाराज की प्रतिमा लगी है। मराठी लोग इस प्रतिमा को माल्यार्पण करने के बाद ही बेस कैम्प के लिए रवाना होते हैं। हमारे ग्रूप के लोगों ने भी यह किया।

ईबीसी के अलावा भी दूसरे ट्रेक भी हैं जैसे अन्नपूर्णा बेस कैम्प ट्रेक, अन्नपूर्णा सर्किट ट्रेक, मनस्लू ट्रेक, लाँगतंग ट्रेक, ऊपरी मुस्ताँग ट्रेक, गोक्यो झील ट्रेक आदि और इन ट्रेक पर जानेवालों की भीड़ भी काफ़ी अधिक होती है।

बहुत से लोगों को ईबीसी के बारे में पता नहीं है। पर अगर आप दुनिया के कोलाहल से बचकर कुछ दिन प्रकृति की शरण में जाना चाहते हैं और अपनी शारीरिक क्षमता की परख भी करना चाहते हैं तो ईबीसी ट्रेक से बेहतर कुछ भी नहीं है।

पर जैसा कि स्वाभाविक है, इस तरह की भीड़ ने वहाँ पर्यावरण की चिंता करनेवाले लोगों की नींद उड़ा रखी है।पर नेपाल की आय का यह प्रमुख स्रोत है। सगरमाथा नेक्स्ट के लिए काम करनेवाले लोसबुन लामा ने बताया कि खुंबु इलाक़े में प्लास्टिक के प्रयोग को कम करने या इस पर पूरी तरह पाबंदी लगाना एक मुश्किल काम है। सगरमाथा नेक्स्ट खुंबु क्षेत्र में प्लास्टिक और दूसरे कचड़े के संग्रह और उन्हें वहाँ से हटाने के काम में लगी है। ईबीसी जानेवाले हर पर्यटक से आग्रह किया जाता है कि वे लौटते हुए एक किलो कचड़े का बैग अपने साथ ले जाएं और उसे लुकला में कचड़ा संग्रह केंद्र को दे दें। अमूमन अधिकांश लोग ऐसा करते हैं। हमने भी किया।

पर हिमालय को चुनौती मानकर जिस तरह की आक्रामकता हम उसके ख़िलाफ़ दिखाते रहे हैं उसकी वजह से हिमालय को सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ रहा है। हम बेस कैम्प जाएँ या हिमालय की विभिन्न चोटियों पर चढ़ने के लिए, हम इन्हें विजय अभियान के रूप में लेते हैं। हम हिमालय पर विजय हासिल करने के लिए जाते हैं। यह नज़रिया हमें हिमालय के प्रति आक्रामक बनाता है। एडमंड हिलेरी और तेंज़िंग नोरगे के एवरेस्ट पर पहुँचने को हिमालय विजय बताया गया। हिमालय अगर दुर्गम है तो यह उसकी प्रकृति है। करोड़ों अरबों वर्षों की भौगोलिक और दूसरे भूगर्भीय परिवर्तनों की वजह से हिमालय का यह स्वरूप और मिज़ाज बना है। उसमें भला हिमालय की क्या गलती है? वह जो है, जैसे है, हमें उसे स्वीकार करना चाहिए। पर ऐसा कहीं नहीं हो रहा है – न भारत में, न नेपाल में और न तिब्बत या चीन में। हर जगह हिमालय को ईर्ष्याग्रस्त लोगों के हमलों का शिकार होना पड़ रहा है। विकास की यह क़ीमत है जो हिमालय चुका रहा है पर जो अंततः हमें ही नुकसान पहुँचा रहा है।

हिमालय में हर जगह आपके बूटों के निशान हों, यह कहाँ से वाजिब है? मेरा मानना है कि आप वहाँ ज़रूर जाएँ पर कुछ भी साबित करने न जाएँ। लोग वहाँ तक जाएँ स्वाभाविक रूप से जहाँ तक जा सकते हैं। कोई ज़िद लेकर या कुछ भी साबित करने या विजेता का अहंकार लेकर न जाएँ। सही मायने में एक यायावर के रूप में हिमालय में भटकने का आनंद शायद ज़्यादा सुखकर होगा। (सम्पूर्ण)

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)