मां वाग्देवी का स्वरूप साक्षात प्रकट हो रहा।
डॉ. मयंक चतुर्वेदी।
मध्य प्रदेश के धार स्थित भोजशाला यानी कि मां वाग्देवी (सरस्वती मंदिर) के आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (एएसआई) के चल रहे सर्वे के 37 दिन गुजर चुके हैं। हर नई खोज इस ओर ही इशारा करती दिखी है कि इतिहास में यहां कभी भव्य सनातन शिक्षा का ज्ञान केंद्र रहा होगा, जहां की अधिष्ठात्री देवी मां सरस्वती थीं। अब तक एएसआई की टीम को कई साक्ष्य मिल चुके हैं जो यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि यह एक हिन्दू मंदिर है जबकि अक्सर मुस्लिम पक्ष इस स्थान को कमाल मौलाना मस्जिद कहता है।
यहां एएसआई ने भोजशाला के पीछे की ओर उत्तर और दक्षिण में सर्वे किया गया तथा जब भोजशाला के अंदर भी काम किया गया तो उसे गर्भगृह के सामने खुदाई के दौरान तीन दीवारें नजर आई थी, जोकि नीचे की ओर जाती दिखाई दीं। दो दीवार पूर्व से पश्चिम की ओर जा रही हैं और एक दीवार उत्तर से दक्षिण की ओर जा रही है। जिसके बारे में गहराई से एएसआई अभी जांच कर रही है। वहीं, पीछे की ओर से मिट्टी को हटाते वक्त आज वहां से खंडित प्रतिमा का हिस्सा मिला है । जिसके बाद हिन्दू पक्ष की ओर से गोपाल शर्मा ने दावा किया कि प्रतिमा के कंधे से ऊपर का हिस्सा मिला है, जो सनातन धर्म में बताए मूर्ति पूजा का स्वरूप है ।
कभी शारदा सदन, सरस्वती कंठाभरण था भोजशाला का नाम
उन्होंने कहा कि ये प्रतिमा भोजशाला पर हुए इस्लामिक आक्रांताओं की दास्तां कह रही है कि कैसे उन्होंने एक सभ्य और विराट सभ्यता को नष्ट करने का प्रयास किया है । यह भोजशाला कभी शारदा सदन और सरस्वती कंठाभरण के नाम से जानी जाती थी। गोपाल शर्मा ने कहा कि ये अपने गौरव को इस सर्वे के बाद पुनः प्राप्त करेगी। साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि सन् 1305 में अलाउद्दीन खिलजी ने यहां आक्रमण किया था, तब से पूजन पाठ बंद था, लेकिन लम्बे संघर्ष के बाद आठ अप्रैल 2003 को हिन्दुओं को पूजा का अधिकार यहां मिल सका है, किंतु वह अभी पूरी तरह से नहीं है, जिसे अभी पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर प्राप्त करना शेष है।
उल्लेखनीय है कि एएसआई टीम ने भीतरी परिसर में आठ स्थानों का चयन किया था, जिसमें से इसमें पांच स्थान पर मिट्टी हटाने का काम किया गया । इसके अलावा अभी तक टीम ने भोजशाला परिसर में मौजूद हवन कुंड की जांच की है। टीम के सदस्यों ने भोजशाला की छत, अकल कुइयां क्षेत्र में भी सर्वे किया है। जांच दल ने भोजशाला के अंदर बाहर से मिट्टी के सेम्पल लिए हैं। खुदाई करके निकाले गए पत्थरों के सेम्पल लिए हैं ताकि भोजशाला की सही उम्र पता लगाया जा सके। आसपास के स्थलों पर कार्बन डेटिंग की जा रही है। नींव की खुदाई तक जाने के लिए सीढ़ियों का इस्तेमाल किया जा रहा है। साइट पर उत्खनन के अलावा रडार (जीपीआर), ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम (जीपीएस), कार्बन डेटिंग आदि तकनीकों का इस्तेमाल किया जा रहा है।
मुस्लिम पक्ष को सुप्रीम कोर्ट से जी नहीं मिली कोई राहत
सर्वे के दौरान वीडियो और फोटोग्राफी की भी इस्तेमाल की जा रही है। इसके साथ ही भोजशाला के बाहर कमाल मौला मज्जिद तक मार्किंग की गई। भोजशाला के बाहर कब्रिस्तान के सामने भी मार्किंग की गई। भोजशाला की छत को भी नापा जा चुका है। हालांकि एएसआई के इस सर्वे कार्य को रुकवाने के लिए मुस्लिम पक्ष की ओर से मौलाना कमालुद्दीन वेलफेयर सोसाइटी ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की थी। याचिका में सर्वे से जुड़े मध्य प्रदेश हाई कोर्ट की इंदौर बेंच आदेश पर रोक लगाने की मांग की गई थी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट से उसे राहत नहीं मिली। दरअसल, भोजशाला परिसर के वैज्ञानिक सर्वेक्षण के लिए हिंदू फ्रंट फॉर जस्टिस ने हाई कोर्ट में अर्जी दायर की थी। इस पर सुनवाई करते हुए हाई कोर्ट के इंदौर बेंच ने एएसआई को वैज्ञानिक सर्वे करने का आदेश दिया था। जिसके खिलाफ मुस्लिम पक्ष सुप्रीम कोर्ट गया था।
खंभों पर है वराह, राम, लक्षमण, सीता, जय-विजय द्वारपालों की मूर्ति
इस संबंध में विश्व हिन्दू परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष एडवोकेट आलोक कुमार का कहना है कि भोजशाला का मामला बाकी सभी जगहों से अलग है। यहां पर अभी भी प्रति सप्ताह नमाज होती है, पर मंगलवार को हनुमान चालीसा और पूजा भी होती है। स्मारक अधिनियम के अंतर्गत इस स्थान को 1904 में संरक्षित घोषित कर दिया गया था। बाद में भी उस संरक्षा को दोहराया गया है। आज यह स्थान ए.एस.आई. के आधिपत्य में है। इसका आधिपत्य कभी भी मुसलमानों के हाथ में नहीं था।
वे कहते हैं कि 1935 से पहले यहां के रेवेन्यू रिकॉर्ड में भोजशाला मंदिर लिखा हुआ है, परंतु कहीं पर भी इसको मस्जिद नहीं लिखा है। 1935 से पहले यहां नमाज भी कभी नहीं पढ़ी गई थी। पूजा स्थल कानून में उन सभी स्थानों के लिए एक छूट है, जो पुरातात्विक स्मारक के अंतर्गत संरक्षित नहीं हैं। इसलिए यह उसमें भी नहीं आता है। इसका मूल चरित्र क्या है? खंभों पर वराह, राम, लक्षमण, सीता की मूर्ति हैं। जय-विजय द्वारपालों की मूर्ति है। इसके अलावा जमीन के अंदर का भाव क्या कहता है, इन सभी की विधिवत जांच हो रही है।
1456 में महमूद खिलजी ने भोजशाला को किया था नष्ट
इसके साथ ही अनेक इतिहासकार भी यह मानते हैं कि राजा भोज ने 1034 में धार में सरस्वती सदन के रूप में भोजशाला रूपी महाविद्यालय की स्थापना की थी। जिस पर 1456 में महमूद खिलजी ने आक्रमण किया और भोजशाला को ढहा कर उसी के अवशेषों से एक ढांचा खड़ा कर दिया। मुस्लिम इसे 11वीं शताब्दी में बनी ‘कमाल मौला मस्जिद’ कहते हैं। जबकि कथित मस्जिद में उपयोग किए गए नक्काशीदार खंभे वही हैं, जो भोजशाला के लिए कभी राजा भोज ने लगवाए थे। इसका प्रमाण यह है कि इसकी दीवारों से चिपके पत्थरों पर प्राकृत भाषा में भगवान विष्णु के कूर्मावतार के बारे में दो श्लोक लिखे हैं। एक अन्य अभिलेख में संस्कृत व्याकरण के बारे में जानकारी दी गई है। इसके अलावा कुछ अभिलेखों में राजा भोज के उत्तराधिकारी उदयादित्य और नरवर्मन की प्रशंसा सीधे तौर पर देखी जा सकती है ।
मां सरस्वती की मूर्ति को लॉर्ड कर्जन ने 1902 में इंग्लैंड भेजा
यह भी एक ऐतिहासिक तथ्य है कि 1703 ई. में मालवा पर मराठों का अधिकार हो गया, जिससे मुस्लिम शासन समाप्त हो गया था । फिर वह दौर भी आया जब इस क्षेत्र मालवा पर ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1826 ई. में अधिकार कर लिया था। उन्होंने भी भोजशाला पर आक्रमण किए जिसका जिक्र इतिहास में है। वहीं कई स्मारकों और मंदिरों को नष्ट करने का काम तत्कालीन समय में अंग्रेजों ने किया और तभी लॉर्ड कर्जन ने भोजशाला से देवी की मूर्ति को लेकर 1902 में इंग्लैंड भेज दिया। यह मूर्ति अभी भी लंदन के एक संग्रहालय में मौजूद है।
(लेखक ‘हिदुस्थान समाचार न्यूज़ एजेंसी’ के मध्य प्रदेश ब्यूरो प्रमुख हैं)