डॉ. संतोष कुमार तिवारी।
स्वामी विवेकानन्द (12 जनवरी 1863 – 4 जुलाई 1902) ने अपने उनतालीस वर्ष के छोटे से जीवन काल में भारत को समझने के लिए और अपनी आध्यात्मिक साधना के लिए अविभाजित हिन्दुस्तान के कोने-कोने में यात्राएं कीं। भारत में ही नहीं, स्वामीजी ने श्रीलंका, चीन, जापान, अमेरिका, इंगलैंड, फ्रांस, स्विट्जरलैंड, आदि देशों की भी यात्राएं कीं।
हाथरस में घटी वह अद्भुत घटना
भारत में जिन स्थानों पर वह गए उनमें से एक जगह थी हाथरस, जहां उनके साथ एक अद्भुत घटना घटी। रोमां रोलां (Romain Rolland ; 1866 – 1944) ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक The Life of Vivekananda and the Universal Gospel (English translation from French), Kolkata: Advait Ashram, (September 2006, 23rd Impression) के पृष्ठ संख्या 11-12 पर लिखा है:
हाथरस रेलवे स्टेशन पर नरेन (विवेकानन्द) की निगाह वहाँ के स्टेशन मास्टर शरत चन्द्र गुप्ता से मिली और शरत उनका शिष्य हो गया।
रोमां रोलां को सन् 1915 में साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
स्वामी विवेकानन्द पर लिखी गई रोमां रोलां की पुस्तक का कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। हिन्दी में उसका अनुवाद प्रख्यात साहित्यकार सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायान ‘अज्ञेय’ (1911-1987) और रघुबीर सहाय (1929-1990) ने किया था। इस हिन्दी अनुवाद का दूसरा संस्करण (1969) इन्टरनेट पर पढ़ा जा सकता है: https://epustakalay.com/book/14686-vivekanand-by-roma-rola/।
रोमां रोलां ने लिखा कि दीक्षा ग्रहण करने के बाद यही शरत चन्द्र गुप्ता स्वामी सदानन्द के नाम से जाने गए।
रोमां रोलां ने लिखा: “He (Swami Vivekananda) suddenly left Calcutta in 1888 and went through Varanasi, Ayodhya, Lucknow, Agra, Vrindavan, Hathras and the Himalayas. Nothing is known of this journey or of subsequent ones …”
विवेकानन्द अपनी यात्राओं आदि की कोई डायरी नहीं रखते थे। कोई विवरण लिख कर नहीं रखते थे। बाद में उन्होंने जो बातें कभी किसी चर्चा में अपने साथियों को बतायीं या फिर किसी को पत्र लिखा, उन्हीं के आधार पर उनकी यात्राओं के बारे में लोगों को जानकारी मिली है।
हाथरस के स्टेशन मास्टर शरत चन्द्र गुप्ता वाली घटना का जिक्र अन्य कई पुस्तकों में भी किया गया है।
इसका विवरण कुछ दूसरे शब्दों में एक दूसरी पुस्तक में दिया गया है: The Life of Swami Vivekananda, लेखक: उनके पूर्वी और पश्चिमी शिष्य, प्रकाशक: अद्वैत आश्रम, अल्मोड़ा, हिमालय, सोलहवां संस्करण 1960। यह पुस्तक पहली बार सन् 1912 में प्रकाशित हुई थी। इस पुस्तक के पृष्ठ संख्या 170 से 175 में लिखा है:
स्वामी विवेकानन्द वाराणसी होते हुए अयोध्या से वह लखनऊ गए और वहाँ अवध के नवाबों के महल, शहर के पार्क और मस्जिदों की भव्यता देखी। और फिर वहाँ से आगरा गए। अगस्त 1988 के प्रारम्भ में वह आगरा से वृन्दावन पहुंचे।
विवेकानन्द तीस मील पैदल चले
आगरा से वृन्दावन की इस यात्रा के अन्तिम 30 मील अर्थात लगभग 48 किलोमीटर वह पैदल चले थे। इस यात्रा में उनके पास मात्र एक दंड, एक कमण्डल और एक या दो पुस्तकें थीं। वृन्दावन पहुँच कर वह कला बाबू के कुंज में रुके, जो कि एक मन्दिर था। वृन्दावन में कुछ दिन रुक कर वह हाथरस गए। और वहाँ से उन्हें ऋषिकेश जाना था।
विवेकानन्द भूखे थे
जब विवेकानन्द हाथरस स्टेशन पर जमीन पर बैठे हुए थे, तो वहाँ के स्टेशन मास्टर शरत चन्द्र गुप्ता उनके तपस्वी जैसी आभा से अनायास आकर्षित हो गए। शरत ने उनसे पूछा, “स्वामीजी क्या आप भूखे है?” स्वामीजी ने जवाब दिया, “हाँ, मैं भूखा हूँ।“ तो शरत ने कहा कि आप मेरे घर चलें। इस पर स्वामीजी ने एक स्वाभाविक सरलता से पूछा, “परन्तु तुम मुझे क्या खिलाओगे?” इस पर शरत ने फारसी की एक कविता कही। उस कविता का मतलब यह था: ओह प्रिये आप मेरे घर आए हो। मैं अपने हृदय से आपके लिए स्वादिष्ट से स्वादिष्ट भोजन तैयार करूंगा। विवेकानन्द ने उनका निमंत्रण स्वीकार कर लिया और फिर उनके यहाँ वह रुके भी।
आगे की हिमालय की ओर की यात्रा में अर्थात ऋषिकेश की ओर यात्रा में शरत चन्द्र गुप्ता उनके साथ हो लिए। और बाद में वह भी सन्यासी हो गए।
रोमां रोलां ने अपनी पुस्तक में हाथरस से हिमालय की यात्रा का वर्णन करते हुए लिखा: “जाति-पांति की सम्पूर्ण उपेक्षा करते हुए गुरु-शिष्य दोनों भिखारी वेश में जहां-तहां घूमते रहे। कई जगह वह अपमानित हुए। कई बार भूख प्यास से मरने की नौबत आ गई। सदानन्द बीमार हो गये और नरेन (स्वामी विवेकानन्द) उसे कंधों पर उठाए बीहड़ वनों में घूमते रहे। अंत में वह भी बीमार हो गए और दोनों बाध्य हो कर कलकत्ता लौट आए।“
जब वे दोनों हाथरस स्टेशन पर पहली बार मिले थे, तब विवेकानन्द की आयु कोई 25 वर्ष थी और शरत चन्द्र गुप्ता की 23 वर्ष। स्वामी विवेकानन्द का शरीर सन् 1902 में शांत हो गया और स्वामी सदानन्द नौ वर्ष बाद 1911 में परलोक सिधारे।
संस्कारों का महत्व
यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि स्वामी विवेकानन्द के दादाजी दुर्गाचरण दत्त भी पच्चीस वर्ष की आयु में सन्यासी हो गए थे। और शरत चन्द्र गुप्ता के बड़े भाई आधार चन्द्र गुप्ता भी सन्यासी हो गए थे। इससे यह लगता है कि त्याग और तपस्या इन दोनों के संस्कारों में थी।
सदानन्दजी ने प्लेग-रोगियों और कोढ़ियों की सेवा की
स्वामी सदानंद ने अपने सेवा और त्याग के दो आदर्शों के माध्यम से रामकृष्ण आंदोलन के प्रारंभिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वह शुरुआती दिनों में गरीबों और प्रभावितों को सेवा प्रदान करने के लिए रामकृष्ण मिशन के नेताओं में से एक थे। उन्होंने 1898-99 में कलकत्ता में प्लेग राहत गतिविधियों को अंजाम देने में अग्रणी भूमिका निभाई। बीमारी को मिटाने के अपने प्रयासों के तहत उन्होंने स्वयंसेवकों के एक समूह के साथ गलियों और मलिन बस्तियों की सफाई की और राहत के प्रयासों में समन्वय किया। उन्होंने 1904 में भागलपुर में प्लेग राहत कार्यों में भी मूल्यवान सेवा प्रदान की। जीवन पर्यन्त स्वामी सदानन्द रामकृष्ण मिशन का सेवा कार्य करते रहे। उन्होंने कोढ़ियों की भी सेवा की। स्वामी सदानन्द ने मद्रास (चेन्नई) में स्वामी रामकृष्णानन्द की सहायता की रामकृष्ण मठ स्थापित करने में। उन्होंने विवेकानन्द का अनुसरण करने का व्रत ले लिया था और उसे उन्होंने आजीवन निभाया।
(लेखक झारखण्ड केन्द्रीय विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं)