अनिल सिंह ।
प्रथम विश्वयुद्ध और उसके बाद का बेहद अशांत, उत्क्रांत दौर था जब उदार जनतंत्र के बरअक्स एक ओर साम्यवाद तो दूसरी ओर फ़ासीवाद-नाज़ीवाद (आगे संक्षेप में फ़ासीवाद) ने सर उठाया। दोनों में जनतंत्र की तात्कालिक असफलता से कुंठित मनुष्य की निष्ठा के केंद्र के लिए अप्रतिम प्रतियोगिता चली। दोनों ने अपने-अपने अनुयायियों में अध्यवसाय और आत्म-बलिदान का चमत्कारिक जज़्बा भी पैदा किया।
फ़ासीवाद में वैश्विक संरचना को तहस-नहस करने की जो संभावना भरी थी उसमें जबर्दस्त त्वरा थी। उसके विरुद्ध जनतंत्र और साम्यवाद को मजबूरन एक फ़ौरी क़िस्म के सहयोग में जुड़ना पड़ा। उसके हासिल में अंतत: फ़ासीवाद अकाल कवलित हो गया किंतु इस सहयोग का लाभ उठाकर साम्यवाद ने तेज़ी से अपनी शक्ति और प्रभावक्षेत्र दोनों का विपुल विस्तार किया जिससे जनतंत्र व साम्यवाद का अंतर्निहित विग्रह और भी खुलकर सामने आ गया। दुनिया की शांति और समरसता के लिए एक व्यापक और दीर्घकालीन संकट के रूप में शीतयुद्ध का दौर शुरू हुआ। उसके अवसान के साथ साम्यवाद लगभग बिखर गया, बस एक विश्वव्यापी स्वप्न पीछे छोड़ गया। दुनिया फिर अपने उसी विरस, विखंडित मार्ग पर चल पड़ी और संभावना व यथार्थ के द्वंद्व से आविद्ध जीवन असमानता और असंतुष्टि के स्थायी भाव में सिमट आया। लेकिन ऐसा सोचना अतिशय आशावाद होगा कि कहीं ज़रख़ेज़ जमीन मिलने पर फ़ासीवाद का बीज पुन: अंकुरित होने के लिए नहीं सुगबुगाएगा और ज़रूरी खाद-पानी पाने पर उसका विषवृक्ष फिर से नहीं लहलहा उठेगा। कौन कह सकता है, वह ज़मीन भारत की ही न हो?
सर्वसत्तावादी दर्शन
साम्यवाद और फ़ासीवाद दोनों के सर्वसत्तावादी (totalitarian) दर्शन होने से उनमें कई मूलभूत समानताएँ स्वाभाविक हैं। इसके अतिरिक्त दोनों घोर सामाजिक-आर्थिक विचलन और उससे उपजे मोहभंग की उपज थे, जिसने दोनों को आक्रामक ढंग से एकांतिक बनाया।
औद्योगिक क्रांति का अभी पहला ही चरण पूरा हुआ था कि गाँवों में बँधुआ मज़दूर की तरह अपने-अपने स्वामी की जागीर से बँधे, बात-बात पर कोड़े खाने तक का अपमान झेलते बेबस भूदास भरभराकर शहरों की ओर भागे। वहाँ जीने की न्यूनतम सुविधाओं के लिए अपना श्रम बेचकर कारख़ानों में खटते हुए एक नारकीय जीवन जीने लगे। वे गाँव नहीं लौट सकते थे क्योंकि वहाँ हालात उनके लिए और भी ख़राब थे। शहरों में विभिन्न क्षेत्रों से आए इन पीड़ित श्रमिकों के जमावड़े से बहुत उथल-पुथल मची। असंवेदनशील स्वार्थांधता और घनीभूत मानवीय पीड़ा के योग का एक विषम चित्र था, जिसने संत साइमन, गुइज़र, प्रूधो, फ़ोरियर, सिसमंडी और रॉबर्ट ओवेन जैसे सदाशयी किंतु स्वप्नदर्शी समाजवादियों को जन्म दिया। औद्योगिक क्रांति की शुरुआत को अभी सौ वर्ष भी नहीं बीते थे कि करुणा-विगलित कार्ल मार्क्स आनन-फानन में इतिहास की अपनी सरलीकृत द्वंद्वात्मक या आर्थिक व्याख्या लेकर उपस्थित हो गए। असह्य लगती स्थिति में क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए व्यग्र मार्क्स ने अपने भोलेपन में इतिहास के भविष्य की दिशा भी तय कर दी और पूंजीवाद के आसन्न अवसान की घोषणा कर दी। इसे इतिहास की आर्थिक व्याख्या में निहित नियतिवाद और क्रांति के उद्यम में निहित स्वैच्छिकवाद के बीच स्थाई द्वंद्व बनना था। मार्क्स के मित्र, सदाशयी पूँजीपति फ़्रेडरिक एंजेल्स का सहयोग मिला और आज तक की दुनिया को सर्वाधिक प्रभावित करनेवाला परचा ‘मैनीफ़ेस्टो ऑफ द कम्यूनिस्ट पार्टी’ 1848 में प्रकाश में आ गया । उन दारुण स्थितियों में साम्यवाद की जिस जीवंत विचार-परंपरा की नींव पड़ी, उसे ज़मीन पर उतरने के लिए प्रथम विश्वयुद्ध के खंदकों में पराजयोन्मुख रूसी सैनिकों की वैसी ही दारुण विभीषिका का इंतज़ार करना था। ठंड और भूख के मारे इन सैनिकों को जर्मन डबल रोटी, कम्बल, कपड़े और जूते बाँटकर मोरचे से भागने के लिए प्रेरित कर रहे थे। और इन्हीं भागे हुए सैनिकों का सोवियतों में शामिल होना सर्वहारा क्रांति को संभव बनाने में निर्णायक साबित हुआ।
मजबूर जर्मनी
लगभग वैसी ही स्थिति 1918-19 में जर्मनी में थी जब वह प्रथम विश्वयुद्ध जीतते-जीतते हार गया था। ऊपर से आर्थिक रूप से तोड़ देनेवाली एक बेहद अपमानजनक संधि उस पर थोप दी गई थी। जर्मनी के शत्रु राष्ट्रों द्वारा किए गए आक्रामक प्रचार से उत्प्रेरित गोला-बारूद के कारख़ानों की हड़ताल और नौसेना के विद्रोह से जर्मनी एकदम मजबूर हो गया था। योरोप भर में फैली परस्पर हित-साधन में सक्रिय यहूदी उद्योग लॉबी की भूमिका और युद्ध में उत्तरोत्तर बढ़ती अमेरिकी संलग्नता ने मिलकर जिस तरह जर्मनी की पराजय की ज़मीन तैयार की थी, एक राष्ट्र के रूप में पूरा जर्मनी उससे अतिशय क्षुब्ध और रुष्ट था। हिटलर ने इसी क्षोभ और रोष का भरपूर दोहन किया।
इंग्लैंड और फ़्रांस की दादागीरी
विश्व युद्ध में इटली के विजयी राष्ट्रों के साथ होने के बावजूद प्रतिफल में उसे कुछ नहीं मिला। पहले टर्की के साथ हुए त्रिपोली युद्ध, फिर जन-धन की विपुल हानि उठाकर लड़े गए प्रथम विश्वयुद्ध से उसकी आर्थिक हालत बद से बदतर हो गई थी। इटली के बुर्जुआ साम्राज्यवादियों को उम्मीद थी कि युद्ध के प्रसाद में देश को कुछ नए उपनिवेश मिलेंगे जिनके दोहन से लड़खड़ाती अर्थ-व्यवस्था को पटरी पर लाया जाएगा। विजयी राष्ट्रों के बीच इंग्लैंड और फ़्रांस की दादागीरी से वह आशा चूर-चूर हो गई। जीते हुए राष्ट्रों में इटली युद्ध के प्रभाव से सबसे अधिक थका और चुका हुआ महसूस कर रहा था। बेरोज़गारी का आलम पहले से ही व्याप्त था, युद्ध से लौटे सैनिकों को बड़ी संख्या में कार्यमुक्त कर दिए जाने से वे भी बेरोज़गार होकर दर-दर भटकने लगे थे। सब ओर से ठगे जाने के इसी तीव्र एहसास और निराशा की मानसिकता से उपजा था मुसोलिनी और उसका फ़ासीवाद।
राजनीतिक अधिनायकवाद
फ़ासीवाद और साम्यवाद दोनों में अनिवार्य रूप से राजनीतिक अधिनायकवाद का उभार अंतर्निहित था। दोनों विचारधाराएँ अंतिम सत्य का साक्षात्कार करने के एहसास से भरी, सार्थक संसदीय विमर्श और वैचारिक आदान-प्रदान से प्राप्य समंजन की सुविधा से महरूम थीं। और यही समंजन की मध्यममार्गी राजनीति थी जिसे योरोप के उदारवादी चिंतन ने सदियों के अनुभव और विकास से एकतंत्र के स्वस्थ विकल्प के रूप में अर्जित किया था। दोनों विचारधाराएँ केवल एक-दलीय प्रणाली को बर्दाश्त कर सकती थीं जिसमें अंतत: एक व्यक्ति का निरंकुश शासन संगर्भित है। दोनों की वैचारिक कट्टरता और राजनीतिक असहिष्णुता बाह्य विरोधियों के सफ़ाए के अतिरिक्त दल के भीतर भी असहमतों के ‘शुद्धीकरण’ (purge) और ‘कुचलने’ (liquidation) का भयानक, मानव-हंता चक्र चलानेवाली थीं। यहूदियों के विरुद्ध हिटलर का निर्मम विध्वंस कांड (The Holocaust) बहुत कुख्यात है। 1941 से 1945 तक योरोप के जर्मन-अधिकृत राज्यों में चलाए गए इस लोमहर्षक विध्वंस में लगभग 60 लाख यहूदी नष्ट कर दिए गए; यह योरोप की यहूदी जनसंख्या का दो तिहाई हिस्सा था। इसके अतिरिक्त रूस पर आक्रमण के समय भी वहाँ के साम्यवादी पदाधिकारियों तथा यहूदियों का बड़ी मात्रा में सफ़ाया किया गया। रूसियों की स्लाव नस्ल को भी हिटलर आर्यों से कमतर समझता था और उनके सम्बंध में भी उसकी नीति संदेह के घेरे से मुक्त नहीं थी।
सर्वहारा क्रांति का बिगुल
लेकिन साम्यवादी रूस में लौह परदे के पीछे जो घटित हुआ वह किसी भी अर्थ में जर्मनी से कम भयावह नहीं था। रूस की लाल सेना और सफ़ेद सेना के बीच गृह युद्ध तो लेनिन के समय से ही शुरू हो गया था। लेनिन असहमति का सम्मान करने वाले, खुली प्रकृति के एक सदाशयी और निष्ठावन बोल्शेविक थे। युद्ध-जर्जर रूस की चरमराई अर्थ-व्यवस्था में पनपते असंतोष से और खाद्य-सामग्री की अतिशय क़िल्लत के चलते लगभग स्वत:स्फूर्त ढंग से फूट पड़ी मार्च, 1917 की पहली रूसी क्रांति के समय वे स्विटज़रलैंड में देशनिकाला झेल रहे थे। इस क्रांति के बाद बनी अंतरिम बुर्जुआ सरकार जर्मनी के विरुद्ध युद्ध क़ायम रखे हुए थी। लिहाज़ा, जर्मनी ने अप्रैल में लेनिन को एक बंद गाड़ी में रूस के सीमा-प्रांत में पहुँचा दिया। और पहुँचते ही उन्होंने मार्क्सवादी प्रमेय में मौक़े के अनुरूप सुधारकर, सारी शक्तियाँ सोवियतों को देने के नारे के साथ, सर्वहारा क्रांति का बिगुल बजा दिया। नवंबर, 1917 में सम्पन्न हुई इस दूसरी क्रांति के साथ ही रूस में गृह युद्ध (नवंबर 1917—अक्टूबर 1922) प्रारम्भ हो गया। बोल्शेविकों के विरुद्ध एकजुट हुए अनेक रूसी तत्वों से बनी सफ़ेद सेना और बोल्शेविकों की लाल सेना के बीच चलनेवाले इस गृह युद्ध ने तक़रीबन 80 लाख लोगों की आहुति ली जिनमें बड़ी संख्या में निर्दोष नागरिक भी थे। अपनी-अपनी सेनाएँ खड़ी करने के लिए दोनों पक्षों ने संगीन की नोक पर अनिवार्य भर्ती लागू की। बोल्शेविकों ने ज़ार सेना के अधिकारियों के परिवारों को बंधक बनाकर उन्हें अपने पक्ष में लड़ने को बाध्य किया। मिखाइल सोलोखोव के प्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यास ‘और दोन शांत बहती रही’ का तीसरा खंड इस गृह युद्ध के क्रूर नर-संहार का प्रामाणिक दस्तावेज़ है। बोरिस पास्तारनाक का उपन्यास “डॉक्टर ज़िवागो’ भी उसी कालखंड को उपजीव्य बनाता है किंतु उसके कथ्य का फ़ोकस बिखरा हुआ है।
स्तालिन और ट्रॉट्स्की के बीच संघर्ष
1924 में लेनिन की मृत्यु के बाद उत्तराधिकार के लिए स्तालिन और ट्रॉट्स्की के बीच संघर्ष चला। सैद्धांतिक आधार तो मार्क्स और लेनिन का पुराना प्रमेय विश्व समाजवाद (ट्रॉट्स्की) बनाम एक देश में समाजवाद (स्तालिन) था किंतु दोनों के व्यक्तिगत भेद ही प्रमुख कारण बन गए। 1926 तक चले इस संघर्ष में सीक्रेट पुलिस के सहयोग से स्तालिन विजयी हुए। अक्टूबर, 1926 में ट्रॉट्स्की और उनके समर्थकों को पालित ब्यूरो से हटा दिया गया। अक्टूबर, 1927 में उन्हें दल की केंद्रीय समिति से भी हटा दिया गया। नवंबर, 1927 में वे साम्यवादी दल से ही निष्काषित कर दिए गए और फ़रवरी, 1929 में उन्हें देश-निकाला दे दिया गया। वे विभिन्न देशों में घूमते रहे। 1940 में मेक्सिको शहर में स्टालिन के एक एजेंट रमों मर्काडर ( Ramon Mercader) ने उनकी हत्या कर दी। बाद में स्तालिन ने मेक्सिको की जेल में बंद मर्काडर को ऑर्डर ऑफ़ लेनिन से सम्मानित किया।
शुद्धीकरण अभियान -महान आतंक
लेकिन सबसे लोमहर्षक था स्तालिन द्वारा साम्यवादी दल के भीतर चलाया गया शुद्धीकरण अभियान (1936-1938) जो इतिहास में महान आतंक (The Great Terror) के नाम से कुख्यात है। इसके तहत दल के असली या अनुमानित असहमतों, मुख्यत: ट्रॉट्स्की-समर्थक पदाधिकारियों, बुद्धिजीवियों एवं प्रशासनिक व सैन्य अधिकारियों को मनमानी ढंग से मौत के घाट उतार दिया गया, या साइबेरिया के गुलग द्वीप समूह में स्थित श्रमिक दंड कैम्पों में भेज दिया गया। पाँच सर्वोच्च सैन्य अधिकारियों में तीन मार दिए गए थे जिनमें सेना में महत्वपूर्ण सुधारों के लिए मशहूर मिखाइल तुखाचेवस्की भी शामिल थे। दूसरी पंक्ति के अधिकारियों में से भी आधे ख़त्म कर दिए गए। स्थिति ऐसी बनी कि जब 22 जून, 1941 को हिटलर ने रूस पर हमला किया, प्रतिरोध की कोई तैयारी ही नहीं थी। स्तालिन और उनके ख़ैरख़्वाह अयोग्य अधिकारियों द्वारा नीत रूसी सेना एक हफ़्ते तक लकवे की हालत में स्तब्ध पड़ी रही और नाज़ी सेना धड़ाधड़ आगे बढ़ती गई। हज़ारों युद्ध विमान अपने अड्डों पर निष्क्रिय पड़े-पड़े बमबारी के आसान लक्ष्य बन गए और जुलाई, 1941 के पहले हफ़्ते में लाल सेना के तीन लाख सैनिक आत्म-समर्पण के बाद बंदी बना लिए गए। गुलग द्वीप समूह के कैम्पों में भेजे गए अनेक आरोपी भूख, बीमारी, आत्यंतिक श्रम या खुले में छोड़ दिए जाने से मर गए। पावदा के ही एक लेख (28 अक्टूबर 1990, पृ.2) के अनुसार कुल 6,81,692 साम्यवादी इस ‘महान आतंक’ की बलि चढ़ गए। किंतु डब्ल्यू थर्स्टन रॉबर्ट की पुस्तक Life and Terror in Stalin’s Russia, 1934-1941 (येल यूनिवर्सिटी प्रेस), पृ.139 के अनुसार यह संख्या 12 लाख के क़रीब थी। स्वयं ख्रुस्चेव (स्तालिन के उत्तराधिकारी) ने साम्यवादी दल के 1956 में हुए बीसवें अधिवेशन में ख़ुलासा किया था कि स्तालिन ने दल के अनेक नेताओं और कई हज़ार औद्योगिक प्रबंधकों एवं तकनीशियनों की हत्या करा दी थी। ख्रुस्चेव ने तो यहाँ तक कहा था कि जब वे स्तालिन के सामने जाते थे, उन्हें पता नहीं होता था, वे जीवित लौटेंगे या नहीं।इसी ख़ुलासे के साथ ही सोवियत रूस में डी-स्टालिनाइज़ेशन का दौर शुरू हुआ था। (जारी)
(लेखक प्रख्यात शिक्षाविद हैं और विभिन्न विषयों पर उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं)