अनिल सिंह ।

मार्क्सवाद में मानव-स्वभाव के विचलन के लिए व्यक्तिगत सम्पत्ति को एकमात्र कारक बताकर छुट्टी पा ली गई है। किंतु यदि कोई अमर्यादित, असंवेदनशील, अतिमहत्वाकांक्षी व्यक्ति दल के शीर्ष पर पहुँच जाए तो कौन साम्यवादी है, कौन उसका दुश्मन, यह भेद ख़त्म हो जाता है और सब कुछ शीर्ष नेतृत्व की स्वेच्छाचारिता के अधीन हो जाता है। मार्क्स द्वारा इतने हल्के में लिया गया मानव स्वभाव ही अंतिम नियामक तत्व साबित होता है… और वही राज करता है, वाद कोई भी हो। निष्ठावान साम्यवादियों को यह समझ पाने में अभी जाने कितना वक़्त लगेगा!


 

कम से कम 70 लाख किसान मारे गए

रूस में स्तालिन के लम्बे कार्यकाल में मौत के घाट उतारे गए लोगों में सर्वाधिक संख्या कृषि के सामूहीकरण (1928-1940) के दौरान बड़े किसान (कुलक) और अन्य किसानों की थी जिन्होंने इस नीति का विरोध किया था। विशेषज्ञों द्वारा इस तरह मारे गए किसानों की संख्या का अनुमान 70 लाख से लेकर 1 करोड़ 40 लाख तक किया गया है। इतने अंतरवाला यह कैसा अनुमान! किंतु कम से कम 70 लाख किसान तो मारे ही गए होंगे। इनमें से कुछ बार-बार पड़ने वाले अकाल के भी शिकार हुए थे। कुछ विशेषज्ञों के अनुसार ये अकाल सरकारी नीति के सायास या अनपेक्षित परिणाम थे।

शक्ति का केंद्रीकरण

फ़ासीवाद और साम्यवाद दोनों में इकलौता दल स्व-निर्मित विशेषाधिकार- संपन्न कुलीनतंत्र की तरह काम करता है। साम्यवाद में भी सर्वहारा के प्रतिनिधि के तौर पर इसी दल में सारी शक्ति का केंद्रीकरण हो जाता है— समतावाद का प्रगल्भ अपवाद (जार्ज ऑरवेल के एनिमल फ़ार्म का more equal than others)। मिलोवन डिजिलास ने साम्यवादी दल की नौकरशाही को ‘नया वर्ग’ (New Class) की संज्ञा दी है जो सर्वाधिकार-सम्पन्न और निरंकुश शासक वर्ग की तरह कार्य करता है। इस एकाधिकार के चलते फ़ासीवाद और साम्यवाद दोनों में निजी और सार्वजनिक क्षेत्र का उदारवादी पृथक्करण ख़त्म हो जाता है। दोनों में शिक्षा व्यवस्था उन्मुक्त न होकर सैद्धांतिक अनुकूलन के यंत्र की तरह काम करने लगती है। नाज़ीवाद (या राष्ट्रीय समाजवाद) में यह काम आर्य नस्ल के नाम पर होता है तो साम्यवाद में सर्वहारा के नाम पर। दोनों इसे विवेकातीत उच्चतर चेतना समझकर आगे बढ़ते हैं जिसे कला, साहित्य, सौंदर्य-शास्त्र, विज्ञान और धर्म के सिद्धांत तय करने का एकाधिकार होता है। होते-होते ये सिद्धांत यांत्रिक रुढ़ि जैसे बन जाते हैं। जो साहित्य, कला और विचार में इस मार्ग पर नहीं चलते वे नाज़ीवाद में राष्ट्रविरोधी तो साम्यवाद में प्रतिगामी बन जाते हैं। ऐसे में असंवेदनशील, अवसरवादी औसत प्रतिभाओं या प्रतिभाशून्य लोगों की बन आती है और असली प्रतिभाएँ दब जाती हैं। रूस में क्रांति के बाद लिखा गया अति साधारण कोटि का प्रचारात्मक साहित्य इसका अकाट्य उदाहरण है। यह किसी भी अर्थ में स्वतंत्र ‘सृजन’ नहीं कहा जा सकता।

collectivization | Definition & Facts | Britannica

रूढ़ियों के रखवाले

फ़ासीवाद और साम्यवाद दोनों अपने-अपने सिद्धांतों को पुष्ट करने हेतु इतिहास के पुनर्लेखन पर बल देते हैं। अंतत: दोनों ही धार्मिक कट्टरता का रूप ले लेते हैं। कोई भी सृजन जो इनकी स्थापनाओं का प्रचारक या समर्थक नहीं होता या इनके अनुरूप नहीं चलता, त्याज्य हो जाता है। इन विचारधाराओं के विद्वान इस सृजन की दिशा और चरित्र की सैद्धांतिकी के अनुरूप या विपरीत होने के आधार पर उसकी गुणवत्ता निर्धारित करते हैं। एक तरह से वे विद्वान नहीं, रूढ़ियों के  रखवाले बन जाते हैं। और दोनों विचारधाराएं अपनी-अपनी स्थापनाओं में दु:साहसी और दावों में असीमित होने की प्रवृत्ति रखती हैं। उदाहरण के लिए प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में नाज़ी दल का एक फ़रमान देखने लायक है—

“कोई भी लड़का या लड़की तब तक स्कूल नहीं छोड़ेगा जब तक उसे रक्त की प्रकृति और पवित्रता की आवश्यकता के परम ज्ञान (ultimate knowledge) में दीक्षित न कर दिया गया हो।”

वे देश भी, जहाँ साम्यवादी दल ने सर्वोच्च सत्ता प्राप्त कर ली थी, इस तरह के ‘परम ज्ञान’ के व्यामोह से मुक्त नहीं रहे। समय-समय पर इस ‘परम ज्ञान’ का निर्णय अंततोगत्वा दल का सोपानबद्ध संगठन ही करता है जो निहितार्थ में दल का शीर्ष नेतृत्व होता है।

Who were the Kulaks?

मानवता या नैतिकता का कोई स्थान नहीं

सामाजिक दर्शन के रूप में राष्ट्रीय समाजवाद और साम्यवाद दोनों मूलत: शक्ति-सिद्धांत हैं। एक में नस्ली या राष्ट्र-शक्ति है तो दूसरे में आर्थिक शक्ति। इन शक्तियों में मानवता या नैतिकता का कोई स्थान नहीं। दोनों में वर्चस्व कायम करने के लिए संघर्ष अनिवार्य है। एक में नस्ली संघर्ष है तो दूसरे में वर्ग-संघर्ष। दोनों में आपसी समझ या समंजन के लिए कोई अवकाश नहीं। इसलिए दोनों राजनीति को शुद्ध शक्ति-संघर्ष के रूप में लेते हैं जिसका एकमात्र मक़सद सत्ता प्राप्त करना होता है, जो शेष सारे परिवर्तनों के लिए आधारभूमि का काम करता है। इनमें सार्थक संवाद के लिए कोई स्थान नहीं क्योंकि संवाद का लक्ष्य किसी छूट, अपवाद या सीमा के स्वीकार के साथ सहमति पर पहुँचना नहीं, एकमात्र लक्ष्य विरोधी पर वर्चस्व क़ायम करना है। अकारण नहीं कि दोनों की भाषा बेहद आक्रामक और प्राय: अपशब्दों से भरी होती है, वे मुद्दे के बजाए असहमत को दुश्मन समझकर उस पर व्यक्तिगत वार करने, उसे छोटा दिखाने और चुप करा देने में विश्वास रखते हैं।

कालातीत में मतांधता में बदल मार्क्सवाद

सर्वसत्तावादी दर्शन के रूप में फ़ासीवाद और साम्यवाद की इन समानताओं पर विहंगम दृष्टि डालते समय इनकी पृष्ठभूमि के जैविक अंतर का अनदेखा नहीं किया जा सकता। साम्यवाद नैतिक और बौद्धिक दोनों दृष्टियों से फ़ासीवाद की अपेक्षा एक उच्चतर धरातल पर अधिष्ठित है। आरंभ में इसकी निष्ठा संदेह से परे थी। इसका सिद्धांत दो पीढ़ियों के मार्क्सवादी अध्येताओं की निर्मिति थी जिसमें नैतिक एवं बौद्धिक निरंतरता थी। यह ज़रूर हुआ कि इसने मार्क्सवाद को कालातीत मतांधता में बदल दिया। मार्क्स ने स्वयं कहा था वे मार्क्स हैं, मार्क्सिस्ट नहीं। और हुआ वही जिसका उन्हें डर था।

शुद्ध अवसरवाद और दोषदर्शन की देन फ़ासीवाद

इसके बरअक्स फ़ासीवाद सिद्धांत के रूप में शुद्ध अवसरवाद और दोषदर्शन की देन था। बौद्धिक बेईमानी इसकी निर्मिति से अविभाज्य थी। मार्क्सवाद के पीछे यह एहसास जुड़ा था कि आधुनिक तकनीक और पूँजीवाद मनुष्य को अमानवीय और अनैतिक बना रहे हैं। उदारवाद ने भी इस ख़तरे को पहचाना था, इसे कम करने की कोशिश भी की थी किंतु उदारवादी राजनीति में निहित मूल्यों को अस्वीकार नहीं करना चाहता था। अंतत: इसने मार्क्सवाद के प्रमेयों को आत्मसात्‌ करते हुए लोकतांत्रिक समाजवाद की अवधारणा विकसित की जिसने पूँजीवादी देशों को श्रमिक-कल्याण के अनेक क़ानून पारित करने के लिए प्रेरित किया। पूँजीवादी देशों में भी श्रमिकों की दशा में बुनियादी सुधार हुए। इस तरह उद्योग के विकास में वैयक्तिक पहल और उत्पादन में मानवीय स्थितियों के संयोग से वातावरण बेहतर बना, श्रमिकों की क्रयशक्ति बढ़ने से अर्थव्यवस्था में गतिशीलता भी आई। पूँजीवादी देशों में श्रमिकों का वेतन-मूल्य साम्यवादी देशों से आगे बढ़ गया। किंतु सोवियत रूस के बिखरने और चीन के वैश्विक पूँजीवाद को अंगीकार कर लेने के बाद से स्थिति डाँवाडोल है। आउटसोर्सिंग में ठेकों की सोपानबद्ध शृंखला से असंगठित क्षेत्र का अतिशय विस्तार हुआ है और श्रमिकों तथा छोटे किसानों की स्थिति में गिरावट आई है। एक चमकदार विज्ञापनी सभ्यता का विकास हुआ है जिसमें समाज के प्रति असंवेदनशील अतिशय उपभोक्तावाद जीवन का केंद्रीय मूल्य बनता जा रहा है। (समाप्त)

(लेखक प्रख्यात शिक्षाविद हैं और विभिन्न विषयों पर उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं)


फ़ासीवाद-नाज़ीवाद और साम्यवाद: समानताएँ और भिन्नताएँ-1