गुरु पूर्णिमा (13 जुलाई) पर विशेष।
शिवचरण चौहान।
कबीर को तो काशी में गंगा की सीढ़ियों में सदगुरु मिल गए थे। पर सद्गुरु की पहचान क्या है? कोई नहीं बताता। गुरु बनने को तो सभी तैयार हैं किंतु शिष्य बनने को कोई नहीं तैयार होता। रामानंद तो सगुण उपासक थे किंतु कबीर निर्गुण उपासक। कबीर के राम दशरथ के बेटा नहीं हैं। वह तो अविनाशी अजन्मा और निराकार है।
गोरख के वचन
धर्मदास को कबीर जैसा सतगुरु मिल गया और कबीर के बाद वही कबीर की गद्दी पर बैठे। पर और किसी को सद्गुरु कैसे मिले? यह बड़ा सवाल है?
सबसे पहले सतगुरु की पहचान गुरु गोरखनाथ बताते हैं-
‘मोटे मोटे कूल्हा, मोटे-मोटे पेट। नहीं रे पूता, गुरु से भेंट।।
खड़ खड़ काया, निर्मल नेत्र। भई रे पूता गुरु से भेंट।।’
मोटे ताजे बड़े बड़े पेट वाले सद्गुरु नहीं हो सकते। निर्मल नेत्र, दुर्बल काया वाला संत ही सद्गुरु हो सकता है।
वहीँ कबीर कहते हैं- ‘गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागू पांय। बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो मिलाय।।’ यदि ईश्वर और गुरु दोनों एक साथ मिल जाएं तो सबसे पहले गुरु को प्रणाम करना चाहिए क्योंकि गुरु ने ही ईश्वर तक आप को पहुंचाया है।
गुरु मन कर्म वचन से साफ, शुद्ध और निश्छल होना चाहिए। क्यों होना चाहिए… इसलिए कि-
‘जाका गुरु है अंधला, चेला खरा निरंध। अंधे अंधा ठेलिया, दोनों कूप परंत ।।’ (अज्ञानी गुरु का शिष्य अज्ञानी ही रहेगा और अंत में अपना जन्म अकारथ कर लेगा।)
कबीर की नजर में गुरु की महिमा
कबीर की नजर में गुरु की पहचान साफ है। खरी खरी खूब कही है कबीर ने- ‘सतगुरु सम कोई नहीं, सात दीप नौ खंड। तीन लोक न पाइए, अरू इक्कीस ब्रह्मांड।।’ (सात द्वीप और नौ खंडों में भी गुरु के समान कोई महाज्ञानी नहीं है। तीन लोक और 21 ब्रह्मांड में भी गुरु जैसा दूसरा नहीं मिलेगा जो भवसागर से पार उतार सके।)
तीरथ का फल एक पल, संत मिले फल चार। सतगुरु मिले अनंत फल, कहे कबीर विचार।। (तीर्थ यात्रा करने से एक फल मिलता है, संत का समागम होने से चार पदार्थ/फल मिल जाते हैं- किंतु सतगुरु के मिल जाने पर अनंत फल मिलते हैं। शिष्य का उद्धार हो जाता है।)
गुरु से ज्ञान जु लीजिए, सीस दीजिए दान। बहुतक भोंदू बहि गए,राखि जीव अभिमान।। (अगर अपना सिर देकर भी गुरु से ज्ञान मिल रहा है तो अपना शीश देकर भी गुरु से ज्ञान ले लेना चाहिए। न जाने कितने अज्ञानी गुरु की सलाह न मानकर सीख ना मानकर भवसागर की तेज धारा में बह गए।)
गुरु पारस को अंतरो, जानत हैं सब संत। वह लोहा कंचन करे, ये करि लेंय महंत।। (सभी संत जानते हैं कि गुरु पारस मणि के समान है। जैसे पारस मणि के स्पर्श से लोहा भी सोना हो जाता है इसी तरह सद्गुरु की संगत में आकर मनुष्य भी सोना बन जाता है। संत श्रीमहंत हो जाता है।)
गुरु समान दाता नहीं, याचक शिष्य समान। तीन लोक की संपदा, सो गुरु दीन्ही दान।। (दानियों में सबसे बड़े दानी गुरु हैं जो अपने शिष्य को अपना सारा ज्ञान दे देते हैं। तीन लोक की संपत्ति भी गुरु अपने शिष्य को दान में दे देते हैं और शिष्य आवागमन से मुक्त हो जाता है।)
सतगुरु की महिमा अनत, अनत किया उपकार। लोचन अनत उघाड़िया, अनत जिया वन हार।। (गुरु ने ज्ञान दिया तो इन आंखों से सत्य दिखाई देने लगा। गुरु महान है जो हमारी आंखें खोल दीं और हमें सत्य का ज्ञान हो गया।)
“बलिहारी गुरु आप नो, द्योहाडी को बार। जिन माणुस ते देवता करत न लागी बार।।’ (जिस गुरु ने अपने ज्ञान से मुझे मनुष्य से देवता बना दिया ऐसे गुरु को मैं बार बार प्रणाम करता हूं बलिहारी जाता हूं।)
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान। सीस दिए जो गुरु मिलें, तो भी सस्ता जान।। (अपना सर्वस्व न्योछावर करके भी गुरु की शरण में चले जाना चाहिए क्योंकि यह मानव शरीर विष की बेल के समान है जो एक दिन इस तन को नष्ट कर देगी।)
लोभी गुरु, लालची शिष्य
‘गुरु लोभी सिष लालची, दोनों खेलें दांव। दोनों बूडे बापुरे, चढ़ पाथर की नांव।।’ (कबीर कहते हैं- लोभी गुरु और लालची शिष्य कभी भी भवसागर पार नहीं कर सकते, वे तो माया मोह की पत्थर रूपी नाव में भवसागर में ही डूब जाएंगे।)
बिना विचारे गुरु न बनाएं
“गूरू कीजिए जानि के, पानी पीने छानि। बिना विचारे गुरु करे, पर चौरासी खानि।।” (कबीर कहते हैं कि जैसे छानकर पानी पिया जाता है वैसे ही जान पहचान कर गुरु करना चाहिए। बिना विचारे देखा देखी अगर किसी ने गुरु कर लिया है तो ऐसा गुरु उसे ज्ञान नहीं दे पाएगा। इसी 84 लाख योनियों में उसे फिर आना जाना पड़ेगा।)
सच्चा शिष्य
गुरु की आज्ञा आवे, गुरु की आज्ञा जाय। कह कबीर सो संत है, आवागमन नसाय।। (जो गुरु की हर बात मानता है। गुरु की आज्ञा के अनुसार आचरण करता है। वहीं सच्चा संत है और वही शिष्य मोक्ष प्राप्त कर लेता है।)
कच्चा शिष्य
गुरु आज्ञा माने नहीं चले अटपटी चाल। लोक वेद दोनों गए, आए सिर पर काल।। (बहुत से लोग गुरु तो कर लेते हैं पर उनके दिखाए रास्ते पर नहीं चलते हैं। उनकी बात नहीं मानते हैं। ऐसा शिष्य इस दुनिया से भी चला जाता है और परलोक में भी उसे सद्गति प्राप्त नहीं होती।)
गुरु क्यों जरूरी है
गुरु बिन ज्ञान न ऊपजे, गुरु बिन मिले न मोष। गुरु बिनु लखे न सत्य को,गुरु बिन मिटे न दोष।। (बिना गुरु के मिले सतसंगत के ज्ञान नहीं मिलता। मोक्ष नहीं मिलता। बिना गुरु के अपने दोष नहीं दिखाई देते और गुरु जब सत्य का ज्ञान करा देता है तो सारे बंधन कट जाते हैं।)
कबीर माया मोहिनी, जैसी मीठी खांड। सदगुरु की किरपा भई, नहीं तो करती भांड।। (यह तो बहुत अच्छा हुआ कि जीव को सतगुरु मिल गये। सद्गुरु की कृपा प्राप्त हो गई। वरना सारी जिंदगी नाचते, गाते और रोते ही बीत जाती।)
गुरु कुम्हार सिस कुंभ है, गढ़ गढ़ काटे खोट। अंतर हाथ सहाय दे, बाहर बाहे चोट।। (गुरू तो कुंभकार के समान है जो कच्चे घड़े में बड़ी कुशलता से कारीगरी करता है। वह बर्तन को ठोकता है पीटता है किंतु अंदर से हाथ लगाए रहता है और बर्तन को एक नवीन स्वरूप दे देता है। यही काम सच्चे गुरू का है।)
कबीर से ज्यादा कोई सद्गुरु की पहचान नहीं कर सकता, नहीं बता सकता। कबीर ने आज से करीब 600 साल पहले जी बातें गुरू की परख के लिए कही थीं वे आज भी सत्य हैं। कबीर कहते हैं कि बिना सतगुरु के कोई भी आपको भवसागर पार नहीं करा सकता। गुरू का दर्जा ईश्वर से भी बड़ा है क्योंकि वही सच्चे अच्छे और बुरे की पहचान कराता है- ईश्वर तक आपकी राह सुगम करता है। कबीर तब भी प्रासंगिक थे- आज भी प्रासंगिक हैं। गुरु पूर्णिमा पर सच्चे गुरू को पहचान लीजिए। कहीं ऐसा न हो कि जिसे आप गुरू मान कर पूज रहे हैं वह गुरू घंटाल हो!
(लेखक लोक संस्कृति, लोक जीवन और साहित्य व समाज से जुड़े विषयों के शोधार्थी हैं)