थिएटर के मरजीवा अरुण पाण्डेय-2।
सत्यदेव त्रिपाठी।
अब आयें संस्मरण की श्रृंखला में उक्त 19 अगस्त, 1999 के उस प्रथम मिलन पर, जिस दिन की शाम मुंबई के ‘इस्कॉन सभागृह’ (हरे राम हरे कृष्ण) में उनके बहुप्रसिद्ध, बल्कि कहें कि ‘विवेचना’ व अरुण पांडेय की पहचान वाले (सिग्नेचर) नाटक ‘निठल्ले की डायरी’ का मंचन होने वाला था। वही हमारे मिलन व अब तक के आजीवन सम्बंध का मूल बना। लेकिन ठीक एक दिन पहले ही ‘बिड़ला क्रीड़ा केंद्र’ सभागृह (चौपाटी) में इसी नाटक का पहला मंचन मैं देख भी चुका था। तब तक मैंने न अरुण पाण्डेय को देखा था, न उनका कोई नाटक। नाम अलबत्ता सुन रखा था।
मंच पर जो हो रहा हमारे गाँव जैसा था
‘निठल्ले की डायरी’ ऐसा नाटक था कि हमें बीसों साल पहले छूटे अपने गाँव में लेके चला गया…, हमारा गाँव मंच के गाँव जैसा न था, लेकिन मंच पर जो हो रहा था, वह हमारे गाँव जैसा था। इसका औरा हमारे लिए ऐसा रहा कि इसने ही अरुण व ‘विवेचना’ तथा जबलपुर शहर से मिलवाया और आगे चलकर जब अरुण से हमारे घनिष्ठ सम्बंध हुए और उन्हें इस बात का पता चला, तो मेरे गाँव आकर ‘निठल्ले की डायरी’ करने के लिए तैयार ही नहीं हुए, बल्कि मेरी हसरत को साकार करने के लिए बार-बार कोंचते रहे कि किसी तरह नाटक मेरे गाँव में हो जाये। ऐसे यार क़िस्म के आदमी तो हैं ही अरुण पांडेय, लेकिन धीरे-धीरे मालूम पड़ा कि यह उनकी रंग-चेतना का एक प्रमुख मक़सद है कि देश में ऐसे नाट्य समूह होने चाहिए, जो सिर्फ़ गाँवों में नाटक करें- गाँव-दर-गाँव जा-जाकर। मेरे यहाँ तो मेरी काहिली से नहीं हुआ, पर इसकी तड़प आज तक नहीं गयी… और होने की आस आज तक नहीं टूटी।
पिताजी से मिलते हैं हालचाल
परिहार स्वरूप ‘विश्व भोजपुरी सम्मेलन’ के सालाना उत्सव में नागपुर में अवश्य इसका मंचन हो पाया, जिसमें पूरे देश से आये लोगों को मिलाकर एक बड़ा भोजपुरी समाज इसे देख पाया और देखते-देखते लहालोट होता रहा। वह भी अरुण पांडेय की रंग-निष्ठाव संकल्प ही रहा कि मेरे प्रस्ताव पर भोजपुरी में रचे-बसे अपने पिताजी से उस एक प्रदर्शन के लिए उन्होंने पूरा नाटक लिखवाया। जबलपुर की रंगयात्राओँ में उनके घर पे रहने के दौरान सुबहें व रातें पिताजी के सानिध्य में बीतती थीं और उसी का सुपरिणाम व उनके पितृत्त्व का ही जादू है कि इतनी कम मुलाकातों के बावजूद मुझ धुर बचपन से पितृविहीन को एक पिता का असधार मिल गया है। जब से उनके छोटे बेटे बॉबी (विवेक पांडेय) ने नया घर लिया है, पिताजी महामार्ग से सटे व खुले परिवेश में वहाँ रहते हैं और अब इतने सक्रिय-समर्थ नहीं कि नाटक देखने आ पायें, तो उनसे मिलने जाना मेरी जबलपुर-यात्रा का अनिवार्य अनुष्ठान होता है- बल्कि अल्लाह झूठ न बोलवाये, तो कई बार नाटक के बहाने उन्हीं से मिलने के लिए ही आने का मन होता है। और अरुण या अरुण-परिवार क्या, पूरे ‘विवेचना’ से बिना ज़रूरी काम के फ़ोन पर कभी बात नहीं होती, लेकिन हर 15-20 दिन पर पिताजी से बात ज़रूर हो जाती है। तो आजकल अरुणादि के हालचाल पिताजी से मिलते हैं।
पूरा परिवार नाट्यमय
उनके अनूदित ‘निठल्ले की डायरी’ के लिए अरुण ने अनथक श्रम से सारे अभिनेताओं को भोजपुरी में तैयार कराया। और कक्का की केंद्रीय भूमिका करते-करते सच के कक्का बन गये नवीन चौबे के उस दिन सुलभ न हो पाने या भोजपुरी उच्चारण व लहजे में रवाँ न हो पाने के कारण अपने छोटे भाई विवेक पांडेय उर्फ़ बॉबी को सिर्फ़ एक शो के लिए ही तैयार किया। यहाँ यह भी ऊल्लेख्य है कि अरुण का लगभग पूरा परिवार ही नाट्यमय है। और इसके जनक अरुण ही हैं। विवेक व उसकी पत्नी प्रगति तो फ़ुल टाइम नौकरी धंधे के साथ ‘होल टाइमर’ नाट्यकर्मी हैं– मंच से लेकर मंच-परे तक नाट्य के हर रूप, हर महकमे में सक्रिय, बल्कि अब तो एक हद तक कर्णधार भी। और इतनी निजी बात बताने की नहीं होती, पर यह मर्म तो छिपाने की भी बात नहीं कि प्रगति पिछले एक दशक से असाध्य रोग से ग्रस्त है। लेकिन निरंतर इलाज व एकाधिक शल्यक्रिया से गुज़रते हुए भी उसे धता बताकर अपने जीवन व नाट्यकर्म में सक्रिय है। और कौन कहेगा कि उस ‘किरकिट’ पर क़ाबू पाने में इस कलामय जीवन की ऊर्जा भी कारगर भूमिका नहीं निभा रही है– ‘पहुँच तेरे अधरों के पास हलाहल काँप रही है देख…!
घर ही फ़ुल टाइम नाट्यघर
अरुण-भार्या मीनू पांडेय यूँ तो फ़ुल टाइम अध्यापिका और फ़ुल टाइम गृहिणी हैं, लेकिन अरुण का घर ही फ़ुल टाइम नाट्यघर है– विवेचना-परिवार का घर हो गया है। वही कार्यालय है, वही बैठक कक्ष है। वही स्टोर रूम है, वही नाट्य-अतिथि-गृह है। और इसलिए ‘इक प्रबिसहिं इक निर्गमहिं भीर भूप दरबार’ सरीखा वह घर कभी बंद नहीं होता…उस घर को ताले-कड़ी की क्या, दरवाज़े तक की ज़रूरत नहीं। तो ऐसे घर की गृहिणी नाटक से असंपृक्त कैसे रह सकती है, आराम कैसे कर सकती है!! और दर्जनाधिक बार वहाँ रहकर मैं चश्मदीद ही नही, भोक्ता भी हूँ कि मेरे घर-परिवार का सब कुछ मीनूजी जानती ही नहीं हैं, उनकी याद में भी रहता है। हर आगमन पर वहीं से आगे के हाल-चालका आदतन ही लेना-देना (अपडेट्स) हो जाता है। और यही हर आने-जाने वाले के साथ होता है…फिर यह क्या कम रंगकर्मी होना है! मीनूजी ही एक बार कुछ घंटों के लिए मेरे मुंबई वाले घर पहुँच भी गयी हैं, वरना नाट्यदल के कई लोग तो आ गये, पर अरुण नहीं। जब से बनारस भी रहने लगा हूँ, हर मुलाक़ात में उनके बनारस आने और दस-पाँच दिनों रहने के मंसूबे बनते है, पर 12 साल में आ नहीं पाये कभी। और यह भी क्या इस बात का प्रमाण नहीं है कि नाट्यकर्मी अरुण की नारखेड़ी जबलपुर में ही गड़ी है। अपने शहर और रंगकर्म के प्रति यह समर्पण भी अद्भुत है… ख़ैर।
वह है ही ऐसा
नागपुर में भोजपुरी का शो ऐसा हुआ कि सम्मेलन के लोग मिलने और नाटक की बात निकलने पर आज भी अरुण पांडेय के ‘निठल्ले की डायरी’ को याद करते हैं- वह है ही ऐसा। गाँव के किसी ठीहे-नुक्कड़ पर चौपालनुमा मजमा लगा है। फुरसती लोग जुटे-जमे हैं…आते-जाते भी रहते हैं। कक्काजी जम के बिराजमान हैं। यहाँ न किसी को अफ़रातफ़री है, न रोज़ी-रोटी की फ़िक्र। रोज़ी कोई ख़ास है नहीं, पर रोटी मिल जाती है- कैसी, की चिंता नहीं, चर्चा नहीं। न पत्नी पर शक, न प्रेमिका की खोज। न द्वयअर्थी संवादों व बनावटी दृश्यों से खींच-तान के निकाले जाते हास्य, जिसे नागरी भाषा में ‘हिलैरियस कॉमेडी’ कहते हैं और जिन्हें मुम्बई में देख-देख के सिठा गये थे हम। वहाँ चौपाल में चर्चा या शग़ल है, तो दुनिया जहानका। और संवाददाता है प्रतीक रूप में एक सायकल वाला बंदा, जिसे तब नरोत्तम बेन ने साकार किया था, जो आज मुम्बई में गायन-अभिनय आदि में जम चुका है। जब मैं ‘बतरस’ का मासिक आयोजन चलाता था, नरोत्तम नियमित प्रतिभागी ही नहीं, अपने लहकते लोकगीतों के चलते ‘बतरस की शान’ रहा। नाटक में वह गाँव की ही नहीं, देश-विदेश की खबरें भी देता है। याने वहाँ अख़बार नहीं, आदमी पढ़े जाते हैं। इस पूरे संभार को नाटक के ही शब्दों में- ‘निट्ठले की डायरी’ है- नक़्शा हिंदुस्तान का’।और है हर खबर पर कक्काजी की टिप्पणी, बल्कि तब्सिरा- जैसे उन्हें दुनिया का सब कुछ हस्तामलक हो और जिस पर है श्रोता-मंडली को अखंड विश्वास।जैसे वे दुनिया के सबसे बड़े ख़बरगो व तत्त्ववेत्ता ‘मिस्टर आल नो’ (सर्वज्ञ) हों। उनकी यह अदा बहुत मक़बूल हुई कि हर ख़बर के तब्सिरे पर कक्का अपनी नाक से एक बाल ठह के उखाड़ते हैं, फ़ट से फेंकते है- गोया सारी खबरें हों उनके नाक की बाल… और यह है अरुण पांडेय का कमाल।
महानगर की बँधी हुई एकरस ज़िंदगी
इसे बिड़ला क्रीड़ा केंद्र में पहली बार देखते हुए ही अचानक महसूस होने लगा था कि महानगर की जिस ज़िंदगी में हम रम गये होने का अहसास कर रहे हैं, वह कितनी बँधी-बँधी हुई एकरस है। घड़ी की सुइयों से संचालित, चाकचिक्य भरी ज़िंदगी, जिसमें अपनी रोज़ी-रोटी के सिवा कोई गति नहीं।और डेढ़ दशकों से देख रहा था ऐसे ही नाटक, जिनमें सजा-सजाया दीवानखाना (ड्राइंग रूम), जहां या तो सौदे हो रहे हैं या पति-पत्नी के एक दूसरे से छिपके किसी तीसरे-तीसरी से प्रेम चल रहे हैं… आदि-आदि। गरज ये कि सहज-स्फूर्त्त जीवन नदारद है। ऐसे में ‘निट्ठले की डायरी’ उस गाँव में उठा ले गया, जहां तब समय ही समय था। जहां उपयोगिता से कोई वास्ता नहीं। काम की कोई बात नहीं- बस, मस्ती ही मस्ती है। और शहर में अपने और अपने कमाने के अलावा कुछ नहीं होता, शेष सब कुछ बेकाम का- शहर की भाषा में फ़ालतू। कुल मिलाकर यूँ अनुभव हुआ जैसे ‘तपन में शीतल मंद बयार’ आ गयी हो और लगा कि जैसे हमारी आँखें खुल गयी हों– हाय अल्ला, नाट्यकर्म ऐसा भी होता है! और वहीं तय किया कि कल दूसरा प्रदर्शन भी देखना ही है। यह दूसरा प्रदर्शन जिस इस्कॉन में घोषित था, वह मेरे घर के पास भी है। इसीलिए पहली शाम ‘क्रीड़ा केंद्र’ से नाटक के तुरत बाद किसी आवश्यक कार्य वश भाग लिया था। न पात्र-परिचय देखा, न नेपथ्य में मिलने गया, जो एक रंग-संस्कृति है तथा नाट्यप्रेमियों व ख़ास तौर पर कलाकारों से परिचित लोगों के लिए उत्साह व कला-प्रेम का सबब भी। हम समीक्षकों के लिए तो नाट्य-विषयक कुछ विवरण या स्पष्टीकरण आदि पाने का प्रयोजन भी- याने नाट्य-प्रेम व सरोकार दोनो ही। और यह सब हुआ दूसरे दिन 10 अगस्त की शाम इस्कॉन में। पहले तो नाटक के बाद तालियाँ रुक ही न रही थीं। फिर कलाकार-परिचय शुरू हुआ, तो मंच पर बुलाये गये ‘इस नाटक के लेखक-निर्देशक अरुण पांडेय’।
यह अदा-हीन अदा भी बड़ी भायी
वहीँ मेरा पहली बार अरुण को देखना हुआ। पूरे पात्र-परिचय में वे नामालूम से खड़े रहे… उनका नाम लिया गया, तो बस हाथ जोड़ दिये- तालियाँ बजती रहीं… और वे नत-नयन, स्थिर काया लिए स्तंभवत। यह अदा-हीन अदा भी बड़ी भायी मुझे। किसी तरह मंच निपटा, तो नेपथ्य की तरफ़ बढ़े…मिलने वालों की भीड़ बड़ी थी। पूरे सभागृह को नाटक बहुत भाया था। और तमाम लोग उमड़ पड़े थे अपने प्रिय कलाकारों से मिलने के लिए। कक्का बने भाई नवीन चौबे से गलबहिंया होते, बधाइयाँ देते हुए अरुण की तरफ़ बढ़ा। नाम बताते ही हहा के मिले… तो लगा कि जानते हैं (या मुम्बई आनेपर जान गये हों)। ‘भीषण सुंदर’ (उन दिनों किसी बंगालन के प्रभाव में तारीफ़ का यही शब्द था मेरा)- कहते हुए मैं गले लगाने चला कि अरुण पाँव छूने की अदा में अधलटके होने लगे… तो गाँव फिर जी उठा–लगा कि ‘हेलो-हाय’ वाले शहर से अचानक गाँव में आ गये हैं। यह क़यास भी हुआ कि अरुण उम्र में मुझसे छोटे हैं। भीड़ देख के और समय की नज़ाकत समझ के मैं चलने को हुआ, तो बोले- ‘अरे रुका भैया, जल्दी का हौ’? और तब से यह ‘भैया’ शब्द उनका चिर सम्बोधन ही नहीं बना, जीवन में ढल गया है। फिर तो सम्बंधों में कभी जल्दी आयी नहीं। आपसी बात भोजपुरी में ही होने, जो मुझे भी बहुत प्रिय है, का अनकहा करार बन गया। भीड़ कुछ छँटी, तो एक सिरे से बात शुरू हुई… और शुरू हुई, तो बढ़ती गयी… फिर लगा कि बातें उस नीले कमरे (ग्रीन रूम) में समा नहीं रहीं, तो हम बाहर निकल आये। ‘हरे राम, हरे कृष्ण’ का परिसर काफ़ी खूबसूरत है। वहाँ टहलते हुए… फिर सदर दरवाज़े के सामने सड़क पर खड़े-खड़े किसी टपरी की चाय पीते हुए और फिर मंदिर के सामने की गली में टहलते-टहलते समुद्र के मुहाने तक घूमते हुए बतियाते रहे। बातें ही बातें- कभी न ख़त्म होने वाली बातें…, जो पारस्परिकता की जान व गँवईं संस्कृति की ख़ास पहचान हैं और जिससे शहर की सभ्यता बहुत बिदकती है। और अंत में लगभग डेढ़ घंटे बाद भविष्य में मिलते रहने की कई-कई योजनाओं व बराबर सम्पर्क में रहने के वायदों के साथ विदा हुए।
अब क्या कहना होगा कि उन्हीं योजनाओं व वायदों के निभने-निभाने के दौरान बने सम्बन्धों की गाथा है यह संस्मरण।
(लेखक कला एवं संस्कृति से जुड़े विषयों के विशेषज्ञ हैं)