भारतीय लोक और फ़ोक

सत्यदेव त्रिपाठी।
अंग्रेजों के साथ आयी अंग्रेज़ी ने हमारे ‘लोक’ का जो नुक़सान किया, वह देश की ग़ुलामी से कम नहीं, बल्कि प्रतिशत में ज़्यादा है। क्योंकि 200 सालों की ग़ुलामी के बावजूद देश में काफ़ी कुछ अपना साबुत रह गया, पर ‘लोक की अवधारणा’ तो पूरी की पूरी बदल गयी।

 

लोक के लिए अंग्रेज लोग एक शब्द लेके आये- ‘फोक’। उनके यहाँ फ़ोक का अर्थ होता है- मुख्य धारा से कटा हुआ, उपेक्षित-पिछड़ा होकर एक कोने में पड़ा हुआ– रहम का मुंतज़िर। आधुनिक व महनीय बनने के लिए अंग्रेजों (अब तो विदेशियों) के सब कुछ को नाक-गले में पहन लेने की हमारी नकलची वृति (जिसकी लत अंग्रेजों ने ही लगायी) ने इस शब्द ‘फ़ोक’ को भी सर-माथे ले लिया। सो, यह शब्द व अर्थ हमारे यहाँ धीरे-धीरे इतना प्रचलित व लोकप्रिय हुआ कि हमारी समूची संस्कृति व सारी कलाएँ इसी में डूब गयीं– फोकमय हो गयीं। उसने हमारे बहुत मानिंद ‘लोक’और इसकी प्रतिष्ठा को निरस्त कर दिया। नतीजतन जिस शब्द के आगे फ़ोक लगा, वह मुख्य धारा से दूर निम्न कोटि का हो गया– ‘फोक आर्ट’, ‘फ़ोक म्यूज़िक’, ‘फ़ोक गाथा’, ‘फ़ोक टेल‘, फ़ोक डांस’ आदि।

मूल भारतीय लोक

फ़ोक ने आकर लोक कथा व लोकगाथा के भेद को तो ख़त्म किया ही, लोकगाथा को भी ‘कट टु द साइज़’ कर दिया। उसकी गरिमा को नष्टप्राय कर दिया। अस्तु, लोकगाथा पर इस चर्चा में फ़ोक के पहले के अपने मूल भारतीय लोक को मुख़्तसर में जान लेना बेजा न होकर ख़ासा मौजूँ होगा.।

अनादि काल से हमारे यहाँ लोक दो ही होते थे– इहलोक और परलोक। परलोक किसी ने देखा नहीं, सिर्फ़ सुना…। इसीलिए वह ‘पर’– याने दूसरे का लोक हुआ- कभी अपना हो न सका- परलोक नाम का यही मर्म हुआ। लेकिन गाँव के कुछ खाँटी लोग अपने अनपढ़पन पर लोक को उप्पर लोक (ऊपर का लोक) भी मानते-समझते थे। लेकिन इहलोक याने यहाँ का लोक, जो अपने साथ, अपने पास होता है- इतने इतने साथ व पास कि उसे ‘इह’ क्यों कहना? लिहाजा अनजाने ही ‘इह’ निकल गया- सिर्फ़ ‘लोक’ रह गया, तो युग्म बना- लोक-परलोक।

लोक और शिष्ट

लोक दोनो में है। दोनो का एक ही मतलब है– लोग। ‘लो’ के साथ लगे सिर्फ़ क-ग का फ़र्क़। भाषिकता में ये क- ग आपस में सहचर हैं। एक दूसरे के काम आते हैं– स्थानापन्न हो जाते हैं। तभी तो जो कौआ संस्कृत में काक है, लोक में काग है। लेकिन संस्कृत लोगों की नहीं, विशिष्ट लोगों की, उच्च वर्ग वालों की, पढ़े-लिखों की, विद्वानों की भाषा रही। उन विशिष्टों के लिए लोक के समक्ष ‘वि’ निकालकर ‘शिष्ट’ शब्द का व्यवहार हुआ, तो यहाँ एक और युग्म बना- लोक और शिष्ट।
शिष्ट वर्ग ने अपने समक्ष हमेशा ही लोक को कमतर माना- सामान्य-साधारण। शिष्ट लोगों का रहन-सहन, खान-पान, बोलना-चालना… आदि ख़ास तरह का है– अंग्रेज़ी में इसे ‘मास’ और ‘क्लास’ कहते हैं। ऐसा भेद परलोक में न हुआ। क्योंकि वहाँ मास याने आमजन होता ही नहीं। वहाँ सिर्फ़ शिष्ट लोगों के ही रहने की धारणा बनी है- देवता व अप्सरा। धारणा पुन: उसी लिए कि जिस ‘परलोक’ को देखा ही नहीं गया, उसे तो माना भर ही जा सकता है!

लोक के ‘लोग’

और यह देखना ही ‘लोक’ का या लोक के ‘लोग’ का परमान है कि जहां तक लौके (दिखे), जो लौके, वह लोक। लौकना खाँटी लोक शब्द था, जो आज लगभग लुप्त हो गया है। ‘लौकना’ में अंग्रेज़ी का ‘लुक’ भी शामिल है- आख़िर अंग्रेज़ी का c तो Centre (सेंटर) व Cinema (सिनेमा) आदि में स होने के साथ cat (कैट) व cook (कुक) आदि में क भी होता है। लुक के साथ संस्कृत का ‘लुच्’ भी वही है। लुच से बना लोचन तो आँख ही है, जो देखती है। सारांश यह कि जो कुछ दिखे, जहां तक दिखे- ‘दृग देख जहां तक पाते हैं’, वह लोक था- फ़ोक के आने के पहले। कितना काम्य रहा होगा!

‘लोक’ विविधरूपी व व्यापक

तब आँखें ही थीं। विज्ञान-तकनीक का आविर्भाव न हुआ था, तो आँखों की सीमा से परे देखने-दिखाने वाले दुर-बीन न थे, दूर-दर्शन (होते) थे। सिर्फ़ गीध-दृष्टि थी, जो दूर तक जाती थी- समुद्र-पार लंका में बैठी सीता को नर-वानर नहीं, पर जटायु गीध (बेचारा वल्चर हो गया) देख सकता था- ‘मैं देखौं, तुम नाहीं, गीधहिं दृष्टि अपार’। याने लोचन की दृष्टि-सीमा ही ‘लोक’ का परिमाण है, जिसमें अनंत भी समाहित है और जिसकी सीमा एक अंचल विशेष तक भी होती थी, क्योंकि आवागमन के साधन न होने से बहुत दूर स्थित समुदायों तक आपसी पहुँच न होती थी। फिर हर अंचल के अनुसार भाषा तो आज भी बदल जाती है। इस तरह अंचल व भाषा के मुताबिक़ भिन्न-भिन्न लोक बने- भोजपुरी लोक, मैथिली लोक… आदि-आदि। इन सारे लोकों को मिलाकर पुन: पूरे ब्रह्मांड को तीन लोकों में बाँटा गया, तो इहलोक को ‘मृत्यु लोक’ भी कहा गया, क्योंकि यहाँ लोग मरते भी हैं। परलोक को और व्यापक करके आकाश लोक कहा गया, जो विज्ञान के आने के बाद जब लोग चंद्रमा आदि पर पहुँचे हैं, तो पता चला है कि आकाश लोक में भी इहलोक के कई देशों की तरह कई लोक हैं, जिन्हें हम चंद्रलोक आदि नक्षत्रों के नाम से जानते थे। इसी तरह धरती के इहलोक के नीचे भी एक लोक की धारणा बनी- पाताल लोक। उसमें भी नागलोक आदि जैसी धारणा है। तो इन तीनो के लिए कहा गया- त्रिलोक। याने तीन दुनिया। सो, अब इस आधार पर लोक का मतलब रहा– दुनिया या संसार। मर्म यह कि इतना विविधरूपी व व्यापक था ‘लोक’, जिसे अंग्रेजों के फ़ोक ने ऐसा कीलित-बहिष्कृत किया कि इसकी दुर्दशा आज अकथनीय हो गयी है। (जारी)
(लेखक साहित्य, कला एवं संस्कृति से जुड़े विषयों के विशेषज्ञ हैं)