‘गाथा’ एवं लोकगाथा बनाम लोककथा।

सत्यदेव त्रिपाठी।

अब लोक में व्याप्त अनेकानेक कलारूपों में अपने विवेच्य ‘लोक गाथा’ पर चलें, जो यह ‘फोक’ की चक्की में पिस कर ‘फोकटेल’ हो गया। मज़ा तो यह कि ‘लोक कथा’ व ‘लोक गाथा’ दोनो ही ‘फोकटेल’ हो गये। पता नहीं क्यों ‘लोक कथा’ के लिए ‘फ़ोक स्टोरी’ नहीं चला! या अंग्रेजों ने नहीं चलाया। सो, धीरे-धीरे इन दोनो में निहित मानीखेज अंतर मिट गये। गाथा का प्रयोग बोलचाल में भी खूब होता रहा – गाहे-बगाहे हमारी निवर्तमान पीढ़ी द्वारा अब भी हो जाता है। मसलन, किसी बड़ी-सी बात के लिए भले ऊब व व्यंग्य में ही –‘शुरू हो गयी इनकी गाथा’… या ‘चलिए, सुनाइए अपनी गाथा’। बड़ी कथा सुनाने की भूमिका में ‘स्वांत: सुखाय तुलसी’ भी ‘रघुनाथ गाथा’ ही सुनाते हैं और कहीं तुक मिलाने के लिए अवधी में गाथा (gatha) से t निकाल कर (gaha) गाहा भी कह देते हैं– ‘कहन चहऊँ रघुपति ग़ुन गाहा, लघु मति मोरि चरित अवगाहा’।

गाथा शब्द का मूल वेद में

यूँ यह विधा भले खाँटी लोक की हो, पर गाथा शब्द का मूल वेद में सीधे मिलता है। वहाँ शब्द है – ‘गाथिन’, जिसका अर्थ है – आख्यानक याने आख्यान कहने वाला। इसी आख्यान का मुख्य भाग ‘आख्या’ आजकल हिंदी प्रदेशों के कार्यालयों की फ़ाइलों में जो नोट लगाये जाते हैं, उसके लिए खूब-खूब प्रचलित व मान्य हो गया है। इसी तरह ‘आर्टिकल’ के लिए अख़बारों में ‘स्टोरी’ चल पड़ा है। छपी है रपट, पर कहेंगे– मेरी स्टोरी देखी आपने? तो आख्या और स्टोरी में नोट, टिप्पणी, रिपोर्ट, बयान, स्टेटमेंट, घटना… आदि सब कुछ आ जाता है।

फिर गाथिन से गाथा तो सहज है – भाषिकता के बिलकुल अनुसार है – आख्यान कहने वाला गाथिन, तो गाथिन ने जो कहा-सुनाया, वह गाथा। और ‘गाथा’ शब्द ऐसा चला त्रिकाल में अमर होकर स्थापित हो गया। लोक कथाएँ हमारे यहाँ घरों में ‘मां कह एक कहानी’ की मुख्य धारा में सुनी-सुनायी जातीं और गाँवों-मुहल्लों में अनौपचारिक, पर नियमित बैठकों की श्रिंगार होतीं। और लोकगाथाएं होतीं वे बड़ी-बड़ी कहानियाँ, जो आयोजित होकर बड़े समूह में सुनायी जाती थीं।

जैसा कि कहा गया कि गाथा में गाया भी जाता है और कहा-सुनाया भी जाता है, तो गाथा-गायक व गाथा वाचक भी हो सकता था, लेकिन चलन में युग्म बना – गाथा-गायक व कथा-वाचक का। पर सच यह है कि कथा-गाथा दोनो में कहा-सुनाया भी जाता है और गाया भी जाता है। निचोड़ यह कि गाथा सुनाने वाला गाते-गाते कहता है और कथा वाला कहते-कहते गाता है। इसी वजन पर अच्छा सूत्र बना – कथा, जो कहते-कहते गायी जाती है और गाथा, जो गाते-गाते कही जाती है। याने मूँड़-कपार सब एक ही है, लेकिन मूँड़ मूँड़ है, तो कपार कपार है।

उत्पत्ति, व्याप्ति एवं विलुप्ति

लोकगाथाओं की यह महत्ता ही कही जायेगी कि उनकी उत्पत्ति मूलतः समूह में होती है। इसलिए भी ये किसी के नाम से नहीं जानी जातीं। उनका जनक, सर्जक यही लोक होता है। यूँ यह प्रक्रिया किसी भी गीत-कलादि की उद्भवकालीन स्थिति का सच है, उसकी उत्पत्ति से बावस्ता है। कलाएँ सदा लोक में ही जन्मती हैं। अभिजात वर्ग में किसी कला का जन्म हो ही नहीं सकता। वे लोग अपनी समृद्धियों-सुविधाओं में मस्त-मुब्तिला होते हैं। तो, जब दुनिया में कुछ न था। आदमी बिलकुल जंगलों में, कबीलों में रहता था। तब कबीलों के लोगों की आपस में सुरूरी मस्ती के दौरान बोलते-चिल्लाते हुए धीरे-धीरे सुर-स्वर बने होंगे। शब्द देने लगे होंगे अर्थ…। मनमानी उछल-कूद के बीच पाँवों ने भटकते हुए स्म पर आना… फिर थिरकना सीखा होगा।

भौतिकवादी सोच में उत्पत्ति प्रक्रिया की सामूहिक प्रवृत्ति को एक साथ श्रम करने से जोड़ दिया गया है। श्रम के दौरान मुँह से निकलते शब्दों की सामूहिक ध्वनि-लय के रूप में गीत-संगीत व कदम-ताल की पद-गति से नृत्य… आदि का प्रादुर्भाव होना बहुत मशहूर विवेचन है। लेकिन इसमें पिज जाने के बादये कलाएँ सृजन में व्यक्ति-प्रसूत एवं प्रदर्शन व प्रस्तुति में सामूहिक होने लगी। व्यक्ति-सृजन की प्रक्रिया वर्ड्सवर्थ के ‘स्पोंटेनियस ओवरफ़्लो’ से लेकर पंत के ‘आह से उपजा होगा गान’ की साखी बनी। कुल मिलाकर यह कि लोक कलाएँ सबकी होते हुए भी अपनी प्रकृति में स्वतंत्र होती हैं। जनता की सम्पत्ति होते हुए भी स्वायत्त होती हैं। कोई अपने लिखे का दावा नहीं करता। अपने नाम का मोह नहीं। यह परम्परा भी थी कि अपना नाम कोई न देता। आज जैसा न था कि कोई छोटी-सी भी रचना लिखी और परिचय 15 पृष्ठों का उसके पहले आ गया। और पूछते फिरे–‘आपने मेरी रचना पढ़ी’? तब यह परम्परा साहित्य में भी थी- जैसे सबने लिख के व्यास के नाम कर दिया अठारहो पुराण। या हर लेखक ने व्यास नाम रख लिया – आज की भाषा में ब्रांड हो गया नाम व्यास। ये लोकगीत तो कर्ण परम्परा में भी चलते थे… संस्कार गीत आज भी वैसे ही चलते हैं –सात पीढ़ियों से लोग सुन रहे हैं।

‘लोकगाथा’ : कुछ कागद-लेखी कुछ आँखन-देखी 1

कलाएँ पूरे लोक की निधि

इस प्रकार लोक की समस्त कलाएँ सचमुच ही पूरे लोक की निधि होती थीं – ‘सम्पत्ति’ भी कह सकते हैं। इन पर किसी का निजी अधिकार (कॉपी राइट) नहीं होता था। जैसे नदी के पानी पर किसी का अधिकार नहीं – राजा-रंक सभी उसे पीयें-अघायें और जायें– पानी को अगले आने वाले के लिए छोड़ दें। उसी तरह किसी लोकगाथा या लोककथा पर किसी का हक़ नहीं होता। उसे कोई भी कहीं भी गा-बजा सकता है। लोक कलाओं की ही नही, समस्त लोक की यही सबसे बड़ी ख़ासियत होती है। इसी के चलते हर लोक व कला अलग-अलग गायक या प्रस्तोता में आकर कुछ न कुछ बदल जाती है। यही होना इसे एकरूपता के ख़तरे (यूनिफ़ॉरमिटी अ डेंजर’) से बचाता है। लेकिन किंचित बदलावों के बावजूद कहीं गहरे व मूलभूत रूम में वह एक ही रहती है– ‘विविधता में एकता’ की सार्थकता।

लोक गाथा की व्याप्ति पूरे देश के लोक में अलग-अलग कुछ समान नामों से है। कहीं महाराष्ट्र में पोवाड़ा या पांवड़ा या पंवारा, कहीं गुजरात में कथागीत, तो राजस्थान गीतकथा। हमारे उत्तर प्रदेश में लोकगीत ही कहते हैं, लेकिन बोलचाल में विधा-नामों से ही जाना जाता है – ‘आल्हा’ हो रहा है। ‘बिरहा’ हो रहा है। अल्हइत आये हैं, बिरहिया आये हैं, सोहर हो रहा है। हाँ, महाराष्ट्र का पोवाड़ा या पांवड़ा शब्द लोकगीत के लिए नहीं, पर उसी अर्थ में खूब चलता है रोज़ की बोलचाल में, जिसका अर्थ होता है – बनायी हुई बात या घटना को बढ़ा-चढ़ा के कहना– ‘अब बंद करा अपना पँवारा’। आल्हा, राजा भरथरी व गोपीचंद, पद्मावत व ढोला मारू रा दूहा… आदि ख्यात कथाएँ ज़्यादातर मध्यप्रदेश-राजस्थान से ताल्लुक़ रखती है। यहाँ बहुत मशहूर सारंगा-सदाब्रिज भी गुजरात तक पायी जाती है, जिससे पता चलता है कि लोकगाथाएँ किसी संचार-साधन की मोहताज न थीं। वे कर्ण-परम्परा से अपनी यात्राएँ कर लेती थीं। अपने प्रांत के योद्धाओं में वीर कुंवर सिंह की काव्य-कथा चलती है। वे भी मूलतः बिहार के थे, लेकिन स्वतंत्रता-संग्राम में उन्होंने मेरे आज़मगढ़ से आज़ादी का बिगुल फूंका था। 1960 के दशक में उन पर ‘कुंवर महाकाव्य’ लिखा मिर्ज़ापुर में जन्मे, लेकिन बनारस को कर्मभूमि के रूप में चुनने वाले चन्द्रशेखर मिसिर ने। इस कथा को भी पिछले वर्षों में लोक में गाया जा रहा था।

विद्रूप की सारी हदें पार

लेकिन लोकगीतों की व्याप्ति के इस मोड़ पर इनकी विलुप्ति की चर्चा अफ़सोस का सबब है कि आज ये सारे ही कलारूप जीवन में रवाँ नहीं रहे, लुप्त हो चुके हैं। इतिहास की चीज़ बन गये हैं। अब लोक के नाम पर पहले के हुए-लिखे की चर्चा होती है, चर्वण होता है– वह भी ज़्यादातर सरकारी व कुछेक निजी संस्थानों के लिए या विश्वविद्यालयों में पढ़ने-पढ़ाने व शोध आदि के लिए। ऐसे कामों के लिए ख़ास तौर पर सरकारी पुरस्कार बने हैं, जिनके लिए प्रकल्प-कार्य (प्रोजेक्ट वर्क) होते हैं, जिनके लिए ढेरों संस्थान बने हैं। तरह-तरह से खाना-कमाना जारी है, पर लोकगाथा या किसी लोकरूप के सृजन को लेकर कोई प्रयत्न नहीं हो रहा। बस, अतीत के कामों के क़सीदे काढ़-काढ़ के, वही-वही इतिहास बता-बता के सबका कारोबार चल रहा है। इसीलिए उस सारे पिष्टपेषित को फिर-फिर से पीसने से बचने हेतु स्वानुभव से अपने अंचल की लोकगाथाओं की कुछ नयी चर्चा यहाँ योजित की जा रही है। पर इस बोतल में भी शराब पुरानी ही है।

हाँ, पहले कैसेटों में भर के… और अब वीडियो को यू ट्यूब पर लगाके इस शरीर-संचालित कला को यांत्रिक बना दिया गया है। इस माध्यम पर लोककला-रूपों के अनगिनत संस्करण भरे पड़े हैं। इनमे कुछ भी कैसे भी चल रहा है। इतनी बदमली फैली है कि क्या कहा जाये…इन्हें इतनी भी तमीज़ नहीं कि ‘आल्हा’ वीर काव्य है, उसे कैसी-कैसी लोचदार धुनों-सुरों में गाया जा रहा है। उस पर लड़कियाँ नाच रही है… विद्रूप की सारी हदें पार हो गयी हैं। यह वस्तुत: अश्लील है। कल को ये आल्हा को मोजरा में पेश कर-करा देंगे, तो कोई अनहोनी न कही जायेगी। हीरा बिरहिया के फ़ोटो लगाके पार्श्व में लड़कियों से गवाया जा रहा है। इन यांत्रिक प्रस्तुतियों एवं समाज माध्यमों (सोशल मीडिया) पर व्यवस्था का कोई अंकुश नहीं –‘भावइ मनहिं करइ सोइ सोई’ का बाज़ार गर्म है, जो दुर्भाग्यपूर्ण है। (जारी)

(लेखक साहित्य, कला एवं संस्कृति से जुड़े विषयों के विशेषज्ञ हैं)