विधान एवं विशेषताएँ।
सत्यदेव त्रिपाठी।
जैसा कि कहा गया– लोकगाथाएँ गीतमय होती हैं। सो, गीतमयता ही उसके विधान व विशेषताओं का सबसे प्रमुख आयाम होता है। कथा के दौरान हर मौक़े पर वर्णन-कथन के लिए ढेरों गीत पिरोये होते और उसे ऊँचे स्वर में, सधे सुर-लय में गा-गाके सुनाता था गाथा-गायक। ये गीत ही लोकगाथा के ख़ास आकर्षण व प्रमुख प्रवृत्ति होते। ये गीत श्रोता की स्मृति में बस जाते। उनकी यादों की अमूल्य निधि बन जाते, जिन्हें वे गाढ़े व एकांत क्षणों में गुनगुनाने से लेकर अवसर-ब-अवसर उद्धृत करके अपनी बातों को असरदार वअपनी योग्यता को स्थापित करने का माध्यम बनाते। इसी कौशल के लिए लोगों के आदर-भाजन बनते, गौरवान्वित होते।
शुरुआत मंगलाचरण से होती, जो ज़ाहिर है कि पद्यमय गायन ही होता। उसमें देवी-देवताओं की वंदना होती। निर्विघ्न जीवन व कथा-गायन की प्रार्थनाएँ होतीं। यह प्रथा वेदों से चली आ रही है। हमारे संस्कारों में पैठ गयी है। सो, जीवन के हर क्षेत्र से लेकर कला-शिक्षा के हर रूप में आदतन प्रचलित है। इसके लिए लोकगाथा-गायक की अपनी रुचि व भक्ति के अनुसार मां शारदा, श्रीयुत गणेश से लेकर राम-शिव आदि में से एक या एकाधिक देवताओं के सुमिरन होते। उदाहरण के लिए –‘सुना रे शारदा भवानी, अब पति (लज्जा) राखों रे महारानी…!’ विधान का दूसरा आयाम टेक होता है। जैसे हर गीत या गेय काविता में शीर्ष पंक्ति हर बंध के बाद बार-बार आती है, उसी तरह लोकगीतों के टेक पद बार-बार आते हैं। ये शीर्ष पंक्ति के रूप में भी हो सकते हैं और अलग से लगे भी हो सकते हैं, जो हर बंध के बाद एकाधिक बार दुहरायी जाते हैं। इसी तरह लोकगीत में बिरह प्रसंग की एक टेक मैंने सुनी थी –हम जोहब तोहरी बटिया हो केतक दिनवां। अब यह टेक हर पंक्ति या बंध के अंत में आयेगी-
‘आज गइला भँवरा रे कहिया ले लवटबा हो केतक दिनवां‘ हम जोहब तोहरी बटिया हो केतक दिनवां!
इन गीतों में टेक का उपयोग व मज़ा यह कि बार-बार आने से श्रोता को याद भी हो जाता, उनकी स्मृति की निधि बन जाता। और यदि एक गायक के पीछे सह-गायकों की टोली होती, तो वे टेकें दुहराते, जिससे मुख्य गायक को थोड़ा विश्राम भी मिल जाता। ऐसी टेकों में पूरी पंक्ति के अलावा ‘बलैया लेहु बीरन की’ जैसी मध्यम आकार की कड़ी के साथ ‘जी’ जैसी एक शब्द की छोटी-सी टेक भी होती है, जो सम्बोधन का भी काम करती है, जिसका उदाहरण आगे सारगा-सदाब्रिज आख्यान में द्रष्टव्य है। ऐसी अनेकानेक टेकें मिलती हैं, जो इन गीतों में पूरक व स्थानक (हाल्ट) बनती हैं। पुरानी हिट भोजपुरी फ़िल्म ‘हे गंगामैया, तोहें पियरी चढ़ैबों…’ की बड़ी प्यारी टेक का मोह-संवरण नहीं हो पा रहा– ‘लुक छिप बदरा में चमके जइसे चनवा तोरा मुख दमके… जैसे कुसुमी रे चुनरिया इतर गमके’।
लोक गाथाएँ रात-रात भर चलतीं, बल्कि कभी एकाधिक रातों तक चलतीं… और श्रोतागण पहली रात सुनी हुई के आगे की कथा के लिए दिन-दिन भर बौराये-बौराये फिरते। यह विधान इसके विस्तृत आकार का नियामक है। इसके लिए लोक गाथाओं में कई-कई जन्मों की कथाओँ का भी विधान होता है। जन्म-जन्मांतर की कथाएँ मध्यकाल के साहित्य की भी प्रवृत्ति रही है। वहीं से लोकगाथाओं में आया हो, तो ताज्जुब नहीं। संस्कृत का क्लासिक ‘कादम्बरी’ नायक-नायिकाओं के तीन जन्मों की कथा है। इससे आगे बढ़कर दस्तावेजी सत्य है कि सारंगा-सदाब्रिज जैसी गाथाओं के बीस-बीस जन्मों की कथाएँ छत्तीस-छत्तीस खंडों में रची गयीं, जो हज़ार पृष्ठों तक में भी छपी हैं।
बिछोह का अंतिम रूप है – मृत्यु। लेकिन उसके बाद भी बीस जन्मों तक प्रेम का बने रहना जो मानक रचता है, वही इन गाथाओं की भी अमरता है। इसका आधार तो प्राचीन दर्शन ने आत्मा की अमरता के रूप में दे दिया था– ‘न जायते, म्रियते वा कदाचित, नायं भूत्वा भविता व न भूय:। अजो नित्य: शाश्वतोsयं पुराणो, न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।
बस, उस अजर-अमर आत्मा में उन कथाओं ने स्मृति भर दी। और आत्मा के साथ प्रेम भी अनश्वर हो गया। प्रेम की अनश्वरता का यही योगदान लोक गाथाओं का चरम मानक है, प्राणतत्त्व है।
इस तरह उतनी सुदीर्घकथाओं का एकाधिक रातों से लेकर महीनों तक सुनाये जाने… और फिर इनके अनंत काल तक भी चलने के उल्लेख मिलते हैं, जिनकी व्यावहारिकता आज तो कल्पनातीत ही है। लेकिन आज की तेज गति (स्पीडी) वाले गहमागहमी के आधुनिक युग में सालों-साल चलने वाले बकवास सीरियलों के सामने उस बेहद स्थिर व निश्चिंत युग में यह उतना अविश्वसनीय भी नहीं लगना चाहिए। फिर वह तो विश्वास का युग था– आज की तरह खोदवा-विनोद का नहीं।
कई-कई जन्मों के रहस्य-रोमांच
इसी से जुड़े विधान की ख़ासियत यह भी कि कई-कई जन्मों के रहस्य-रोमांच होते थे। जन्मांतर ही नहीं, भिन्न-भिन्न योनियों में रूपांतर भी होते। मनुष्य से पशु-पक्षी के जन्म-जीवन में चले जाने… और भूत-प्रेत भी हो जाने तथा इनके साथ जादू-टोना… आदि निजंधरताओं के अनंत आकलन आदि से गाथाओं की रुचिता व लोकप्रियता के अनुमान ही नहीं लगाये जा सकते- उन पर यक़ीन भी किया जा सकता है। भर कहानी प्रेमी-प्रेमिका के मिलन में हज़ारों बाधाएँ खड़ी रहती हैं– गोया इनका अंत होगा ही नहीं। लेकिन सारी लोकगाथाएँ सुखांत ही होती हैं। और पहले से इसे सप्रमाण जान जाना पाठक के लिए मुफ़ीद नहीं होता, क्योंकि सुखद अंत की निश्चिन्तता नायक-नायिका के दुखों की शिद्दत को कम कर देती है। पर ये गाथाएँ अपनी इस प्रकृति को बदल भी तो नहीं सकतीं।
दूसरी तरफ़ उपदेश-आदर्श जैसे जीवन मूल्यों व शैली-अलंकार आदि भाषिक मूल्यों के समावेश के साथ लोक गाथाओं में इन सबसे ज्यादा ज़ोर होता है- प्रवाह याने गति- फ्लो पर, जिसमें लोकगाथाओं के प्राण बसते हैं। ये बहाव द्रुत में हो या विलंबित में ही सही… लेकिन उनमें भटक-अटक नहीं चाहिए। तो फिर ‘एके साधे, सब सधे’ की तरह बाक़ी चीज़ें अपने आप सधती रहती हैं। (जारी)
(लेखक साहित्य, कला एवं संस्कृति से जुड़े विषयों के विशेषज्ञ हैं)