आँखन देखी की जानिब से।
सत्यदेव त्रिपाठी।
गाँवों में पली-बढ़ी अपनी पीढ़ी को मैं इस अर्थ में सौभाग्यशाली मानूँगा कि लोक गाथा गाने-सुनाने वाली निवर्तमान पीढ़ी के साथ अपने बचपन में हम रह सके। गायकों के सामने बैठकर लोकगाथाएं सुन सके। अब हमारी पीढ़ी के बाद आयी दो पीढ़ियाँ, जिनमें एक आज सक्रिय है और दूसरी बड़ी हो रही है, को सीधे-सीधे लोकगाथा सुनने का अवसर नहीं मिला। 1960 वाले दशक के उत्तरार्ध में यह क्षरण पूरा प्रभावी हो गया था। इस तरह हमारी पीढ़ी को ही लोक-हंता पीढ़ी भी मानना चाहिए, जिसमें लोकगाथा-गायक या वाचक (कम से कम मेरे अंचल में) पैदा न हुए – गोकि असलियत एकदम उजागर है कि दोष किसी पीढ़ी का नहीं, किसी अंचल का नही, तेज़ी से बदलते जमाने का है, जिसमें उभरी आधुनिकता से उत्तर आधुनिकता एवं भूमंडलीकरण तथा मीडिया व तकनीकी क्रांति…आदि सबने मिलकर उस अकूत संस्कृति-कला की विरासत को साक्षात निगल लिया। बक़ौल शायर– ‘बदगुमाँ आप हैं क्यों, आपसे शिकवा है किसे, जो शिकायत है हमें गर्दिश-ए-अय्याम से है’।
लोग आते थे सुनने कहानियाँ,पर जानते न थे कि यह गाथा है
ख़ैर, अपने अंचल के ही प्रमुख चार लोकगाथा-रूपों की थोड़ी सप्रमाण चर्चा करना यहाँ मुझे ज्यादा समीचीन लग रहा है –किताबी बातों से कुछ अलग, कुछ नया तथा मेरे लिए प्रियतर।
लोकगाथा-गायक जादूगर काका- यह ऐसी लोकगाथा है, जिसका लोकगाथा के सिवा कोई नाम नहीं। दर्जा दो-तीन में पढ़ने के दौरान होश सम्भालते हुए अपने बचपन के वे दिन मुझे याद आते हैं… कि शहर आजमगढ़ के दक्षिण-पश्चिम सीमांत पर स्थित हमारे गाँव से 2-3 किमी. उत्तरजमुआवाँ गाँव के स्व. हुबराज पाठक हर साल प्राय: जाड़े की रातों में लोकगाथा सुनाया करते थे। और ऐसे हुबराज पाठक याने किस्सागो या लोकगाथा गायक हर दस-पाँच कोस के अंतराल पर हर अंचल में होते थे। हमारे हुबराज पाठक तो मेरे बड़के बाबूजी के लंगोटिया यार हुआ करते थे, इसलिए हमारे काका होते थे और जादू-मंत्र भी जानते-करते थे, जिसके लिए ‘जादूगर काका’ हो गये थे। लेकिन उन्हें भी शायद ही पता रहा हो, बल्कि पता न ही था कि वे लोकगाथा-गायक हैं। इसी तरह पूरे गाँव के लोग आते थे सुनने कहानियाँ,पर जानते न थे कि यह गाथा है। बस यही कहते सब लोग- ‘भाई चला आज कहनी होई आजी के घरे’ या ‘क़िस्सा सुने के हौ आजु राती’। याने क़िस्सा-कहनी के अलावा कोई और नाम है, का पता किसी को न था। सो, नाम व पारिभाषिक नाम वग़ैरह रखना अध्ययन-अध्यापन करने वालों -याने विद्वानों का काम है, उनकी ज़रूरत है। आम आदमी तो बस, ‘लुत्फ़ है लफ़्ज़-ए-कहानी में, शख़्स की हो, शख़्सियत की हो’या ‘वहाट्स देयर इन नेम’का विश्वासी था और आज भी है। मैंने तो गाथा की प्रकृति व विधान …आदि की पहचान को उच्च कक्षाओं की पढ़ाई के दौरान किताबोंसे जाना कि काका जो सुनाते थे, वह लोकगाथा है।
जो दिन में कहानी सुनायेगा, उसका भाई सफ़र में रास्ता भूल जायेगा
काका हमारे यहाँ आते तो हमेशा ही रहे हर महीने-दो महीने पर, लेकिन गाथाएँ सुनने की मेरी यादें जाड़े की रातों से ही जुड़ी है। न ही सिर्फ़ इसलिए कि जाड़े की रातें लम्बी होती हैं, वरन रातों को गाथाएँ सुनने-सुनाने का व्यावहारिक सबब किसान-जीवन की फुर्सत से बावस्ता था, ताकि दिन में होने से सुनाने वालों के काम का नुक़सान न हो, सुनते हुए काम के हर्ज की चिंता न हो और रात के इस मनोरंजन से दिन के काम की थकन भी दूर हो। लेकिन हमारे लोक की एक प्रवृत्ति होती है कि हर नाजायज़ को रोकने और जायज़ को रवाँ करने के लिए वे लोग कुछ-कुछ ‘शापमय वर’ जैसा जोड़ देते हैं, कुछ मान्यताएँ स्थापित कर देते हैं। ताकि उसी के बहाने, उसी के डर से आदमी कोई अवांछित काम न करे। वृहत्तर स्तर पर पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक भी ऐसे ही बनाये हुए मानक हैं। इनका दुर्भाग्य है कि ऐसे मानकों को आज रूढ़ियाँ कहके त्याज्य बताते हैं। तो कहानी सुनाने के लिए शापित लोक-मान्यता यह थी कि जो दिन में कहानी सुनायेगा, उसका भाई सफ़र में रास्ता भूल जायेगा। ऐसी मान्यताएँ लोकविश्वास बनकर पूरे देयार में फैल जातीं, मन से मान ली जातीं। तब रिश्ते ऐसे निछद्दम होते थे कि कोई अपने भाई का रास्ता भुलवाने की सोच भी न सकता था। तो दिन में कहानी सुनाने का प्रचलन ही न हुआ और खेती-कार्य के नुक़सान होने के अवसर ही ख़त्म हो गये। वैसे प्रसंगत: बता दूँ कि लोकप्रिय साहित्य में सौंदर्य के बखान की ऐसी काव्य-रूढ़ियाँ भी हैं कि ‘आँखों में कजरा मत डारो, कोई राह भटक जायेगा…’।
दस मिनट में ही पब्लिक उनके हाथ में आ जाती
जादूगर काका प्रेम की ही गाथाएँ सुनाते। कभी उनसे भूत-प्रेतों, चोर-डाकुओं या वीरता व देशभक्तिआदि की कहानियां सुनने की याद नहीं आती। सारंगा-सदावृज, और सोरठी बृजाभार उनकी हिट गाथाएँ थीं। पढ़ते हुए मानक लोकगाथाओं में इनके नाम पाकर ही मुझे काका की कहानियों के ‘गाथा’ होने का पता चला। इनके अलावा राजकुमारों-परियों… की कहानियां भी होतीं, जो लोकगाथा की कोटि में दर्ज नहीं होतीं, लेकिन काका के सुनाने में तो वे भी वैसी ही लगतीं- वे सच्चे किस्सागो थे। जो भी हो, सुनाते हुए उनके आवाज-ओ-अन्दाज़ इतना सधते कि 10 मिनट में ही पब्लिक उनके हाथ में आ जाती। फिर न कोई सोता, न बतियाता- सिर्फ़ कान पारके सुनता। इन प्रेम कहानियों के संयोग-प्रसंगों पर रूमानी व वियोग में बिरह गीत होते, तो बिरह के कारणों व हालात में उनके कष्टों के बीच करुण गीत भी होते, जिसके लिए क़ुदरत ने जादूगर काका को सुकण्ठ अता किया था और लय-धुन उन्होंने ख़ुद कमा ली थी। इन सारे संयोजनों के साथ ऐसे फ़बते कि कोई भी मुरीद हुए बिना न रहता। बस, महफ़िल लूट लेते काका। उनके आने का इंतज़ार पूरा गाँव करता- ख़ासकर औरतें।
काका के सारंगा-सदाब्रिज (क्योंकि सबके अपने अपने कथानायक होते हैं) एक ही नगर के धनी-मानी परिवार में पैदा हुए थे। पहली बार के मिलन में ही दोनो में प्यार हो जाता है। सदाब्रिज का पहल करना काका सुनाते- नैना के बान अस लगले हो प्यारे, होत करेजवा में पीर जी। (यही ‘जी’ टेक व सम्बोधन है)
फिर पाठशाला में पानी पीने के बहाने कुएँ पर मिलते। यह सब छिपा न रहा। गुरुजी को मालूम पड़ा। उन्होंने निगरानी लगा दी। तब दोनो एक दूसरे को चिट्ठी लिख-लिख के अपने प्रेम-निवेदन करते- सदाब्रिज लिखता- मनवाँ में बंसल तोहरी सुरतिया हो प्यारी, जियरा भइल बेक़रारजी/ अब ना सहात मोसे तोर बियोगवा हो प्यारी, जिउवा जरत बिरह अंगार जी।
सारंगा ज्यादा सचेत-समझदार थी। चेताती है- प्रेम निबाहन बड़ा कठिन हो प्यारे, करि लेहु पहिले विचार जी/ प्राण के मोह छोड़ि रसिक भँवरवा हो प्यारे, कलियन के लेत बा बहारजी।
भीतर से दोनो एक दूसर को देखे सकें
फिर काका का सुनाया एक ऐसा भी दृश्य याद आता है, जिसमें दर्ज़ी से ऐसा परदा सिलाती है सारंगा, जिसके भीतर से वे दोनो एक दूसर को देखे सकें, पर उन्हें देखते हुए कोई न देख सके। लेकिन गुरुजी जान जाते हैं। सारंगा के पिता से बता देते हैं। पिता उसकी शादी कर देते हैं। बारात में वेश बदलके सदाब्रिज भी जाता है। शादी के बाद भी वे मिलते रहते हैं। ऐसे ही किसी मिलन का स्थल मंदिर है। सारंगा को देर हो जाती है। सदाब्रिज सो जाता है। वह उसके सुग्गे को संदेश देके चली जाती है- नील बरन तोर चोंच हो प्यारे, श्वेत बरन तोर आँख जी/ भैया तोर जब जगिहें हो प्यारे, कहि देबो मोर सनेश जी।
ज़ाहिर है कि ये सारे कथानक कथा के लिए नहीं, गीत के लिए हैं। मनुष्य-इतर प्राणियों को लाना लोक-गाथाओँ की प्रकृति में निहित रहा। वे उसे बड़ी सार्थकता अता करते। ख़ैर, ऐसी तमामो कठिनाइयों के बीच सारंगा-सदाब्रिज की चाहतें परवान चढ़ती हैं। लेकिन सभी लोक कहानियों की तरह काका की कहानी का भी अंत सुखद ही होता है- पूरा भइल प्रेमवा हो प्यारे, मिलल सब हरखाय जी/ जैसे मिले सारंगा-सदाब्रिज हो प्यारे, वैसइ मिले सब कोय जी।
इसी तरह काका सोरठी ब्रिजाभार भी सुनाते, जिसमें बड़ी डाकिनी-पिशाचीनी… आदि आतीं। नायक को पंछी बनाके ले जातीं…ऐसा बहुत सारा कुछ होता।
काका को देखने-सुनने की किंचित यादों के साथ जब बाद में पढ़ा, तो लगा कि जितने लोगों से सुना जाये, उतने संस्करण बनते हैं इन गाथाओं के। वे सभी गायक किताब पढ़ के सारे गीत याद भी न करते थे, बल्कि कवित्व का ग़ुन उन सबमें होता और वे यहाँ-वहाँ बीच-बीच में अपना भी गढ़-गढ़ के जोड़ लेते। लेकिन यह भी लोक कलाओं की प्रवृत्ति ही है कि उनके अनुकरण में सृजन होता चलता है, जो उनकी प्रकृति में शुमार कर लिया गया है। (जारी)
(लेखक साहित्य, कला एवं संस्कृति से जुड़े विषयों के विशेषज्ञ हैं)