योगियों के भरथरी गीत।
सत्यदेव त्रिपाठी।
उन दिनों पर सोचते हुए आज पाता हूँ कि रात में होते (काका के) गीतों की व्यावहारिक उपयोगिता की तरह ही लोक के सारे क़्रिया-कलाप खेती के काम और उसके अनुकूल मौसम तथा गायकों के लाभ-हानि… आदि के अनुसार ही होते थे- याने प्रकृति और कृषि के अनुसार। प्रकृति का बड़ा प्रमाण यह कि तमाम गीतों की ऋतुएँ तय होती हैं, उसी के अनुसार उनके नाम होते हैं- कजरी सावन में तो फागुन में पड़ने वाली होली के गीत का नाम फगुआ। इसी तरह लोकगाथा-गायक योगी लोग कृषि से संचालित होकर गर्मियों में ही आते थे, जब रबी की फ़सलें (जौ-गेहूं-मटर-चने आदि) कटी होतीं, जिससे उन्हें अच्छी मात्रा में अनाज मिलता। दान के रूप में किसी को भी अनाज देने की लोक-प्रथा सूप में भर के देने की ही थी। शायद इसलिए कि उसमें अनाज होता ज्यादा, लेकिन दिखता कम था। यह क्रम वैशाख-ज्येष्ठ (मई-जून) के दो महीने चलता। आषाढ़ (जुलाई) में बारिश शुरू होने के पहले सारा अनाज बोरों में भरके बैलगाड़ी से उनके घर पहुँच जाता। कृषि व प्रकृति का प्रमाण यह भी कि बारिश में यात्राएँ न होतीं- कालिदास ने लिखा ‘स्थिता हि यात्रा वसुधाधिपानां, प्रवासिनो यांति नरा: स्वदेशान’। तो जब राजा और परदेस जाके कमाने वाले व्यापारी लोग बारिश में यात्रा बंद कर देते, फिर योगी क्यों रुकते बारिश में यात्रा के लिए?
यह व्यक्तिवादिता घोर लोक-विरोधी
ये योगी लोग सारंगी बजा-बजा के गाथा गाते। काका के मुक़ाबले इन्हें ज्यादा सही अर्थों में गाथा गायक कह सकते हैं। काका का विरल था- वैयक्तिक। इनका सामूहिक-जातीय। ये हमारे गाँव में आते और उसी राजा भरथरी (12वीं शताब्दी के बड़े कवि व राजा) के जीवन-गीत ही गाते थे। आगे जाके पढ़ाई के दौरान लोकगाथा के रूप में भरथरी गीतों का नाम जब मानक लोकगीत के रूप में मिला, तो बचपन में देखे इन योगी-गायकों के गाथा-गायक होने का क़यास हुआ। लेकिन गाथा-गायक के सारंगी बजाके के गाथा सुनाने के उल्लेख कहीं पढ़ने में आने की याद नहीं आ रही है। परंतु अपने देखे लोक को कैसे नकारें? तो ख़्याल आता है कि लिखे पर कब चलता है लोक! और सारंगी के बिना योगी की कल्पना ही नहीं थी तब। कहीं इकतारा बजा के भी भरथरी गीत गाने की श्रुति है- सुनी गयी है। लोक के अनुसार लिखने वाले को अपना लिखान बनाना पड़ता है और गायक को अपना वितान। उस विवेचक ने शायद किसी वाद्य के साथ न पढ़ा-सुना होगा गाथा-गायक को!
बहरहाल उन दो महीनों ये योगी गाँव-गाँव में जाके घर-घर के दरवज्जे बैठ के गाते। वह जो गाते- वह कला भी है- का उन्हें पता न था और जो गा रहे हैं, वह लोकगाथा है, शायद यह भी काका की तरह ही उन्हें न मालूम था- नदी को अपने पानी की जाति व स्वाद का पता कब होता है! लेकिन हर घर की औरत उसे धार्मिक श्रद्धा से सुनती- गोया भरथरी (या वे योगी) कोई देवता हों। साथ में कुछ पड़ोसिनें भी आ जातीं, जो पड़ोसी होने की रस्म थी- ‘तू हमर घरे गावा, हम तोहरे घरे गाइब’ और ‘तू हमरे घरे आवा, हम तोहरे घरे आइब’ का लोक-व्यवहार चलता था। तब यही लोक-जीवन की अनिवार्य पद्धति थी। अब तो तकनीक और यांत्रिकी ने सब कुछ को निजी (प्राइवेट) बना दिया है। हम अपने मोबाइल या टीवी पर क्या सुन रहे हैं, किसी को नहीं मालूम। शायद एक ही कार्यक्रम सुन रहे हैं, पर साथ-साथ तो क्या, पास-पास भी नहीं। सामूहिकता से बनी यह व्यक्तिवादिता घोर लोक-विरोधी है। गाँव के शादी-व्याहों में आज भी कुछ बची हुई है। कब तक बची रहेगी, कहा नहीं जा सकता।
भावुक-करुण प्रसंगों में योगी भी रोते-रोते गाते
योगियों के गायन में गद्य न होता, सिर्फ़ पद्य होता। लिहाज़ा ये पारिभाषिक रूप से गाथा-गायक थे- गाथा-वाचक नहीं। भरथरी-गाथा का आधार व उत्पत्ति छत्तीसगढ़ से मानी जाती है। तब की याद कुछ पंक्तियों में छत्तीसगढ़ के शब्द मिलते हैं, पर अधिकांश के भोजपुरी व हिंदी में बदल लेने के काफ़ी सफल प्रयत्न हुए है। शिकार में राजा से हिरन का वध हो गया। हिरणी उसके साथ सती होते हुए राजा को शाप देती है, तो राजा अपने गुरुगोरख नाथ से हिरन को जिलवा देते हैं। लेकिन फिर गुरु से दीक्षा लेकर योगी हो जाते हैं- जो गोरख कर सकते हैं राजा नहीं कर सकता- वशिष्ठ के सामने राजा विश्वामित्र की तरह। योगी तो हो गये, पर योगी को भिक्षा माँगने अपने घर जाना होता है। मां है, तो उसके हाथों भिक्षा लेनी होती है। मां नहीं, पत्नी है, तो पत्नी को मां सम्बोधित करके माँगनी होती है। योगी भेष बदल के जाते हैं। वे (माएँ-पत्नियाँ) कभी पहचान लेतीं। तो विकट स्थिति होती। कभी नहीं पहचानतीं, तो ठीक। राजा भरथरी भी अपनी रानी पिंगला से भीख माँगने जाते हैं-
‘गुरु गोरख की अग्या भरथरी मन में अलख जगाता। भर मोतियन को थाल ल्याई दासी – ले जोगी सुखदाता।
ना चाहे तेरा मानक-मोती, चुटकी-भीख चाहता। भिक्षा लूँगा ज़द ड्योढ़ी पर आवेगी पिंगली माता।
रानी-नैना नीर ढुरे, ज़द पियाजी की सुरत पिछानी। राज पाट तज, बन गये जोगी, ये क्या मन में ठानी!
भाग दौड़ के पति-चरणन में लोट गयी महारानी। बेदर्दी तोहें दया न आयी, ले सुन मेरी कहानी।
बाली उमर नादान नाथ मैं, कैसे कटे ज़िंदगानी। छोड़ो जोग, राज करो पिवजी- बोली प्रेम दीवानी
थारे अन्न-भंडार भर्यो है, मौज करो मनमानी। राजपाट तज बन गयो जोगी, ये क्या मन में ठानी!
ऐसे भावुक-करुण प्रसंगों में योगी भी रोते-रोते गाते- मैं रोता, जग कहता उसको गाना’- और श्रोतिनियाँ भी धार-धार रोतीं, अहक-अहक के रोतीं। ऐसी खबरें उन दिनों काफ़ी सुनायी पड़तीं कि बचपन का कोई भागा बेटा बड़ा होकर भीख के लिए आया था। मां ने पहचान लिया, तो भाग गया। वैसे प्राय: रूप-आकार बदल जाने से मां तो पहचानती नहीं। योगी पहचानता है, पर उसे बताना नहीं है। वह मां को देखता है, मां उसे देखती है… ऐसे भावुक प्रसंग बड़े मारक होते- आज की भाषा में ‘हिट होते’। योगी लोगों द्वारा छोटे बच्चों को योगी बनाने के लिए- अपनी परम्परा क़ायम रखने के लिए उठा ले जाने के भी कई समाचार मिलते।
कलाएँ भी जातिगत व ख़ानदानी
यह गाथा-गायन योगी जाति का ख़ानदानी पेशा था। यह भी क़ाबिलेगौर है कि अन्य पेशों लोहार-कोंहार-बढ़ई… आदि) की तरह कलाएँ भी जातिगत व ख़ानदानी हुआ करती थीं। उदाहरणार्थ कँहरवा नाच-गान सिर्फ़ कंहार जाति के लोग करते थे- वह भी अपनी जाति वालों के घरू आयोजनों में, पर आके करते हम सवर्णों के दरवाज़ों पर और कपड़े-बर्तन-नक़द के नेग-जोग (दान-दक्षिणा) लेते। गाथा वाले ब्राह्मण काका अपवाद ही थे। ऐसे अपवादी ब्राह्मण अन्य पेशों में भी थे- नौटंकियों के मैनेजर तो प्राय: बाह्मण ही होते। लेकिन पौरोहित्य पर ब्राह्मणों का एकाधिकार भी उनके वर्चस्व का प्रमाण है। बस, पितृ -पक्ष के दौरान गया (बिहार) में तमाम अन्य जातियों को पिंड-दान कराते पकड़ा था मैंने- संस्कृत में संकल्प बोलते हुए उनके उच्चारण से। लेकिन वह सब थोक में माँग आ जाने की पूर्त्ति का परिणाम था, वरना ऐसा करने से पापभागी होने का जो डर बिठाया गया है, कोई हिम्मत नहीं करता। (जारी)
(लेखक साहित्य, कला एवं संस्कृति से जुड़े विषयों के विशेषज्ञ हैं)