आल्हा गायन।
सत्यदेव त्रिपाठी।
हमारे अंचल की लोकगाथा का तीसरा रूप था– आल्हा-गायन। हिंदी साहित्य के आदि काल में कवि जगनिक लिखित ‘आल्हखंड’ पर आधारित- उसी से विकसा…। जैसे राजस्थान या देश के पूरे पश्चिमांचल प्रांतरों में ‘ढोला मारू रा दूहा’ का गायन लोक गाथा के रूप में सदाबहार है, उसी तरह हमारे पूर्वांचल में आल्हखंड। यह नट ज़ाति के लोगों का पेशा था– ‘पेशेवर कला’। योगियों के गायन में प्रेमरस के साथ भक्ति थी, तो इसमें प्रेम के लिए युद्ध– याने वीर रस। वे सारंगी बजाते थे, ये ढोलक। उनका गायन दरवाज़े-दरवाज़े होता था, इनका गाँव के किसी एक मुखिया आदि के दुआरे (द्वार पर)। वहाँ पूरा गाँव जुट जाता।
योगी लोग प्राय: खाट पर बैठ के अपनी सारंगी को गोद से कंधे पर लटका के बजाते-गाते। लेकिन आल्हा-गायक ज़मीन पर ही बैठता– दरी जैसा कोई बिछावन क्वचित् ही बिछता, वरना उन पहलवान नटों को इन सबकी पड़ी न रहती। वे प्राय: घुटने मोड़ के बैठते और एक घटने के नीचे ढोलक दबा लेते– गोया ढोलक पर चढ़े हों। सारंगी के बोल मुलायम होते, गीत प्रेम-बिरह का होता। इनकी ढोलक तड़तड़ा के बजती और कभी तो कान सुन्न कर देती। योगियों की श्रोता प्राय: सिर्फ़ स्त्रियाँ होतीं, पर आल्हा के श्रोता प्राय: पुरुष होते। योगी सिर्फ़ गर्मियों में आते, क्योंकि उनकी बस्तियाँ बहुत दूर-दूर थीं– पचासों किमी. पर कहीं…। पर ये नट लोग ख़रीफ़ व रबी दोनो फसलों की कटाई के समय आ जाते और नाई-धोबी आदि प्रजाओं की तरह सबके खेत से लेहना (एक बोझ धान और गेहूं) ले जाते, क्योंकि ये लोग दो-चार गाँवों के बीच कहीं छप्पर डाल के रहते मिल जाते। घुमंतू थे। इसलिए कभी भी आ जाते।
दू बीरा पान बहर तरसत बा जिव
गाँव में घुसने के पहले ही ढोलक पर थाप दे-देके अपने आने की घोषणा करते। फिर एक जगह बैठ जाते, तो गाँव के कुछ रसिक-मनचले-खलिहर-कामचोर लोग और उनमें एकाध इन नटों के खैरख़्वाह भी आ ही जाते। ये लोग कभी शादियों में भी जाते– सूंघते रहते कि शादी कब व कहाँ हो रही है? वहीं शादी के बिहान वाले दिन नाश्ते के समय आ जाते और बिना कहे गाने लगते। रात को शादी निपट गयी रहती, बाराती लोग फुर्सत व हल्के मूड में रहते… एक-दो घंटे सुनते। अच्छा नेग-जाग माँगते और नक़द। पाते भी। दूल्हे के हाथ से, उसके पिता-चाचा, बड़े भाई…आदि सबसे वसूलते। कुछ बाराती भी थोड़ा-बहुत दे देते…इस तरह बिना काम किये सिर्फ़ गायन के लिए प्रजा के रूप में पलते।
प्रसंगत: लोकगाथा-इतर एक लोक रूप का उल्लेख कर दूँ कि नटों की तरह शादियों में और कभी-कभार गाँवों में भी परिष्कृत मंगन की तरह भांट (ब्रह्मभट्ट) लोग भी आ जाते। उन्हें दसौन्ही भी कहते। ये चारण-परम्परा के अवशेष थे। कवित्त… वग़ैरह अच्छी सुनाते– प्रभावी व उद्धरणीय। ये बड़े वाकचतुर होते। एक बार मेरे बड़े भाई की शादी में आ गये। सुनाया, नेग लिये, खाया-पीया, पर पान देना हम भूल गये। तो जूता पहनते हुए बड़ी अदा से बोले– ‘दाल खइली, भात खइली औरो खइली घिव, दू बीरा पान बहर तरसत बा जिव…’ बाबू बाय? और पान खाये, लेके भी गये।
..तो रोंगटे खड़े हो जाते
लेकिन नटों का आल्हा-गायन बहुत भड़काऊ होता। एक तो उस कथा में ही लड़ने का जोश है। हमें तो बचपन में आल्हा व महाभारत पढ़ना ही मना था। यहाँ तो जब वे गरजती हुई आवाज़ में ढोलक को टंकार-टंकार के आल्हा-ऊदल-मलखान… आदि चरित्रों की वीरता, उनके ख़ास हथियारों- जैसे ऊदल की तलवार, मलखान के भाले… आदि के संचालन-कौशल के साथ युद्ध-दृश्यों में उनकी पैंतरेबाज़ी-दिलेरी-शौर्य… आदि के जीवंत वर्णन सुनाते, तो रोंगटे खड़े हो जाते। देह फड़कने लगती। उस वक्त कुछ ऐसा-वैसा बनता, तो लड़ जाना ही जीवन का श्रेय बनता। कुछ दिनों उसी आवेश-उत्साह में बीतते। हथियारों की आवाज़ का एक दृश्य तो हम हरदम चिल्लाते रहते– “खट-खट-खट-खट तेगा बोले, खनन-खनन चले तलवार। सन-सन-सन-सन गोली बरसे, ठन-ठन भालन की झंकार।”
आगे की पंक्ति तब भी याद न थी, तो आज क्या आयेगी!! लेकिन उन दिनों उसी प्रवाह में किसी और प्रसंग की एक लाइन जोड़ के बोल लेते, तभी रुकते– ‘जेहि दिन जनम भयों आल्हा के, धरती धंसी अढ़ाई हाथ’। आल्हा का छन्द यही है पूरे काव्य में, जो पुन: बहुत अपनापा ला देता है। अब भी इस पंक्ति के शब्द-सौष्ठव व निश्चित क्रम तथा हथियारों की सटीक ध्वन्यात्मकता पर रीझते रहते हैं। पहले अर्धांश में तेग़-ध्वनि को चार बार के साथ दूसरे अर्धांश में सन-सन भी चार बार और दोनो अर्धांश में दूसरी ध्वनि की दो-दो बार की सधी आवृत्ति आज भी उनका इस्तक़बाल कराती है।
कुल 52 लड़ाइयाँ है आल्हा में। महोबे (शायद मालवा) के राजा थे ये लोग और आसपास के राज्यों से ही लड़ते रहते। कारण कोई कन्या होती या फिर ठकुरई शान की कोई बात। श्यामनारायण पांडेय ने राजपूतों के लिए ठीक ही लिखा है– ‘असि-धार देखने को उँगली कट जाती थी तलवारों से’। अपने रहते छोटे भाई ऊदल लड़ने नहीं देते थे बड़े भाई आल्हा को। इनके साथ ब्राह्मण-कुमार डेभा भी होते। अपने बबुआन ऊदल-के प्रति डेभा की प्रतिबद्धता याद है आज भी… इसमें खून-पसीना का मुहावरा देखें– ‘जोड़ गदोई (हथेली) डेभा बोलल, बाबू सुनीं रुदल बबुआन, जहां पसीना बह रूदल के, तहँवा शोणित गिरे हमार’। ऐसे में जब एकाध बार ऊदल के मरने का प्रसंग सुनने को मिला, तो कलेजे में जो हूक उठी थी, आज भी सालती है। और उसके बाद आल्हा का रण-कौशल! वाह- कवि ने कलम तोड़ दी…। काश आज याद होता या पास में किताब होती! जनता इन नट अल्हइतों से इस कदर परिचित हो गयी थी कि फ़रियाद करती– इंदल के विवाह वाली लड़ाई सुनाइए… लेकिन प्राय: हो गयी की उन्हीं-उन्हीं फ़रियादों का परिणाम यह हुआ कि कुछ दो-चार लड़ाइयाँ ही बार-बार सुनने को मिलतीं। मज़ा तो आता, लेकिन 9-10 में पढ़ने लगे, तो तड़प उठती पूरा सुनने की, जिससे नयी-नयी लड़ाइयों के पते चलते। लेकिन यह इच्छा पूरी हुई ननिहाल में। वहाँ सिर्फ़ नानी थी– अनपढ़। तो क्या पढ़ रहे हैं, जानती ही न थी। और मै बग़ल वाले मामा रणधीर के साथ गाँव के बाहर बनी उनकी पाही पर चला जाता। लेकिन उसे पढ़ना अद्भुत अनुभव था। आज भी मन होता है, पर समय नहीं है- से बड़ी बात है प्रयोजन नहीं मिलता, जिसके लिए पढ़ना आज अकोरहा (काम के लिए) हो गया है! (जारी)
(लेखक साहित्य, कला एवं संस्कृति से जुड़े विषयों के विशेषज्ञ हैं)