#pradepsinghप्रदीप सिंह।
लोकसभा की 102 सीटों के लिए शुक्रवार 19 अप्रैल को पहले चरण की वोटिंग हुई। अंदाजा यह है कि 2019 की तुलना में 4% से लेकर 7% तक कम मतदान हुआ है। इसका क्या मतलब समझा जाए? भाजपा और मोदी विरोधी यह अर्थ निकाल रहे हैं कि मोदी की हैट्रिक को झटका लगा है। इस खबर या कल्पना मात्र से मोदी विरोधियों की बांछें खिल गई हैं। उनको उम्मीद की नजर आ रही है कि वे मोदी को रोकने में कामयाब हो सकते हैं।

शनिवार को कांग्रेस नेता राहुल गांधी का उत्साह आपने देखा होगा कि बीजेपी को 150 से ज्यादा सीटें नहीं मिलने जा रही। लेकिन राहुल गांधी इसी तरह की गलतफहमियों में जीते हैं। 2019 के चुनाव में उनको रणनीतिकारों की ओर से फीडबैक मिला था कि कांग्रेस पार्टी को 180 से 210 सीटें मिल रही हैं …और कितनी? मात्र 52 सीटें। तो राहुल गांधी का फीडबैक सिस्टम, उनका उत्साह, कॉन्फिडेंस का कोई आधार नहीं होता। ये उनकी कल्पना होती है। वह गलतफहमी की दुनिया में जीते हैं। इसलिए उनके दावे की बात नहीं करूंगा।

हां, मतदान प्रतिशत कम हुआ है, यह तथ्य है। इसको कोई नकार नहीं सकता। इसके मतलब कई हो सकते हैं। सबसे बड़ा कारण तो मोदी फैक्टर ही है। मोदी के कारण ही मतदान कम हुआ है, ऐसा कहा जा सकता है। अब आप कहेंगे यह कौन सा तर्क हुआ? दरअसल जो मोदी के या भाजपा के समर्थक हैं उनके मन में यह बात बैठ चुकी है कि मोदी तो जीत ही रहे हैं- भाजपा तो जीत ही रही है- तो एक वोट नहीं पड़ने से कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा। ऐसे में उन मतदाताओं के बीच उदासीनता आ गयी जिनको लगता है कि हमारे वोट से कोई बड़ा बदलाव हो तो वोट दें। यथास्थिति बनी रहती है तो हमारे वोट देने, ना देने से कोई फर्क नहीं पड़ता।

दूसरा, विपक्ष का मतदाता। उस पर भी मोदी फैक्टर का ही असर है। उसको लगता है कि मोदी तो जीत ही रहे हैं। हमारी पार्टी, गठबंधन हार रहा है तो ऐसे में वोट देने, ना देने से क्या फायदा?

अब इन तर्कों/तथ्यों की जरा समीक्षा करते हैं। मैं 1977 से अब तक का यह पहला चुनाव देख रहा हूं जिसमें चुनाव का नतीजा पहले से तय है। विपक्ष इतना निराश मुझे किसी चुनाव में नहीं दिखा। लोकसभा चुनाव में अब तक की सबसे बड़ी जीत 1984 के चुनाव में हुई था जब राजीव गांधी और कांग्रेस पार्टी को 414 सीटें मिली थी और विपक्ष का लगभग सफाया हो गया था। उस समय भी विपक्षी दलों के नेताओं, कार्यकर्ताओं, समर्थकों में निराशा नहीं थी- उत्साह था। विपक्ष को मालूम था कि जीत नहीं रहे हैं। तब भी लड़ाई पूरी ताकत से लड़ी गई। विपक्षी कहीं भी पीछे हटने को तैयार नहीं हुए।

इस बार क्यों ऐसा माहौल बन गया है कि विपक्ष के कार्यकर्ता, समर्थक, वोटर सब निराश हैं। इसका पहला कारण दिया है खुद विपक्षी दलों ने। खास तौर से जब विपक्ष की मुख्य पार्टी कांग्रेस पार्टी के बड़े नेताओं ने चुनाव लड़ने से मना कर दिया तो उसके समर्थकों में यह संदेश गया कि पार्टी चुनाव में हार के डर से भयभीत है। उसके बड़े नेताओं को मालूम है कि चुनाव में जीत नहीं होने वाली है। चुनाव हार जाएंगे तो चुनाव लड़ने का क्या फायदा। तो जब बड़ा नेता चुनाव के मैदान से भागने लगता है तो उसका असर नीचे तक जाता है।

दूसरा कारण जिस तरह से कांग्रेस पार्टी से भगदड़ मची है, नेता पार्टी छोड़कर भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो रहे हैं। वह भी संकेत है कि कांग्रेस पार्टी में गिरावट आ रही है, लगातार वह नीचे की ओर जा रही है।

तीसरा कारण- चुनाव का नतीजा तय जान विपक्षी मतदाताओं में निराशा है। जब हमारे नेताओं में ही आत्मविश्वास नहीं है तो हमारे वोट देने से कोई फायदा नहीं है। मुझे ऐसा लगता है कि ऐसे लोग वोट डालने निकले नहीं होंगे। उनमें दूसरा पक्ष यह है कि बीजेपी या मोदी समर्थक ऐसे लोग भी होंगे जिनको लग रहा होगा कि पार्टी तो जीत ही रही है। तो वो भी उदासीन हो गए हों और वोट देने ना निकले हो।

उत्तर प्रदेश की आठ सीटों की बात करें तो उसमें एक ट्रेंड आपको दिखाई देगा। जो इससे पहले कभी नहीं हुआ। आप कहेंगे ऐसा क्या हो गया? हुआ यह कि इससे पहले मुस्लिम बहुल इलाकों में फर्जी वोटिंग होती थी। हर चुनाव में आरोप लगता था बुर्के की आड़ में पुरुष भी आ रहे हैं और फर्जी वोटर भी आ रहे हैं। इस बार योगी आदित्यनाथ की सरकार ने बड़ा पुख्ता इंतजाम किया। मुस्लिम बहुल इलाकों में महिला पुलिस कर्मियों की बड़े पैमाने पर तैनाती हुई। बूथ के अंदर कोई भी बुरका पहनकर यानी चेहरा ढककर वोट देने नहीं जा सकता था। इसकी वजह से भी वोटिंग कम हुई है। इसके अलावा विपक्ष से मोहभंग के कारण भी मुसलमान वोटरों का एक तबका पिछले चुनावों की तरह सक्रिय नहीं दिखा।

बीजेपी को दुश्मन नंबर 1 मानते हैं मुसलमान

2014 से अब तक जितने चुनाव भारतीय जनता पार्टी जीती है वो मुस्लिम वोटों के बिना जीती है। इसका मुस्लिम मतदाताओं में दो तरह का असर है। एक केंद्र सरकार या भाजपा की राज्य सरकार की जो योजनाएं हैं उनमें धर्म के आधार पर और उनसे भेदभाव नहीं हुआ है। उनको आबादी के अनुपात से ज्यादा  फायदा मिला है। इस वजह से उनकी बीजेपी विरोध की धार थोड़ी कुंद हो गई है। इसका यह मतलब नहीं कि वो बीजेपी को वोट देने वाले हैं।

बहुत से लोग कह रहे हैं कि इस बार मुसलमानों का एक बड़ा तबका बीजेपी को वोट देगा। मैं नहीं मानता। बिल्कुल नहीं देगा। यह हो सकता है कि वोट देने ना जाए, लेकिन वह बीजेपी को वोट देगा यह मैं मानने को तैयार नहीं हूं। मुसलमानों के एक तबके में यह बात धीरे-धीरे घर करती जा रही है कि खिलाफ वोट देने से हमें कोई फायदा नहीं हो रहा है। और हम जिनको वोट देते हैं वह हमारे बारे में बात करने से भी डरते हैं। यहां मुसलमानों से मेरा मतलब मुसलमानों के एक वर्ग से है। पूरे मुस्लिम समाज की बात नहीं कर रहा हूं। मुसलमानों के लिए अब भी बीजेपी दुश्मन नंबर एक है। अब भी बीजेपी को हराना उनका लक्ष्य है। लेकिन अब जिस तरह से नतीजे आ रहे हैं वह एक अलग ही कहानी कहते हैं।

Voting concludes in West Bengal; 76% turnout in final phase | India News - Times of India

खासतौर से उत्तर प्रदेश का फिर जिक्र करूंगा। 2019 में सपा, बसपा, आरएलडी का गठबंधन हुआ। मुसलमानों का लगभग 100 फीसद वोट उसके पक्ष में पड़ा। इसके बावजूद बीजेपी 80 में से 64+2=66 सीटें जीत गई। वो सबसे बड़ा धक्का था मुस्लिम मतदाता के लिए। यह धक्का उनके लिए भी था जो सेकुलरिज्म की बात करते हैं, सेकुलरिज्म के नाम पर वोट मांगते हैं। यह जो मुस्लिम वोट का वीटो था उसे नरेंद्र मोदी ने खत्म कर दिया। मैंने जो कहा कि मुसलमान किसी भी हालत में बीजेपी को वोट नहीं देगा उसका एक उदाहरण देता हूं। असम के विधानसभा चुनाव में एक बूथ पर 90% से ज्यादा मुस्लिम मतदाता थे। वहां बीजेपी को उतने वोट भी नहीं मिले जितने उसके मुस्लिम कार्यकर्ता थे। वहां बीजेपी के 25 बूथ वर्कर थे और वोट बीजेपी को मिले दो या तीन। इससे अंदाजा लगा लीजिए जो बीजेपी के साथ, बीजेपी के लिए काम कर रहे, बीजेपी से जुड़े हुए मुसलमान हैं- वो भी बीजेपी को वोट देने के लिए तैयार नहीं हैं।

इस गलतफहमी में न रहिए कि मुसलमान बीजेपी को वोट देगा। जिस दिन मुसलमान बीजेपी को वोट देने लगेगा बीजेपी की 500 सीटें आएंगी। मुस्लिम इलाकों में इस बार भी मतदान प्रतिशत ज्यादा है लेकिन उस तरह से नहीं है, वह उत्साह, जुनून नहीं है कि भाजपा को हराना है। उन्होंने दिल में कहीं मान लिया है कि हमारी तमाम कोशिश के बावजूद हम बीजेपी को हरा नहीं पाएंगे। बीजेपी से ज्यादा वे उन पार्टियों से निराश हैं जिनको वो वोट देते आए हैं- ये पार्टियां हमारा नाम लेने में, हमारे बारे में चर्चा करने में, हमारे मुद्दे उठाने में संकोच करती हैं… वह डरती हैं कि इससे उनका हिंदू वोटर नाराज ना हो जाए।

मुसलमानों के बड़े वर्ग को लग रहा है कि हम तो दोनों जहां से जा रहे हैं। बीजेपी से दुश्मनी मोल ले ली है, बीजेपी का विरोध कर रहे हैं और बीजेपी हमको सरकारी योजनाओं में हर तरह का लाभ दे रही है। उनके लिए बीजेपी के खिलाफ बहुत मुखर होकर बोलना बड़ा मुश्किल है।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अखबार’ के संपादक हैं)