दीप पर्व दीपावली वैसे तो देश ही नहीं, विदेशों में भी मनाई जाती है लेकिन झारखंड के जनजातीय और मूलवासियों में इसको मनाने की परंपरा कुछ अलग ही है। खूंटी, गुमला, लोहरदगा, सिमडेगा सहित अन्य जिलों में चार दिनों का दीपोत्सव होता है। कार्तिक महीने की कृष्ण त्रयोदशी से कार्तिक शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि तक दीपावली मनाई जाती है।

त्रयोदशी से ही लोग घरों में दीप जलाकर पूजा-अर्चना करते हैं। इस दिन को धनतेरस भी कहा जाता है। हाल के दिनों में धनतेरस के दिन बर्तन सहित अन्य सामान की खरीदारी करने का प्रचलन बहुत बढ़ गया है। पहले गांव-देहात में यह परंपरा नहीं थी। लोग सिर्फ झाड़ू की ही खरीदारी करते थे लेकिन अब हिंदू तो क्या, दूसरे समुदाय के लोग भी धनतेरस के दिन खरीदारी करना शुभ मानने लगे और बर्तन आदि खरीदते हैं। दिवाली के एक दिन पहले लोग मंदिरों और अन्य देव स्थलों पर दीप जलाने के बाद घरों में दीये जलते हैं।

जनजातीय समाज में दी जाती है मुर्गे की बलि

झारखंड की 'हो' जनजाति का 'मागे पोरोब' – साथ मिलकर रहने, समानता और सामाजिक  सद्भाव को बनाए रखने का उत्सव

जनजातीय समाज के अलावा कुछ गैर आदिवासी समाज में दिवाली की रात मुर्गे की बलि देने की परंपरा है। रात को लोग गोशाला में पूजा-अर्चना के बाद मुर्गे की बलि देते हैं और गोवंश की रक्षा की कामना करते हैं लेकिन यह बेहद गुप्त रूप से किया जाता है। इसमें सिर्फ परिवार के लोग ही शामिल होते हैं और प्रसाद के रूप में मुर्गे का मीट खाते हैं।

दिवाली की सुबह घर के गाय, बैल, भैस, बकरी आदि पशुओं को तालाबों, सरोवरों और नदियों में ले जाकर नहलाया जाता हैं। घर आकर उन्हें तेल मालिश करने के बाद उनका श्रृंगार किया जाता है। उस दिन मवेशियों को उड़द, चावल, कुम्हड़ा, कद्दू आदि से बनी खिचाड़ी खिलाते हैं। इसे पखवा खिलाना कहते हैं। हिंदू समाज में मवेशियों को खिलाने का भी मुहूर्त देखा जाता है, जिसे पुरोहित बताते हैं। दीपावली के तीसरे दिन गोधन कुट और पछली दिवाली मनाई जाती है।

झारखंड के जनजातीय समाज की अनूठी दीपावली

पुराने सूप-दौरों से भगाया जाता है दरिद्र

झारखंड की दक्षिण भाग में दीपावली के दूसरे दिन तड़के गांव के लोग पुराने सूप-दौरा और अन्य सामानों को पूरे घर में डंडे से पिटते हुए घर से बाहर निकलते हैं और गांव के एक निश्चित स्थान पर उन्हें जला दिया जाता है। हालांकि, बदलते परिवेश और आधुनिकता के इस दौर में यह परंपरा अब लुप्त होती जा रही है।

कर्रा प्रखंड के बिकुवादाग गांव के पुरोहित सदन गोपाल शर्मा और दिलीप शर्मा बताते हैं कि टीवी और मोबाइल के इस दौर में लोग अपनी संस्कृति और परंपरा को भूलते जा रहे हैं। उन्होंने कहा कि सूप-दौरा जलाने की परंपरा को दसा-मसा खेदना भी कहते हैं, जो दिवाली के दूसरे दिन सुबह साढ़े बजे से शुरू होता है। सदन गोपाल शर्मा ने कहा कि दसा-मसा जलाने के बाद ही लोग ढंड से बचने के लिए आग तापना शुरू करते हैं, जो होलिका दहन तक चलता रहता है।