सत्यदेव त्रिपाठी।
फ़रवरी की एक शाम सातबंगला, मुंबई में ‘वेदा फ़ैक्ट्री आर्ट स्टूडियो’ में सुरेंद्र चतुर्वेदी लिखित नाटक ‘डिप्लोमा इन करप्शन’ का मंचन हुआ। ‘ओंकार थिएटर ऐंड बेस्ट वे मोशन पिक्चर्स’ समूह के लिए इसका निर्देशन योगेश शर्मा ने किया है। और अवसरानुकूल इस प्रस्तुति का सबसे शुभ पक्ष है सद्य: दिवंगत हुए नाटककार के प्रति श्रद्धांजलि की भावभीनी संवेदना!
इसी नाट्यसमूह का योगेश शर्मा द्वारा ही निर्देशित एक नाटक ‘अपने ही पुतले’ का मंचन अभी माह-डेढ़ माह पहले हुआ था। इस बार पता लगा कि यह समूह अपना नाट्याभ्यास सुबह सात बजे से 10-11 बजे तक किसी सार्वजनिक उद्यान में करता है। सुनकर अनोखा भी लगा, रोमांचक भी। ऐसी साधना और आज के ऐसे संकट काल में यह सक्रियता बड़ा मायने रखती है, थिएटर-कर्म के लिए बड़ी उम्मीद जगाती है। वह नाटक जीवन-सृजन के बीच द्वंद्व का था। कई विमर्श लिये हुए था। लेकिन यह नाटक, जैसा कि नाम से ही ज़ाहिर है, भ्रष्टाचार पर केंद्रित है और भ्रष्टाचार की खानें सिद्ध हुई हैं- सत्ता-सरकार व सरकारी महकमे। परसाईजी ने लिखा है – सत्ता के कण-कण में भ्रष्टाचार भरा है। और इस विषय पर इतना लिखा- कहा- खेला- गाया- बजाया गया है कि नाम सुनते ही ऊब-सी आने लगती है।
बात तरीक़े यानी शैली की
ऐसे में वस्तु (कंटेंट) को लेकर तो कोई जिज्ञासा या कुत्तूहल रह नहीं जाता। अब बचती है बात तरीक़े की याने शैली की। तो लेखक ने बड़ा अच्छा उठाया कि एक सेवामुक्त अध्यापक इस भ्रष्ट होते जा रहे समाज को शिष्टाचार सिखाना चाहता है और प्रचार के तौर पर इसकी सूचना अख़बार में भेजता है, जहां गलती से ‘डिप्लोमा इन करप्शन’ छप जाता है। नाट्यालेख का यह विधान विचारणीय है, क्योंकि नाटक के सारे सरंजाम का मूल कारण अख़बार की यह गलती ही है। सवाल है यह हुई कैसे? ऐसी ग़लतियाँ कुछ समान शब्दों में वर्तनी के हर-फेर से होती हैं। तो मास्टरजी ने क्या लिख के दे दिया था? यदि ‘शिष्टाचार में डिप्लोमा’ लिखा, तो भी अधिकतम ग़लत होता, तो ‘भ्रष्टाचार में डिप्लोमा’ बनता। यह ‘करप्शन’ कहाँ से कूद आया? और यह सिर्फ़ शीर्षक में आया- वरना लगभग पूरे नाटक में भ्रष्टाचार छाया है। तो क्या अख़बार ने उनका दिया पूरा रद्द करके नया ही शीर्षक दे दिया?
अब डिप्लोमा पर आयें…। घर में पढ़ा-सिखाकर कोई डिप्लोमा कैसे दिया जा सकता है? डिप्लोमा देना हो, तो पहले संस्था को सरकार के यहाँ पंजीकृत कराना होगा, मान्यता लेनी होगी? इस सबके उल्लेख मात्र के भी बिना ऐसा सब घटित होने से तो नाटक का बिस्मिल्ला ही ग़लत हो जाता है…। यह सब विवेचन इसलिए ज़रूरी है कि रचना के पीछे भी जीवन-जगत की कोई संगति होती है। यूँ ही या हवा में कुछ भी नहीं होता – न रचना में, न जीवन में।
और भारतीयता में अपार आस्था रखने वाले मुझ जैसे व्यक्ति के लिए तो ‘करप्शन’ के साथ ‘डिप्लोमा’– याने शीर्षक के दोनो शब्द खाँटी अंग्रेज़ी के- गोया दोनो गाल पर तमाचा मार रहे हों! भाई, जिस भाषा में नाटक लिखना-करना है, उस भाषा में यदि शीर्षक तक रखने की लियाक़त नहीं है, तो नाटक क्यों लिखना! अंग्रेज़ी में लिखिए। हाँ, कोई तकनीकी, रूढ़ शब्द हो या जिसकी हिंदी प्रचलित हो ही नहीं, तो अवश्य समझा जा सकता है। और यह बात मैं तमाम फ़िल्मों व अखबारी भाषाओं के लिए भी कहता रहता हूँ। अब कोई कहेगा कि जमाने का चलन ही यही है, तो मै कहूँगा कि चलन पर चलने वाला ‘चलताऊ’ भर होता है। चलन (प्रैक्टिस) में होने से कोई बात सही नहीं हो जाती – ख़ासकर सृजन के क्षेत्र में। सृजन का अर्थ ही है- नवनिर्माण। इसकी मूल वृत्ति ही ‘नये प्रयोग’ से बावस्ता होती है।
लिखे से बंधे हुए प्रस्तोता
इस सबसे छनकर यही आता है कि स्वर्गीय चतुर्वेदी का व्यामोह है कि अंग्रेज़ी नाम ज्यादा असरकारक होता है। और प्रस्तोता बेचारे लिखे से बंधे हुए… लेकिन यदि यह बात मन में आती, तो करार के समय यह बदलाव लिखा लेना चाहिए और उनके ‘ना’ कहने पर नाटक को छोड़ देने, न करने का साहस भी होना चाहिए– बशर्ते प्रतिबद्धता हो!
इसी प्रकार की दो असंगतिया और होती हैं शुरू में ही। जैसे ही मास्टरजी अख़बार में खबर पढ़ते ही सम्पादक को फ़ोन लगा देते हैं। वह मास्टरजी का दोस्त है। सो, दफ़्तर बुला लेता है और वे तैयार होने लगते हैं। अब पहली असंगति यह कि सुबह-सुबह कौन सा दफ़्तर खुलता है- वह भी अख़बार का? दूसरी यह कि गलती को ठीक करने के लिए मास्टरजी को जाने की क्या ज़रूरत? वह तो खबर लगाने वाला व फिर यंत्र करेगा…!
बहरहाल, सम्पादक के बुलावे पर जाने के लिए तैयार होने के साथ नाट्यालेख के जो सूत्र जुड़ते हैं, वह बेहद रंगमंचीय साबित होते हैं…। वे जाने वाले ही होते हैं कि इतने में अख़बार पढ़ कर पहले तो एक-एक करके सरकारी महकमे के लोग आने लगते हैं– नगरपालिका, पुलिस, आयकर विभाग आदि। हास्य-व्यंग्य नाटक में झट-पट की नाटकीयता का यह बेहद सटीक संयोजन है। मास्टरजी के निकलते हुए एक जूते का न मिलना- और अंत तक न मिलना भी हास्य का ठीकठाक आयोजन बन पड़ा है। जूते की खोज के दौरान ही पहला व्यक्ति आ जाता है। उसके जाने के बाद फिर जूते की खोज के बीच दूसरा… फिर तीसरा… इस प्रकार समय का यह संयोजन (टाइमिंग) ख़ासा नाटकीय सिद्ध हुआ है। बार -बार जाने को उद्यत होने, रुक जाने, पैसे देने… आदि रूटीन कार्यों को इतनी सफ़ाई से करते हैं मास्टर-मास्टरनी कि एकरसता नहीं आती। इन दृश्यों पर निर्देशक का पूरा संयम (कंट्रोल) भी बिना ज़ाहिर हुए कारगर होता रहता है। और ये दृश्य ही पूरे नाटक हैं, जिन्हें देखना होगा – पढ़ाके मै आपका व नाटक का मज़ा किरकिरा न करना चाहूँगा।
हास्य में उभरता शातिर व्यंग्य
ज़ाहिर है कि सभी इस कार्य को लेकर वैधानिक सवाल खड़ा करते हैं और पैसे लेकर चुपचाप चलने देने की छूट दे देते हैं। पैसे के मोल-भाव, ना-नुकूर व अंत में पत्नी से दिलवाने में भी बड़े क़ायदे के हँसी के क्षण जुटे हैं। लेकिन इन हास्य आयोजनों में उभरता है शातिर व्यंग्य- कि इसी तरह देश चल रहा है। पैसा सब कुछ को जायज़ बना देता है। आज के समय को जानने वाले एक पक्ष के लोग इसमें जोड़ सकते हैं कि मौजूदा केंद्रीय सरकार एवं उसकी पार्टी वाले प्रांतों की सहयोगी सरकारों ने कुछ बड़े-बड़े माफ़ियाओं को पकड़ा है, लेकिन घुन की तरह हर महकमे की कुर्सी-कुर्सी में घुस कर और चाल-चाल कर देश को छननी-छलनी कर देने वाले इस दैनंदिन के भ्रष्टाचार का क्या होगा?
लेकिन नाटक देखते हुए इस बात पर इतना ध्यान न जाना भी हास्य-व्यंग्य की कुदरत होती है। क्योंकि इधर ध्यान गया, तो नाटक का मज़ा न आयेगा। फिर और इस प्रकार के नाटक का मूल उद्देश्य होता है दर्शक को खुश कर देना- लहका देना। तालियाँ-ठहाके न आयें, तो हास्य-व्यंग्य फेल- याने नाटक फेल। और आते रहे, तो समाज-परिवर्तन एवं विरोध वाला नाटक-विधा का मक़सद फ़ौत…! और यह सीमा हास्य-व्यंग्य विधा की है। इस सीमा को तोड़कर पार जाने वाले सक्सेनाजी के ‘बकरी’, शरद जोशी के ‘एक था गधा’… और परसाईजी के व्यंग्यों ‘सदाचार का तावीज़’ व ‘भोलाराम का जीव’… आदि की प्रस्तुतियाँ हुईं, लेकिन अब न रहे ऐसे देवता… और हों भी कहीं, तो उन्हें खोजकर उन पर अक्षत चढ़ाने वाले नहीं मिलते…! फिर इस हास्यमय घटना-प्रवाह में ज्ञानेस्वर वाघमारे के प्रकाश व सुमित जोशी के संगीत पर ध्यान देने के लिए दूसरा शो देखना चाहिए।
व्यंग्य जो लोगों के पल्ले पड़ा
आमंत्रण की सूचना में शीर्षक के साथ कथा-सार पढ़कर मेरे मन में नाटक का जो खाका उभरा, वह यूँ कि भ्रष्टाचार सीखने वालों की क़तारें लग जायेंगी…और तब मारक व्यंग्य यूँ बनेगा कि ऐसी चीजें सीखने का ही जमाना है– शिष्टाचार छपा होता, तो कोई न आता। फिर यह अध्यापक उस अख़बार वाले का शुक्रिया अदा करेगा….! लेकिन ऐसा सब न होकर अच्छा ही हुआ। प्रदर्शन में सरकारी विभागों का आना ज्यादा समझ में आने वाला बना, व्यंग्य भी ज्यादा सीधा बनकर आ गया और लोगों के पल्ले पड़ा। पात्र बन आने वालेशिवि सिंहल, उत्कर्ष राज, बालाजी सिंह राजपूत और संतोष यादव… सभी अपने-अपने विभागों के अनुरूप अपनी एक-एक अलहदा ख़ासियत लिये हुए प्रकटे– वेशभूषा की, रूप की, संवादों की, लहजे की, अदाओं की। सबके लिए प्रतिक्रियाएँ भी बड़ी अच्छी आयीं।
लेकिन तब तक उत्कर्ष (क्लाइमेक्स) आते-आते आँखें फटी की फटी रह गयीं… उँगली दब गयी दांतों तले… यह क्या,किन्नर आ गये…! इनका तो कोई विभाग नहीं होता! फिर इनके आने का कोई तुक समझ में नहीं आया… लेकिन तब तक तो दर्शकों में ख़ुशी का ज्वार आ गया… तालियों व होहो की पुकार के साथ सीटियाँ भी बजीं… सब कुछ अल्ट्रा मॉडर्न- सचमुच का चरम-उत्कर्ष (सुपर-क्लाइमेक्स)। और मेरी भी समझ में इस दृश्य का मक़सद आ गया। निर्देशक को पहले से ही मालूम था– तभी तो सबसे बड़ा दृश्य इसी को बनाना था और वे सारी हरकतें, सारे नख़रे करने का मौक़ा दिया गया… इस मौक़े का फ़ायदा उठाते हुए अगुई चरित्र चम्पा बने रोहित चौधरी छा गये और शेष लोग बंटी-राम-यश मिश्रा आदि ने भी खुलकर सहयोग दिया। और इस दृश्य ने तो अब तक स्वर्ग के द्वार तक पहुँची प्रस्तुति को सीधे मोक्ष ही दिला दिया!
फिर इस मुक़ाम पर पहुँचकर तो सब कुछ के कर्त्ता-धर्ता मास्टर मोहन बाबू एवं उनकी पत्नी कस्तूरी देवी भी द्रष्टा ही बनकर रह गये– महफ़िल तो लूट ली दर्शकों सहित बाक़ियों ने– ‘दुलहिन लइ गयो लच्छ निवासा, नृप समाज सब भयउ उदासा’।
जबकि मास्टर के रूप में निर्देशक स्वयं श्री योगेश शर्मा का बेहद सलीके का सहज नाट्यमय अभिनय और सब कुछ की भोक्ता कस्तूरी देवी बनी स्वेता (श्वेता क्यों नहीं?) मोंडल की सधी-सजग-शालीन-आज्ञाकारी उपस्थिति को प्रस्तुति का श्रिंगार होना था। लेकिन गोया दुष्यंतजी ही साकार हुए–
‘दुकानदार तो मेले में लुट गए यारो, तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गये’!
(लेखक कला एवं संस्कृति से जुड़े विषयों के विशेषज्ञ हैं)